डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबन्ध सम्पादक) Mystic Power-
मरीचि ने विमानार्चनकल्प के ९२वे पटल के प्रारंभ में "अथातो नाडीचक्र वक्ष्ये" इस प्रतिज्ञावाक्य के साथ देहस्थ नाडीचक्र का निरूपण आरंभ किया है। कहा है कि कन्द से उद्भुत बहत्तर हजार नाड़ियां हैं। इन नाड़ियों में अधोलिखित मुख्य है- इडा, पिंगला, सुषुम्ना, सरस्वती, वारुणी, पूषा, हस्तिजिह्वा, यशस्विनी, विश्वोदरा, कुहू, शखिनी, पयस्विनी, अलम्बुषा तथा गान्धारी । इनमे भी प्रथम तीन प्रमुख कही गई है। इन तीनो के मध्य सुषुम्ना को प्रमुख कहा गया है। यह नाडी वैष्णवी, सात्त्विकी तथा मुक्तिमार्ग प्रदायिनी है। यह सुषुम्ना कन्द मध्य में पद्मसूत्र के समान वीणा दण्डान्त निर्गत तन्त्री अलाबू की तरह वश-अस्थि के साथ मूर्धा के अन्त तक स्थित है। उसके दक्षिण भाग मे दक्षिण नासान्त पिंगला की स्थिति होती है। उस पिगला मे सूर्य का सचरण होता है ।
सुषुम्ना के वाम भाग में वाम नासान्त इडा की स्थिति होती है । इडा मे चन्द्र की स्थिति कही गई है। ये दोनो राजस तथा तामस एव विष तथा अमृत भाग दिवारात्रि के रूप में वर्णित है। सुषुम्ना के पूर्व भाग में ऊपर से नीचे की ओर मेद्रान्त तक कुहू का विस्तार है। अपर भाग में ऊपर से नीचे की ओर जिह्नान्त तक सरस्वती की स्थिति कही गई है। पिंगला के पूर्व भाग में ऊगर सेनीचे की ओर दक्षिण-पादांगुष्ठान्त यशस्विनी तथा अलम्बुषा स्थित रहती है। अपर भाग में दक्षिण नेत्रान्त तक पूषा की स्थिति कही गई है ।
पूषा तथा अलम्बुषा के मध्य में वाम नेत्रान्त हस्तिजिह्वा की स्थिति है । यशस्विनी तथा कुहू के मध्य में ऊपर की ओर जाती हुई सर्वगामिनी दक्षिणपाणि के अंगुष्ठान्त तक वारुणी की अवस्थिति होती है।
पूषा तथा सरस्वती के मध्य मे दक्षिण कर्णान्त तक पयस्विनी विद्यमान रहती है। इडा के पूर्व भाग में ऊपर से नीचे की ओर वाम पादांगुष्ठान्त तक हस्तिजिह्वा स्थित रहती है। अपर में वाम नेत्रान्त तक गान्धारी की अवस्थिति होती है। हस्तिजिह्वा तथा कुहू के मध्य नीचे से ऊपर की ओर वामपाणि अगुष्ठान्त सर्वगामिनी विश्वोदरा की स्थिति निर्दिष्ट है।
गान्धारी तथा सरस्वती के मध्य वाम कर्णान्त गई हुई शखिनी की अवस्थिति है। कन्द के मध्य ऊपर से नीचे की ओर पायुमूलाग्र तक गई हुई अश्वत्थपत्र की शिरा की तरह समुत्पन्न सर्वगामिनी अलम्बुषा कहो गई है ।
मरीचि ने अगले पटल मे नाडियो मे प्राणादि-संचार का निर्देश करते हुए कहा है कि इन नाडियो में प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त तथा धनजय- इन दस वायुओ का सचरण होता है। इनमें प्राणादि पाच वायु मुख्य कहे गये है । इन पाच में भी प्राण तथा अपान मुख्य है। इन दोनों में भी प्राण को प्रधान कहा गया है।
प्राण के पाच निम्नलिखित स्थान है- आस्य, नासिकामध्य, हृदयमध्य, नाभिमध्य तथा दोनो पादागुष्ठ । वह प्राणवायु श्वास तथा निःश्वासकर है। प्राणवायु हृदय-कमल का समाश्रयण कर मुख तथा नासिका के द्वारा निःश्वास तथा उच्छ्वास चलाता है । इन्द्रगोप को प्रभा को तरह अपान वायु गुदाश्रित होतो है । यह मलमूत्र विसर्जनकारक है।
व्यान वायु सधिगत, फेन वर्ण हान-उपादान आदि चेष्टा कराता है। उदान वायु किजल्क की तरह होता है। उसका स्थान कण्ठ कहा गया है। वह अन्नपानादि पोषण क्रियाओं का सम्पादन करता है। समान व्योमाभ होता है । क्षीर में जिस तरह घृत सर्वव्यापी होता है, उसी तरह यह वायु सपूर्ण शरीर में व्याप्त रहता हुआ आदान, विहरण, शयन आदि कराता है ।
नाग वायु श्वेत वर्ण तथा कण्ठ में समाश्रित रहने वाला कहा गया है। उद्गारादि करना इसका काम है। श्वेत वर्ण कूर्म वायु नेत्रो मे रहने वाला है। यह निमीलन तथा उन्मीलन कराता है। कृष्ण वर्ण कृकल वायु उदर समाश्रित होता है। इसी के द्वारा क्षुत्, पिपासा आदि होते हैं। देवदत्त वायु पीत वर्ण का होता है और यह सर्वग वायु तंद्राकारक कहा गया है धनंजय वायु श्यामाभ सर्वंग तथा शोभादि कर्म का सम्पादक कहा गया है।