देवी उपासना में नवार्णमंत्र 

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  • 31 October 2024
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श्री  सुशील जालान- Mystic Power- देवी उपनिषद् में वर्णित नवार्ण मंत्र देवी की उपासना में सर्वोत्तम माना गया है। इष्टदेव के रूप में देवी के आवाहन और मनोकामना पूर्ति हेतु इस मंत्र का सर्वाधिक महत्त्व है। नवार्ण मंत्र साधना कुंडलिनी शक्ति जागरण के लिए उपयोगी है। प्राणायाम और विभिन्न ध्यान के योगासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन, सुखासन आदि, नवार्ण मंत्र को सिद्ध करने के‌ लिए उपयुक्त हैं। नवार्ण शब्द में वर्ण हैं - न + व + अ + र् + ण् + अ 'न' का उपयोग बहुवचन के लिए मान्य है। 'व' कूट बीजाक्षर है स्वाधिष्ठान चक्र का, भवसागर का, जल तत्त्व का। 'अ' ब्रह्मा का वाचक है, सृष्टि रचना के संदर्भ में। 'र्' कूट बीजाक्षर है मणिपुर चक्र का, अग्नि तत्त्व का। 'ण्' वर्ण बिन्दु के रूप में प्रयोग किया जाता है। अंत में 'अ' शब्द को स्थिरता प्रदान करता है। अर्थ हुआ - - देवी बहु भाव रूपों में भवसागर में विद्यमान है, स्वाधिष्ठान चक्र में, जिनसे सृष्टि की रचना की गई है। इस भवसागर को मथने से अग्नि प्रकट होती है मणिपुर चक्र में, नाभि में। यह अग्नि बिन्दु के रूप में, मणि स्वरूप, स्थिर की जाती है। मंथन की विधि - - जैसे दूध बिलोने की क्रिया से मक्खन निकलता है, अथवा, अरणि को बाएं-दाएं घुमाने से अग्नि प्रज्जवलित की जाती है, वैसे ही अनुलोम-विलोम प्राणायाम से, इड़ा व पिंगला नाड़ियों में प्राणवायु को सूक्ष्म करने से, स्वाधिष्ठान चक्र से ऊर्ध्व में स्थित मणिपुर चक्र में अग्नि प्रकट होती है। - विभिन्न योगासनों और शक्ति चालन क्रिया से, मूलबंध और अश्विनी मुद्रा‌ से, कूर्मपीठ के ऊर्ध्व द्वार से, उद्दीप्त किए हुए वीर्य-शुक्राणुओं को सूक्ष्म सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करवाया जाता है। सुषुम्ना नाड़ी में अग्नि तत्त्व प्रकट होता है। मंत्र शब्द में वर्ण हैं - म + न् + त् + र् + अ 'म' महर्लोक/अनाहत चक्र का द्योतक है। 'न्' अनंत का, 'त्' एकवचन का और 'र्' मणिपुर चक्र में स्थित अग्नि तत्त्व के द्योतक हैं। 'अ' अंत में शब्द को स्थायित्व देता है। अर्थ हुआ - - कुंडलिनी शक्ति‌ कूर्म पीठ से जाग्रत होकर, स्वाधिष्ठान चक्र से ऊर्ध्व में स्थित मणिपुर चक्र की अग्नि का अवलंबन कर, सुषुम्ना नाड़ी से, महर्लोक/अनाहत चक्र में प्रवेश करती है। यहां सृष्टि के अनेक/अनंत आयाम परिलक्षित होते हैं ध्यान-योगी को, जो एक ही बिंदु में, मणियों के स्वरूप में, निहित हैं। मन सूक्ष्म तत्त्व है, सूक्ष्म प्राण के वशीभूत होता है, जिसका साधन वैराग्य और प्राणायाम का अभ्यास है। मन ही इन्द्र है दश इन्द्रियों, 5 ज्ञानेन्द्रियां और 5 कर्मेंद्रियां, का स्वामी है। त्रिगुणात्मिका प्रकृति, सत्त्व, रजस् व तमस्, गुणों से, मन में ही विचरण करती है। मंत्र सिद्धि से मन में स्थित तीनों गुणों को आवेशित किया जा सकता है और इस सिद्धि से विशिष्ट कर्मों का सृजन संभव है सृष्टि में ध्यान-योगी की इच्छाशक्ति से। यही कुंडलिनी शक्ति जागृत करने का उद्देश्य है। देवी भगवती की उपासना मुख्यतया दुर्गा के रूप में की जाती है। नव द्वारों की पुरुष देह को एक दुर्ग के रूप में कल्पित कर उसमें स्थित भावना को दुर्गा संज्ञा दी गई है। यह अधिष्ठात्री है, उपास्य है, शक्ति प्रधान है, सर्वसिद्धिदायक है, साधक-योगी के लिए। इस पुरुष साधक-योगी की देह ही यंत्र है, सूक्ष्म नाड़ी समूह ही तंत्र है, और सूक्ष्म प्राण का प्रवाह ही मंत्र है। अर्थात्, कुंडलिनी शक्ति इस स्थूल पुरुष शरीर में ही जाग्रत होती है। उसका परिगमन पथ पूरे शरीर में है, सूक्ष्म नाड़ियों में, तथा विशिष्ट मंत्र के अवगाहन से सूक्ष्म प्राण को अपना वाहन बनाती है। केवल-कुंभक प्राणायाम और खेचरी मुद्रा से कुंडलिनी शक्ति का विकास मूलाधार चक्र से सहस्रार ‌और द्वादशांत ‌तक संभव होता है। इच्छा, ज्ञान और क्रिया, यह तीन आयाम हैं भगवती दुर्गा के। रजोगुण इच्छा शक्ति का, सरस्वती में, तमोगुण ज्ञान शक्ति का, काली में, और सतोगुण क्रिया शक्ति का, लक्ष्मी में, आरोपित किया है ऋषियों ने। यह तीनों क्रमशः सुषुम्ना, इड़ा और पिंगला नाड़ियों में उद्भूत हैं। देवी उपनिषद् में कुंडलिनी शक्ति जागृत करने के उद्देश्य से निम्नलिखित मंत्र दिया गया है - "ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे" इसका अर्थ स्पष्ट किया गया है सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम्, रूद्रयामल, में - "ऐंकारी‌ सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका। क्लींकारी कामरूपिण्ये बीजरूपे नमोऽस्तुते॥ चामुंडा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी। विच्चे चाभयदा नित्यम् नमस्ते मंत्र रूपिणी॥" उपरोक्त अर्थ को और स्पष्ट करें तो हम देखते हैं, तीन बीज हैं, ऐं, ह्रीं और क्लीं। अर्थ है - 'ऐं' में वर्ण हैं - अ + ई + अनुस्वार (बिन्दु)। - 'अ' ब्रह्मा का द्योतक है सृष्टि के सृजन के उद्देश्य से, - 'ई' भावना का, और - (ं) बिन्दु, जिसमें समस्त सृष्टि निहित है। 'ह्रीं' में वर्ण हैं - ह् (विसर्ग) + र् + ई + अनुस्वार (बिन्दु)। - (:) विसर्ग विष्णु का द्योतक है सृष्टि के पालन-पोषण के उद्देश्य से, - 'र्' अग्नि तत्त्व का, - 'ई' भावना का, और - (ं) बिन्दु, जिसमें समस्त सृष्टि निहित है। 'क्लीं' में वर्ण हैं - क् + ल् + ई + अनुस्वार (बिन्दु)। - 'क्' वर्ण को 'ख्' के रूप में भी व्यवहृत किया जाता है। 'ख्' है अंतरिक्ष, आकाश तत्त्व। - 'ल्' है बीज मूलाधार चक्र का, पृथ्वी तत्त्व। - 'ई' भावना का, और - (ं) बिन्दु, जिसमें समस्त सृष्टि निहित है। - रुद्र द्योतक है इस बीज का, जो विशुद्धि चक्र का वाचक है। इन तीनों बीज मंत्रों का कूट अर्थ है - - ब्रह्मा, नाभि में स्थित मणिपुर चक्र में, - विष्णु, हृदय में स्थित अनाहत चक्र में, और - रुद्र, कंठ में स्थित विशुद्धि चक्र में, प्रकट हैं। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र, यह तीन ग्रंथियां हैं, जिनका वेध करना अभिप्राय है यहां। यह त्रिमूर्ति उस एक बिन्दु में ही परिलक्षित होती है। ✓ इन‌ तीन बीज मंत्रों के बाद शब्द है "चामुण्डायै", अर्थ है - च + अ + मुण्ड + आ + य् + ऐ - 'च' वर्ण, "गुप्त चकार स", सप्तशती में निर्दिष्ट है, अर्थात्, चित्त, - 'अ' है आदिकाल का द्योतक, - 'मुण्ड' है धड़ के ऊपर की देह, जिसमें पांचों ज्ञानेन्द्रियां स्थित हैं, - 'आ' है अ से प्रकट होना, - 'य' है वायु तत्त्व, प्राणवायु के संदर्भ में, - 'ऐ' है अ + ई, अर्थात्, आदि काल की भावना। मुण्ड में चित्त प्रकट होता है, जब तीनों ग्रन्थियों का सूक्ष्म प्राण से वेध कर साधक-योगी अपनी चेतना को अनाहत चक्र में सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत कर, प्रवेश कराता है। चित्त, वृत्तियों की, समस्त ‌संस्कारों की, 84 लक्ष जीवभाव युक्त योनियों की पोटली है। इस पोटली को अण्ड कहा गया है यहां जिसमें आदिकाल से अनेकानेक जन्मों में संचित कर्मफल हैं। 'मु' से तात्पर्य है ऊर्ध्व महर्लोक, जो अनाहत चक्र में स्थित है। ✓ "यैकारी" शब्द का अर्थ ‌है - य् + अ + ई + कारी - 'य्' कूट बीजाक्षर है अनाहत चक्र का, - 'अ' सृजनात्मक शक्ति है, - 'ई' भावना है, - 'कारी' यवर्ग के लिए प्रयुक्त है, जिसमें चार वर्ण हैं, य्, र्, ल्, व्, यैकारी वरदायिनी है, ऐसा कहा गया है। यहां कुंडलिनी शक्ति चण्डघाती है, मुक्त करती है चैतन्य आत्मा को चित्त वृत्तियों के अण्ड से और साधक-योगी को अमरत्व प्रदान करती है। यह जीवन्मुक्त साधक-योगी विशिष्ट आध्यात्मिक शक्तियों/सिद्धियों का स्वामी बन जाता है, अर्थात् चैतन्य आत्मा स्वरूप पुरुष के अधीनस्थ हो‌ जाती है प्रकृति। ✓ "विच्चे" शब्द का अर्थ है - व् + इ + च् + चे - 'व्' कूट बीजाक्षर है स्वाधिष्ठान चक्र का, - 'इ' भावनाओं का, जो स्वाधिष्ठान चक्र में निहित हैं, - 'च्' चित्त का द्योतक है, - 'चे' है च् + अ + इ, अर्थात्, चित्त में कामना, 'अ' सृजन और 'इ' भावना, अभयदा नित्यम् अर्थ बताया गया है विच्चे का मंत्र में। जीवन्मुक्त साधक-योगी हर समय अभय पद पर आसीत् रहता है, क्योंकि उसका निर्भाव चैतन्य आत्मा कोई भी भाव स्वाधिष्ठान चक्र से धारण कर सकता है अपने चित्त में। यह भाव, कामना वृत्ति के रूप से प्रकट होता है सृष्टि में। कामभाव होने से भी यह विशिष्ट पुरुष निष्काम ही रहता है क्योंकि वह स्वयं अनासक्त ही रहता है कर्मफल में। भगवती दुर्गा का यह मंत्र अमरत्व और अभयत्व प्रदान करने की सामर्थ्य रखता है। अष्ट महासिद्धियां, अणिमा महिमा गरिमा लघिमा प्राप्ति प्राकाम्य ईशित्व और वशित्व, इस साधक-योगी पुरुष के हस्तगत होती हैं। वैराग्य, ब्रह्मचर्य, योगासन, प्राणायाम और भक्ति भाव से मंत्र-योग का नित्य अभ्यास, यही साधन है इस दुर्गम पथ पर अग्रसर होने का।  



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