श्री ज्ञानेंद्रनाथ – मुन्डकोपनिषद पर आधारित उपरोक्त सत्संग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह परा-विद्या और अपरा-विद्या का भेद बताता है। यह अंगिरस और शौनक ऋषियों के मध्य का संवाद है। (1) पराविद्या :- परमात्मा को जानने वाली विद्या है। (2) अपराविद्या :- जो धर्म-अधर्म और कर्त्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराये वह विद्या है। ज्ञानशक्ति से हम जानते हैं और क्रियाशक्ति से करते हैं। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, और ज्योतिष इनका ज्ञान होने से ही हम वेदों को समझ सकते हैं। ये अपरा विद्याएँ हैं। (1) वेदों के सही उच्चारण के ढंग को “शिक्षा” कहते हैं। वेदों के एक ही शब्द के दो प्रकार से उच्चारण से अलग अलग अर्थ निकलते है। इसलिये वेद को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि उच्चारण कैसे हो। (2) जितने भी धार्मिक कर्म – पूजा, हवन आदि है उन सब को करने का तरीका जिन ग्रंथों में है वे “कल्प” सूत्र है। (3) “व्याकरण” वेद के पदों को कैसे समझा जाये यह बताता है। (4) “निरुक्त” शब्दों के अर्थ लगाने का तरीका है। (5) “छंद” अक्षर विन्यास के नियमों का ज्ञान कराता है। (6) “ज्योतिष” से कर्म के लिये उचित समय निर्धारण का ज्ञान होता है। उपरोक्त छःओं का ज्ञान वेदों को समझने के लिए आवश्यक है। ये और चारों वेद “अपराविद्या” में आते हैं। “पराविद्या उसको कहते हैं जिससे परमेश्वर की प्राप्ति हो अर्थात् साक्षात्कार होता है। सार :- उपनिषद् के पढ़ने में जो ज्ञान है वह अपराविद्या है, पर उसमें बताये का साक्षात्कार जिससे होता है वह पराविद्या है। “धर्म” – अपराविद्या है, और “साक्षात्कार” – “पराविद्या” है। “शब्दज्ञान” को अपराविद्या है और “ब्रह्मसाक्षात्कार” पराविद्या है। शब्द का ज्ञान होने से हम समझते हैं कि विषय का ज्ञान हो गया, पर मात्र शब्दों के ज्ञान से हम ज्ञानी नहीं हो सकते। शास्त्रों के अध्ययन मात्र से हम ज्ञानी नहीं हो सकते। निज जीवन में परमात्मा को अवतृत कराने का ज्ञान पराविद्या है। वेद जब परमात्मा का साक्षात्कार करा दे तब वह पराविद्या है और उसके अतिरिक्त किसी का प्रकाशन करे तो वही अपराविद्या है। पराविद्या ही वस्तुतः ज्ञान है। पराविद्या से जो परमात्मा का ज्ञान होता है वही एकमात्र ज्ञान है। उससे भिन्न तो सब ज्ञान का आभास मात्र है, ज्ञान नहीं।
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