मृत्यु के उस पार क्या ?

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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डॉ.श्याम मनोहर व्यास- रहस्य के प्रति उत्सुकता मनुष्य को आदिकाल से है। जीवन और मृत्यु के बारे में मनुष्य की जिज्ञासा अनादि काल से रही है। आज भी मनुष्य का मस्तिष्क यह सोचने को विवश है कि मृत्यु क्या है ? और मृत्यु के पश्चात् आत्मा या देह की चेतनता कहाँ जाती है ? क्या मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म होता है ? क्या मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है ? क्या परलोक या स्वर्ग-नरक नामक कोई स्थान है जहाँ नृत्यु के पश्चात् आत्मा निवास करती है ? जन्म और मृत्यु के बीच का अंतराल ही जीवन है। यदि जन्म और जीवन के बारे में मानव काफी अनुसंधान करता है तो मृत्यु के बारे में क्यों नहीं ? मरणोपरान्त जीवन पर विश्व के दार्शनिकों एवं परामनोवैज्ञानिकों ने पर्याप्त विचार-विमर्श किया है पर अन्तिम सर्वमान्य परिणाम कुछ नहीं निकला है । अनादिकाल से मृत्यु के साथ मनुष्य ने अनेक रहस्य, अंधविश्वास और चमत्कार जोड़े हैं। मनुष्य जानता है कि हर प्राणी को मरना है और मृत्यु विश्व का सर्वमान्य सत्य है। किसी मार डालने या आत्महत्या करने में कोई बड़ा पराक्रमी कार्य नहीं है पर प्राकृतिक मृत्यु एक रहस्यमय पहेली है। जो व्यक्ति किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त होकर मौत के करीब होते हैं, वे मृत्यु को स्वीकार करने के पूर्व स्वस्थ होकर जीने की लालसा अवश्य रखते हैं। वह अस्पताल जाता है, डॉक्टरों के पास जाता है। काफी रुपये-पैसे खर्च करता है। महीनों रोग शय्या पर पड़ा रहता है क्योंकि शरीर का मोह उसे बाँधे रखता है। मृत्यु को सहज नहीं ले पाता है। जब रोग लाइलाज हो जाता है तो वह अपने प्रति भी विद्रोही हो उठता है कि मैं क्यों मरूँ ? ईश्वर के प्रति रोष प्रकट करता है। जब हताश हो जाता है तो ईश्वर की शरण में जाता है और कहता है- प्रभु मुझे थोड़ा जीवित रहने का समय और दो ताकि अपने शेष कार्य निपटा सकूँ ।   मृत्यु के बाद भी अलग प्रकार का जीवन है जो अविराम व अनंत है। हम अनंतकाल तक जीवित रहेंगे क्योंकि भारतीय धर्मग्रन्थों के अनुसार जीवात्मा ब्रह्म का ही भाग (Interal part) है और ब्रह्म अनादि अविनाशी है।   अधिक आयु में जब शरीर अशक्त हो जाता है तो वह निराश होकर चिन्ता मग्न हो जाता है तथा केवल सगे-संबंधियों को ही अपने पास चाहता है। उसे भयावने स्वप्न भी आने लगते हैं, कई व्यक्ति सन्निपात ग्रस्त हो जाते हैं। कई सात्त्विक व धर्मपरायण जन शांति का भी अनुभव करने लगते हैं। अन्तिम समय वे संसार से विदा होते हैं । मृत्यु हैं एक सैकेण्ड के हजारवें भाग में भी आ सकती है और वर्षों तक शरीर बीमारी की यंत्रणा भोग कर भी कष्टमय अनुभूति लेकर मौत को आलिंगन करता है।   हिन्दू धर्म के प्राचीन धर्मग्रन्थों में आत्मा व पुनर्जन्म पर काफी लिखा गया है । अर्जुन की शंका का समाधान करते हुये भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं :   नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।   न चैनं कलेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः ॥   (गीता 2-23)   अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता है और वायु इसको सुखा नहीं सकती।   जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवंजन्म मृतस्य च । तस्मादयरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥   (गीता 2-27)   हे अर्जुन ! पैदा हुये की अवश्य ही मृत्यु होगी और मरे हुये का अवश्य जन्म होगा। इस जन्म-मरण के चक्र का निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए ।   न जायते भ्रियते वा कदाचिन्नायं भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥   (गीता 2-20)   अर्थात् यह जीवात्मा न कभी जन्मा है और न मरता है। यह उत्पन्न होकर फिर होकर फिर होने वाला नहीं है अर्थात् यह चिरन्तन है। यह जन्म रहित, नित्य निरन्तर रहने वाला, शाश्वत और अनादि है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। इस श्लोक में आत्मा के गुण धर्म बतलाये गये हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने मृत्यु के पश्चात् अपने कर्मानुसार पुनर्जन्म ग्रहण करने के संदर्भ में कहा है :   वांसासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥   (गीता 2-22)   अर्थात् मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रों को जीर्ण-शीर्ण होने पर उन्हें त्याग कर नये वस्त्र ग्रहण करता है वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण करती है। कठोपनिषद् में भी मुनि पुत्र नचिकेता यमराज से प्रश्न करता है।   येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये, ऽस्तीत्ये के नायमस्तीति चैके। एतद्विधामनु शिष्टस्त्वयाहं, वराणामेष वरस्तृतीयः ॥   (कठोपनिषद् 1-1-20)   “हे भगवान्, मृत मनुष्य के संबंध में यह एक बड़ा संदेह फैला हुआ है। कुछ लोग तो कहते हैं कि मृत्यु के पश्चात् भी आत्मा का अस्तित्व रहता है और कुछ लोग कहते हैं, नहीं रहता। इस विषय में सत्य क्या है ? इस विषय में आपका जो अनुभव हो वह मुझे बतलाइये ।”   हर व्यक्ति को मृत्यु के बारे में जो जिज्ञासा रहती है वही नचिकेता के मन में थी अतः अपनी मृत्यु संबंधी उत्सुकता को शांत करने के लिये उसने यमराज से यह प्रश्न किया। यमराज ने आत्मा की अमरता एवं उसके शुद्ध स्वरूप के बारे में नचिकेता को बतलाया। वे कहते हैं   अस्य विस्त्रंसमानस्य शरीरस्थ देहिनः ।   देहाद्विमुच्मानस्य किमन्न परिशिष्यते एतद्वतत् ॥   (कठोपनिषद् 2-2-4)   अर्थात् जीवात्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन करने के स्वभाव वाला जब इस वर्तमान शरीर से निकल कर जाता है तो उसके साथ ही इन्द्रिय गुण, प्राण आदि भी चले जाते हैं, तब इस मृत देह में कुछ भी नहीं रहता। जो रहता है वह ब्रह्म का अंश है। जिसके संबंध में तुमने पूछा था ।   पाश्चातय विद्वान् एमर्सन, वर्ड्सवर्थ, शेली, लेवोइजियर, आरनोल्ड एवं सर आलिवर लॉज आदि भी मृत्यु को आत्मा का अंत नहीं मानते थे। वे नहीं मानते थे कि मृत्यु का नाम विनाश है।   लेखक ड्राइडन ने लिखा है –   Death has no power the immortal soul to stay. That, when its present body turns to stay, seeks a fresh home, and with unlessened might, inspires another frame with life and light.   अर्थात् अमर आत्मा का वध करने की सामर्थ्य मृत्यु में नहीं है । जब मृत्यु आत्मा के वर्तमान शरीर का वध करने चलती है तो आत्मा अपनी अक्षुण्ण शक्ति से नया आवास खोज निकालता है और जो दूसरे शरीर को जीवन तथा प्रकाश से भर देता है। वाल्ट विटमैन ने कहा था “नि:संदेह मैं इसके पहले भी दस हजार बार मर चुका   परामनोवैज्ञानिक सर विलियम क्रुक्स मरणोत्तर जीवन में विश्वास करते थे। वे कहते थे कि मृत्यु के बाद भी व्यक्तित्व किसी रूप में जीवित रहता है।   मृत्यु के पश्चात् यदि तुरन्त पुनर्जन्म नहीं होता है, यदि ऐसा मान लिया जाय तो उसके कर्मों का फल किस लोक में भोगना पड़ेगा, यह भी रहस्यमय प्रश्न है। अलग अलग धर्मों में इसके बारे में पृथक्-पृथक् मत हैं। यह भी कहा जाता है कि मुक्ति अर्थात् मोक्ष मिलने पर पुनर्जन्म नहीं होता।   कहा गयाहै – पुनर्जन्म पाता न कभी जो पुरुष हो गया भगवत्प्रात। यदि पुनः जन्म ग्रहण नहीं करना पड़े तो स्वर्ग नरक की कल्पना भी की गई है । नचिकेता ने यमराज से निवेदन किया कि आप मुझे अग्नि विद्या का रहस्य व उपदेश दीजिये जिससे मुझे स्वर्गलोक में मोक्ष की प्राप्ति हो । वह यमराज से कहता है :   सत्वमग्नि स्वर्ग्यमह योषिमृत्यों, प्रब्रूहि त्व श्रद्धधानाय महम् । स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त, एतद् द्वितीयेन वृणे वरेण ॥   (कठोपनिषद् 1-1-13)   हे यमराज! मैं जानता हूँ कि स्वर्ग लोक बड़ा सुखकर है, वहाँ किसी पकार का भी भय नहीं है । स्वर्ग में न तो कोई वृद्धावस्था को प्राप्त होता है और न मृत्युलोक के समान मृत्यु को प्राप्त होते हैं। वहाँ मृत्युकालीन संकट नहीं है। यहाँ पृथ्वी लोक में जैसे प्रत्येक प्राणी भूख और प्यास दोनों की ज्वाला से जलते हैं। वैसे वहाँ नहीं जलना पड़ता है। वहाँ के निवासी शोक से पृथक् होकर सदैव आनंद भोगते हैं पर वह स्वर्ग अग्नि विद्या को जानें बिना नहीं मिलता। अतः हे भगवन् आप मुझे अग्नि विद्या का उपदेश दीजिये जिससे मैं देवत्व को प्राप्त करूँ ।’   स्वर्गदायिनी अग्नि विद्या के उपदेश पूर्व यमराज ने नचिकेता को काफी प्रलोभन दिया कि वह अन्य वस्तुयें माँग ले पर इस विद्या के बारे में हठ न करें पर नचिकेता नहीं माना और यमराज ने उसे अग्नि विद्या का उपदेश दिया । कठोपनिषद् की अग्नि विद्या का अभी तक कोई सर्व सम्मत रूप से वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं हो पाया है। यह अभी तक अज्ञात ही है। उच्च कोटि के योग साधक शायद इस विद्या को जानते हो । कठोपनिषद् में इसके अन्तर्गत आत्म तत्व के बारे में विस्तार से बतलाया गया है । साभार: “पुनर्जन्म, परलोक और परामनोविज्ञान” पुस्तक से  



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