महंत श्री अवेघनाथ जी– ‘नाथ सम्प्रदाय’ पर विपुल श्रेष्ठ सामग्री प्राचीन ग्रन्थों में बिखरी पड़ी हैं, पर उनका संतोषजनक सूक्ष्म शोध-संग्रह एवं सम्पादन शेष है। उदाहरणार्थ नारदपुराण, उत्तरभाग अध्याय ६९, स्कन्दपुराण, नागरखण्ड, अध्याय २६२, भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व आदिमें श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी एवं श्रीगोरक्षनाथजीके प्रादुर्भावकी बड़ी रोचक कथाएँ वर्णित हैं। इनके साथ ही मत्स्यनाथ, मीननाथ, अवलोकितेश्वर आदि पर्यायवाची नाम भी प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार महर्षि दुर्वासा-विरचित ‘ललितास्तव’ के श्लोक ५६में हनुमानजीके पिता श्रीवायुदेवताके साथ- वन्दे तदुत्तरहरिकोणे वायुं चमूरुवरवाहम्। कोरकिततत्त्वबोधान् गोरक्षप्रमुखयोगिनोऽपि मुहुः ।। -तत्त्वबोधोत्पन्न योगियों में श्रीगोरक्षनाथ जी का सर्वप्रथम निर्देश किया गया है। योग-सिद्धियों से सम्बद्ध होनेके कारण नवनाथों का भी श्रीहनुमान जी से सम्बन्ध रहा है। कई बार संस्पर्धा-सी भी चली है। नाथ-सम्प्रदाय के ग्रन्थों में हनुमानजी की जन्म-कथा इस प्रकार मिलती है- हनुमानजी की माता का नाम अञ्जनी था। वे केसरी नामक वानर की पत्नी थीं। केसरी और अञ्जनीने ऋष्यमूक पर्वत पर जाकर पुत्र-प्राप्तिके लिये शिवजी की आराधना की। जब उन्हें कठोर तपस्या करते हुए सात हजार वर्ष व्यतीत हो गये, तब शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिये और अञ्जनी से कहा—’अञ्जने! कल प्रात:काल तुम सूर्यनारायण के सम्मुख अञ्जलि बाँधकर खड़ी हो जाना, उस समय तुम्हारी अञ्जलि में जो कुछ गिरे, उसका सेवन कर लेना। उसके प्रभाव से तुम्हें अत्यन्त तेजस्वी तथा अजर-अमर पुत्र की प्राप्ति होगी।’ यह कहकर शिवजी अन्तर्धान हो गये। दूसरे दिन प्रात:काल अञ्जनी सूर्यनारायण के सम्मुख अञ्जलि बाँधकर खड़ी हो गयी। उसी दिन अयोध्या नगरी में महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ पूरा किया था। यज्ञ की समाप्ति पर अग्नि देवता हवि लेकर प्रकट हुए और उन्हें उस हवि के तीन भाग करके तीनों रानियों को खिला देने की आज्ञा प्रदान की। अग्निदेव के आदेशानुसार महाराज दशरथ ने हविको तीन भागों में विभक्त करके एक-एक भाग अपनी तीनों रानियों-(१) कौसल्या, (२) कैकेयी और (३) सुमित्रा को दे दिया। रानी कैकेयी ने जिस समय हवि के भाग को हाथ में लिया, उसी समय वहाँ एक चील आ पहुँची और झपट्टा मारकर रानी कैकेयी के हाथ में स्थित हवि के भाग का कुछ अंश अपनी चोंच में भरकर आकाश में उड़ गयी। ऋष्यमूक पर्वत पर, जहाँ अञ्जनी अञ्जलि बाँधे सूर्यनारायण के सम्मुख खड़ी थी, पूर्वोक्त चील अयोध्या से चलकर वहीं आ पहुंची और उसकी चोंच से हविका अंश निकलकर अञ्जनी की अञ्जलि में जा गिरा। ‘अञ्जनी ने उसे सूर्यनारायण का दिया हुआ प्रसाद समझकर ग्रहण कर लिया। उसी के फलस्वरूप उनके गर्भ से श्रीराम-भक्त हनुमानजी का जन्म हुआ। नाथ सम्प्रदाय में हनुमानजी के जन्म के विषय में दूसरी कथा इस प्रकार प्रचलित है-अञ्जनी गौतम ऋषि की पुत्री थी। वह अत्यन्त रूपवती थी। एक बार उसके सौन्दर्य से आकृष्ट होकर देवराज इन्द्र कपट-वेष धारण करके उसके समीप आ पहुँचे। गौतम ऋषि उस समय घर पर नहीं थे। कुछ ही देर बाद ऋषि आश्रम में आ पहुँचे। इन्द्र उन्हें आया हुआ जानकर भयभीत हो भाग गये। इन्द्र को अपनी पुत्री के घर में से बाहर निकलते हुए देखकर गौतम ऋषिको अञ्जनी पर अत्यन्त क्रोध आया। उन्होंने उसे शाप दे दिया कि ‘तू जीवनभर कुवारी (अविवाहिता) ही बनी रहेगी।’ शाप देनेके बाद जब ऋषि ने योग-दृष्टि द्वारा सम्पूर्ण घटना पर विचार किया तो अपनी निर्दोष पुत्री को शाप दिये जाने के कारण उन्हें अत्यन्त खेद हुआ। अस्तु, उन्होंने शाप का निवारण करनेके उद्देश्य से कहा- ‘पुत्री! – तेरे गर्भ से एक महाप्रतापी पुत्र का जन्म होगा।’ इस प्रकार श्रीहनुमानजी का जन्म हुआ। बड़े होकर हनुमानजी ने अनेकों लीला-चरित्र किये, जिनका वर्णन रामायण तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक किया गया है।
Comments are not available.