डॉ. सुधाकर मालवीय
Mystic Power - भारतीय वाड्मय में मन्त्र-विद्या का आसन बहुत ऊँचा माना गया है। वैदिक साहित्य, जैन-साहित्य और बौद्ध साहित्य में इस विषय पर स्वतन्त्र ग्रन्थ प्राप्त हैं। जैसे काव्य, कोश, अलंकार, व्याकरण, न्याय और छन्द आदि विषयों के स्वतन्त्र ग्रन्थ अलग-अलग हैं, वैसे ही मन्त्र-विद्या के सैकडो स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। जैन साहित्य में नमस्कार मन्त्र-कल्प, प्रतिष्ठा-कल्प, चक्रेश्वरी कल्प, ज्वालामालिनी-कल्प, पद्मावती-कल्प, सूरिमन्त्रकल्प, वाग्वादिनीकल्प, श्रीविद्या- कल्प, वर्द्धमान विद्या कल्प, रोगापहारिणी-कल्प आदि अनेक कल्पग्रन्थ विद्यमान हैं । इसी प्रकार बौद्ध साहित्य में तारा कल्प, वसुधारा-कल्प, घण्टाकर्ण-कल्प आदि अनेक ग्रन्थ मौजूद हैं। वैदिक साहित्य में तो इस शास्त्र का एक अलग भण्डार ही है; उसमें कत्यायनी तन्त्र महानिर्वाण तन्त्र एवं कुलार्णव आदि अनेक और अपरिमित तन्त्र ग्रन्थ मौजूद है।
https://www.mycloudparticles.com/
कल्पग्रन्थ- जिन ग्रन्थों में मन्त्र- विधान, यन्त्र-विधान मन्त्र-यन्त्रोद्धार, बलिदान, दीपदान, देवता का आवाहन एवं पूजन, विसर्जन और साधन आदि विषयों का वर्णन किया गया हो, वे ग्रन्थ 'कल्प-ग्रन्थ' कहलाते हैं।
तन्त्र-ग्रन्थ - जिनमें गुरु-शिष्य के संवादरूप से तथा शिव-पर्वती के संवाद रूप से मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र और औषधिवल्ली आदि द्रव्यों का वर्णन होता है. वे "तन्त्र-ग्रन्थ' है।
पटल ग्रन्थ किसी एक देवता को आराध्य मानकर उसी देवता से सम्बन्ध रखने वाली मन्त्र यन्त्र आदि की साधन-विधियों जिनमें लिखी हो तथा मान्त्रिक भूमिकाओं का वर्णन भी हो, अनेक काम्यकर्मों में निष्णात होने की बातें वर्णित हाँ, वे 'पटल-ग्रन्थ' कहलाते हैं।
पद्धति ग्रन्थ-जिन ग्रन्थों में अनेक देवी देवों की साधना का प्रकार बताया गया हो, उन्हें 'पद्धति ग्रन्थ कहते हैं।
बीजकोश- मन्त्रों के पारिभाषित शब्दों को समझने की तथा एक-एक अक्षर तथा बीज की अनेक व्याख्याएँ जिन ग्रन्थों में लिखी हो उन्हें 'मन्त्र-कोश' या 'बीज कोश' कहते हैं। मन्त्र दीक्षा गुरु के समीप यथाविधि मन्त्रोपदेश लेने को 'दीक्षा' कहते हैं। जिस सम्प्रदाय की विधि के अनुसार मन्त्र दीक्षा ली हो, उसी के प्रकार साधना करने से मन्त्र सिद्ध होता है, अर्थात् मन्त्र- दीक्षा शिष्य की योग्यता को सूचित करती है।
मन्त्र- पीठिका मन्त्र- शास्त्र में चार पीठिकाओं का वर्णन है। बिना पीठिका के मन्त्र नहीं सिद्ध हो सकता। श्मशानपीठ, शव-पीठ, अरण्य-पीठ और श्यामा- पीठ में चार पीठिका है।
श्मशान पीठ-जिस साधना में प्रतिदिन रात्रि में श्मशान भूमि में जाकर यथाशक्ति विधि से मन्त्र का जप किया जाता है उसे श्मशान पीठ कहते हैं। जितने दिन का प्रयोग होता है, उतने दिन तक मन्त्र का साधन किया जाता है। जैन-ग्रन्थों में लिखा है कि श्रीकृष्ण वासुदेव के प्रतागंज म मुनीश्वर इसी पीठिका में परमेष्ठी महामन्त्र का साधन करते हुए आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सिद्धि और मुक्ति को पहुंचे थे। इसे प्रथम पीठिका भी कहते है शव-पीठ-किसी मृतक कलेश्वर के ऊपर बैठकर या उसके भीतर घुसकर मन्त्रानुष्ठान करना शव पीठिका है। यह पीठिका नाममार्गियों की प्रधान पाठिका है। कर्ण पिशाचिनी उच्छिष्ट गणपति कर्णेश्वनी, उच्छिष्ट आदि देवताओं को साधना तथा अघोर पन्याल की साधनाएँ इसी पीठिका के द्वारा होती है।
अरण्य-पीठिका - मनुष्य जाति का जहाँ संचार न हो, सिंह, स्वापद, सर्प आदि हिंस्त्र पशु-प्राणियों की जहाँ बहुलता हो, ऐसे निर्जन वन-स्थान में किसी वृक्ष या शून्य मंदिर आदि का आश्रय लेकर मन्त्र-साधन करना और निर्भयतापूर्वक मन को एकाग्र रखकर तल्लीन हो जाना अरण्य-पीठिका है। निर्वाण-मन्त्र की विधि में लिखा है कि 'निर्वाणमन्त्रं यदि साधको जपेदरण्यभूमौ शिवसन्निधौ स्थितः ।' अर्थात् 'अरण्य में जाकर शिव मन्दिर में निर्वाण मन्त्र का जप करने से शीघ्र सिद्धि होती है।' संस्कृत साहित्य के इतिहास से पता चलता है कि प्रथमतः१३ आरण्यक प्रन्थों के अनुसार आत्मसिद्धि करने के लिये निर्जन वन में ही रहने की प्रथा थी। वे साधक नगर, ग्राम आदि में या उनके समीप नहीं रहते थे, सदा एकान्त वन में ही रहकर आत्मध्यान किया करते थे । तब उनको अनेक सिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती थीं। जबसे त्यागीवर्ग बनवास त्यागकर नगर, ग्राम आदि का आश्रय लेकर रहने लगा, तभी से ये सिद्धियाँ नष्ट हो गयीं और वे माया-मोह में फँसकर मारे-मारे फिरने लगे अर्थात् त्यागी जीवन के लिये एकान्तवास ही श्रेष्ठ है।
श्यामा-पीठिका - यह कठिन से कठिनतर है। बिरला ही कोई महापुरुष इस पीठिका से उत्तीर्ण हो सकता है। एकान्त स्थान में डिशवर्षीया नवयौवना सुन्दरी स्त्री को वस्वरहित कर, सम्मुख बैठाकर साधक मन्त्र-साधने में तत्पर हो और मन को कभी भी यत्किञ्चित् भी विचलित न होने दे और कठोर ब्रह्मचर्य में स्थिर रहकर मन्त्र का साधन करे। इसे 'श्यामा-पीठिका' कहते हैं। जैन-ग्रन्थ में लिखा है कि द्वैपायनपुत्र मुनीश्वर शुकदेव, स्थूलीभद्राचार्य और हेमचन्द्राचार्य ने इस पीठिका का अवलम्बन किया था और मन्त्र-साधना करके वे सिद्ध हुए। थे ।
मन्त्र किसे कहते हैं ? मन्त्र क्या वस्तु है ? इससे क्या लाभ है ? किस प्रकार लाभ हो सकता है ? ऐसा होने का क्या कारण है ? इस प्रकार के प्रश्नों का होना स्वाभाविक है। इन प्रश्नों के समाधान के लिये 'मन्त्र' शब्द की परिभाषा जान लेना आवश्यक है। यह विषय व्यावहारिक नहीं है, इसका सम्बन्ध मानसशास्त्र से है। मन की एकाग्रता पर इसकी नींव है। इन्द्रियों के विषयों की ओर से लक्ष्य हटाकर मन को एकाप्रकर मन्त्र साधन करने से मन्त्र सिद्ध होता है। मन की चञ्चलता जितनी जल्दी हटेगी, उतनी ही जल्दी मन्त्र सिद्ध होगा। मन्त्र शब्द का शब्दार्थ भी महर्षियों ने यही किया है कि 'मननात् त्रायते यस्मात्तस्मान्मन्त्रः प्रकीर्तितः' (श० क० ६१७) अर्थात् 'म'कार से मनन और 'त्र'कार से रक्षण अर्थात् जिन विचारों से हमारे कार्य सिद्ध हो वह 'मन्त्र' है।
मन्त्र-विद्या योग का उच्चकोटि का विषय है। यह मन को बे-तार की तारक है। हप्नोटिज्म, मैस्मैरिज्म आदि इस विद्या के सम्मुख अत्यन्त तुच्छ है। मन से वर्णोच्चारों का घर्षण होने से एक दिव्य ज्योति प्रकट होती है। उन्हीं वर्णों के समुदाय का नाम मन्त्र है। इस विषय का ज्ञाता सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता । इसलिये शास्त्रकारों ने मन्त्र शब्द का अर्थ विचार किया है। राजनीति शास्त्र में इसी से लिखा गया है कि जिन बिचारों को गुप्त रखकर राज्य-तन्त्र चलाया जाता है, वे मन्त्र है। इसीलिये राज्य तन्त्र के प्रधान संचालक 'को 'महामन्त्री' और उसके साथ काम करने वालों के समूह को मन्त्रिमण्डल कहते हैं। प्रसिद्ध विद्वान् हेमचन्द्राचार्य ने लिखा है-
तन्मन्त्राद्यषडक्षीणं यतृतीयाद्यगोचरम् । रहस्यालोचनं मन्त्री रहश्छन्नमुपनरम् ॥ (शक ० ६१६)
Comments are not available.