ओंकार का योग महात्म्य

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  • 31 October 2024
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श्री सुशील जालान (ध्यान योगी )-   Mystic Power- ओंकार वैदिक संस्कृति और सभ्यता का पर्याय है। यह एकाक्षरी मंत्र है और शिवपुराण उद्घोष करता है कि यह तारक मंत्र है। वैदिक वांग्मय में संस्कृत के मंत्रों का उच्चारण अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ओंकार का भी तीन तरह से उच्चारण किया जाता है, उपयोग की दृष्टि से‌,   ओ३म्     ओंऽऽऽऽ...    ॐ   #ओ३म् / स्वयम्भू लिङ्ग *  यह कुंडलिनी शक्ति जागृत करने के संदर्भ में व्यवहृत है। यहां साढ़े तीन मात्राएं (वर्ण) हैं -   अ + उ + म् + अनुस्वार (ं)   -  अ  है ब्रह्मा ग्रंथि का द्योतक, मणिपुर चक्र में, नाभि में स्थित अग्नि तत्त्व का, रजोगुण का, -  उ  है  विष्णु ग्रंथि का द्योतक, अनाहत चक्र में, हृदय में स्थित प्राणवायु ‌तत्त्व का, सतोगुण का, -  म्  है रुद्र ग्रंथि का द्योतक, विशुद्धि चक्र में, कंठ में स्थित आकाश तत्त्व का, तमोगुण का, -  (ं) अनुस्वर है बिन्दु का द्योतक, त्रिगुणात्मिका मूल प्रकृति जिसमें कूट रूप में स्थित है। यह गुप्त है और म् वर्ण ही परिवर्तित होता है अनुस्वर में, अर्धमात्रा में, मुण्ड में। *  साढ़े तीन वलय में कुंडलिनी शक्ति मूलाधार चक्र में 'स्वयंभू लिङ्ग' से लिपटी रहती है। साढ़े तीन वलय ओंकार की साढ़े तीन मात्राओं के द्योतक हैं।   *  ओंकार साधना से कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है और तीनों ग्रंथियों का वेध कर अनुस्वर (बिन्दु) के रूप में ध्यान-योगी को ध्यान में, मुंड में, दृष्टिगोचर होती है।   *  सामान्यतया योगी साधक रुद्र ग्रंथि का वेध कर चेतना को मुंड में प्रवेश नहीं करा सकते हैं। इसके लिए विशेष प्रयत्न की आवश्यकता होती है सक्षम आध्यात्मिक गुरु के सान्निध्य और अनुग्रह की, शक्तिपात की।   #ओंऽऽऽऽ.../ बाण लिङ्ग   *  यह उच्चारण विशेष प्रयत्न, गुरु की कृपा प्रसाद, के अंतर्गत आता है। इसमें लगातार ओं का उच्चारण इस तरह से किया जाता है कि म् का उच्चारण गौण हो‌ जाए और नासिका में ऊर्ध्व हो जाए अनुस्वर।   *  इसके बार बार प्रयत्न से, कालान्तर में नाद सुनाई देता है मुण्ड में। इसे अनहदनाद भी कहते हैं। यह प्लुत स्वर कहा गया है श्रुति में और इसका वैखरी वाणी से उच्चारण संभव नहीं हो सकता है।   *  नाद वाहन है भगवान् शिव का, नन्दीश्वर है।  नाद के प्रकट होने से शिवलोक में प्रवेश संभव होता है। शिवलोक ध्यान-योगी के मुंड में, महर्लोक में, स्थित है। यहां 'बाण लिंङ्ग' स्थित है, जहां इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियां का संगम होता है। कामदेव का वध कर, निष्काम ध्यान-योगी मोक्ष प्राप्त करता है।   *  अनुस्वर बिन्दु के‌ रूप में सभी आध्यात्मिक सिद्धियों को धारण करता है। कामदेव के भस्म होने से ध्यान-योगी की सिद्धियों में कोई लिप्सा नहीं होती है। महर्षि गण यहां महेन्द्र (महा + इन्द्र) / मेरु पर्वत पर तप में लीन रहते हैं।   #ॐ / तारक लिङ्ग   *  मुण्ड में मेरु पर्वत पर महेन्द्र रूप में ध्यान-योगी अष्ट महासिद्धियां को धारण करता है। यह सिद्धियां कुंडलिनी शक्ति हैं, उमाशक्ति, हरसिद्धि आदि नामों से पूजी जाती हैं।   *  ॐ के ह्रस्व उच्चारण से इन शिव शक्तियों का प्राकट्य किया जाता है। ॐ के पश्चात् उपयोग के लिए शक्ति विशेष का आवाहन किया जाता है शक्ति के विशेष नाम से जो उसके मंत्र में निहित है। 64 योगिनियों का स्वामी है यह सक्षम ध्यान-योगी।   *  ओंकार सिद्ध ध्यान-योगी के पास सिद्धकुंजिकास्तोत्रम्, गौरीतंत्र, रुद्रयामल में वर्णित सभी अभिचार षट्कर्मों की सामर्थ्य स्वत: उपलब्ध हो जाती है। यह हैं -   मारणम् मोहनम् वश्यम् स्तम्भनम् उच्चाटनम् और विद्वेषणम्/शान्ति   *  निष्काम ध्यान-योगी अंततः सहस्रार में स्थित बिन्दु के दर्शन करता है जहां 'तारक लिङ्ग' प्रकट होता है। यह परम् पुरुष की, परमेश्वर की, परम् शिव की स्थिति है। संप्रदाय भेद से इसे ही परम् ब्रह्म भी कहा गया है।   *  आद्य शंकराचार्य ने निर्वाण षट्कम में उद्घोष किया था,   "शिवोऽहं शिवोऽहं"   अर्थात्, मैं ही शिव हूं।   *  बृहदारण्यक उपनिषद् (1.4.10) इस तारक ब्रह्मबोध के लिए कहता है,   "अहं ब्रह्मास्मि"   अर्थात्, मैं ही ब्रह्म हूं।   *  एकाक्षर ओंकार सभी वैदिक मंत्रों के पूर्व में शापोद्धार के रूप में भी व्यवहार में लाया जाता है। जिस ध्यान-योगी को नाद श्रवण होता है, वह विशेष रूप से ओंकार का उपयोग कर सकता है किसी भी देव के आवाहन करने के लिए उसके संबंधित मंत्र से।   *  ओंकार साधना से कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है। ध्यान से संबंधित योगासनों और साथ में प्राणायाम के अभ्यास से इस गुप्त दैविक शक्ति का आविर्भाव होता है योगी साधक में। संबंधित योगासन हैं,   सुखासन, पद्मासन, अर्ध पद्मासन, सिद्धासन, सिंहासन, वज्रासन आदि,   ✓ गणपति योग - सकाम योगी   *  केवल एक प्राणायाम, अनुलोम विलोम, यथेष्ठ है ओंकार साधना में। श्वास की गति को नियंत्रित किया जाता है सतत् अभ्यास से। पूरक, आंतरिक कुंभक और रेचक का अभ्यास क्रमशः 4:16:8 के अनुपात में किया जाता है। 4 का अर्थ है ओ३म् का 4 बार मानसिक उच्चारण, एक ओ३म् लगभग एक सेकेंड के बराबर मानें।   *  एकाक्षर ओंकार ॐ  (ओ३म्) का मानसिक उच्चारण 4 बार पूरक में, 16 बार आंतरिक कुंभक में और 8 बार रेचक में किया जाता है। प्रथम वाम नासिका से पूरक (4), आंतरिक कुंभक (16) और दक्षिण नासिका से रेचक (8) कर पुनः दक्षिण से पूरक, आंतरिक कुंभक  और वाम से रेचक किया जाता है, उसी अनुपात में। यह एक प्राणायाम हुआ।   *  जब यह सुचारू रूप से होने ‌लगे, तब इसे दुगुना किया जाता है, अर्थात्, 8:32:16 अनुपात में। यह भी जब सध‌ जाए, तब इसका भी दूना करते हैं, 16:64:32 के अनुपात में। तत्पश्चात्, आंतरिक कुंभक को 64 से बढ़ा कर 80 तक का अभ्यास और फिर 80 से अधिक, जहां तक हो सके।   *  आंतरिक कुंभक गणपति योग है, जब आंतरिक केवल कुंभक प्राणायाम सिद्ध हो जाता है। गणपति वाहन मूषक ही प्राणायाम है, जो शनै: शनै: नाड़ियों के मल को कुतर कुतर कर नाड़ी शोधन क्रिया करने का द्योतक है। वाम नासिका इड़ा नाड़ी और दक्षिण नासिका पिंगला नाड़ी हैं। मध्य नाड़ी सुषुम्ना है, जो इड़ा और पिंगला के 'सम' होने से जागृत होती है। सुषुम्ना में ही ऋद्धि सिद्धि समाहित हैं।   *  गणपति उमासुत हैं, मूलाधार चक्र पर विराजमान हैं, द्वारपाल हैं कुंडलिनी शक्ति के उद्भव पथ पर। इसीलिए गणपति प्रथम पूज्य देव हैं। सक्षम ध्यान-योगी‌ स्वयं ही गणपति है और अपनी आत्मचेतना को सुषुम्ना नाड़ी के अंतर्गत अनाहत चक्र में स्थित करता है।   ✓ शिवयोग - निष्काम योगी   *  गणपति योग सिद्ध होने पर शिव योग के लिए योगी साधक उपक्रम करता है। इसमें आंतरिक कुंभक की जगह बाह्य कुंभक किया जाता है।   *  वाम नासिका से श्वास पूरक (4) कर दक्षिण नासिका से रेचक (8) करने के बाद बाह्य कुंभक (16) किया जाता है, 4:8:16 के अनुपात में। फिर दक्षिण नासिका से पूरक (4) और वाम नासिका से रेचक (8) और बाह्य कुंभक (16), यह एक प्राणायाम हुआ।   *  इसी प्रकार अनुपात को अभ्यास से बढ़ाया जाता है, 8:16:32 में, फिर इसका दुगुना 16:32:64 में। यह जब सुचारू रूप से होने लगे, तब बाह्य कुंभक को 80 मात्रा तक ले जाए और यह सिद्ध होने से जहां तक संभव हो, वहां तक।   *  शिव उमापति हैं महेश्वर रूप में, अनाहत चक्र में स्थित हैं, और त्रिगुणात्मिका प्रकृति, महासरस्वती (सृष्टि सृजन), महालक्ष्मी (सृष्टि पालन) और महाकाली (सृष्टि संहार), आध्यात्मिक शक्तियों से सेव्य हैं। यहां सक्षम ध्यान-योगी स्वयं ही महेश्वर पद पर आसीत् होता है।   *  अष्ट महासिद्धियां, नव निधियां निष्काम ध्यान-योगी के संग अठखेलियां करती हैं। लेकिन जब वह निस्पृह भाव से उनका अनुशरण नहीं करता है, तब उसके लिए‌ द्वार खुलते हैं आज्ञा चक्र - सहस्रार के परमार्थ के लिए, परम् बोध के लिए।   ✓ परम् शिवयोग - सर्वार्थ चिन्तामणि   *  कुंडलिनी शक्ति नाग के रूप में दृष्टिगोचर होती है शिव के महेश्वर स्वरूप में, जिसके फन पर मणियां सिद्धियों के रूप में प्रकट होती हैं। लेकिन इनमें अलिप्तता ध्यान-योगी को त्रिकूट पर्वत पार करने की क्षमता प्रदान करती है।   *  त्रिकूट के अंतर्गत महाविष्णु व सदाशिव पद हैं। महाविष्णु शेषनाग शैय्या पर लेटे हुए हैं क्षीर सागर में। सदाशिव त्रिकूट पर्वत की चोटी के पास तप में लीन हैं, वासुकि नाग से सेवित हैं।   *  त्रिकूट पर्वत से ऊर्ध्व में सत्यम् लोक है जहां आज्ञा चक्र - सहस्रार में सर्वार्थ चिन्तामणि सिद्धि उपलब्ध होती है, निष्काम ध्यान-योगी साधक को। यहां वही कुंडलिनी शक्ति परम् शिव के अनादि अनंत स्वरूप को धारण करती है।   *  कुंडलिनी शक्ति सहस्रार ‌में पार्वती ‌स्वरूप है। परम् शिव ऊर्ध्व चैतन्य का सर्वोच्च पद है, शिव और पार्वती का युग्म है। सहस्रार ध्यान-योगी के लिए निर्विकल्प समाधि है निष्काम भाव में, और सविकल्प समाधि है जब वह आज्ञा चक्र का उपयोग करता है किसी विशेष कामना की पूर्ति हेतु।   *  सर्वार्थ चिन्तामणि में इच्छा मात्र से ही वैसा घटित हो जाता है भूधरा पर। यह कालातीत है और किसी भी काल खंड का दिग्दर्शन किया जा सकता है, किसी भी आध्यात्मिक शक्ति/सिद्धि का उपयोग किया जा सकता है इस मणि से। इस मणि के‌ प्रभाव को काटने की क्षमता किसी में भी नहीं है सिवाय परम् पुरुष शिव स्वयं के।   *  ओंकार साधना व प्राणायाम के साथ की गई उपासना  परम् पुरुष पद पर सुशोभित करती है सक्षम‌ ध्यान-योगी  को देवी पार्वती ‌के अनुग्रह से।   *  ओंकार अपने आप में एक पूर्ण मंत्र है।   कोऽहं से सोऽहं‌,   अर्थात्, मैं कौन हूं से मैं ब्रह्म/शिव हूं, का बोध ओंकार साधना से संभव होता है।   *  ऊर्ध्वरेता योगी साधक ओंकार साधना में प्रवीण होता है, आंतरिक केवल कुंभक और तत्पश्चात् बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम से। फिर मूर्छा प्राणायाम से पश्यन्ति और परा वाणी जागृत होती हैं ध्यान-योग का अनुशीलन करने से।   *  वैदिक ऋषियों ने ओंकार के 13 आयाम माने हैं। यह हैं -   अ, उ, म्, बिन्दु, अर्धचन्द्र, निरोधिनी, नाद, नादान्त, शक्ति, व्यापिनी, समना, उन्मना और परम् शिव।   ✓  अ उ‌ म् इन तीन वर्णो के संयोजन से ओम् बना है। ओंकार साधना मूलाधार, पृथ्वी तत्त्व और स्वाधिष्ठान, जल तत्त्व, चक्रों के ऊपर स्थित मणिपुर चक्र से प्रारंभ होती है।   -  अ  है ब्रह्मा ग्रंथि, अग्नि तत्त्व, नाभि, मणिपुर चक्र में, -  उ  है विष्णु ग्रंथि, वायु तत्त्व, हृदय, अनाहत चक्र में, -  म्  है रुद्र ग्रंथि, आकाश तत्त्व, कण्ठ, विशुद्धि चक्र में।   *  योगी साधक इन तीनों ग्रंथियों का भेदन कर अपनी चेतना को मुण्ड में प्रवेश कराता है।   ✓  बिन्दु मुख्य है बिंदु का ऊर्ध्वगमन ओंकार साधना में। बिंदु शुक्राणु को कहते हैं। हठयोग प्रदीपिका (3.88) -   "मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु धारणात्",   अर्थात्, बिन्दु (शुक्र) पतन मृत्यु का कारण है और बिन्दु धारण करना जीवन है। जीवन का अर्थ यहां मृत्यु पर विजय प्राप्त करने से है, अर्थात्, जीवन्मुक्ति, जन्म-मृत्यु के शाश्वत बंधन से छुटकारा।   *  मुण्ड में मणिपुर (नाभि) चक्र से उत्पन्न हुई सुषुम्णा नाड़ी में बिन्दु दृष्टिगोचर होता है योगी साधक को, अनाहत चक्र में।   ✓  अर्धचंद्र अर्धचंद्र महर्लोक है मुण्ड में, जिसमें बिंदु को स्थिर किया जाता है। इसे ॐ, इस चिन्ह से दर्शाया जाता है, कि ओम् के ऊपर चन्द्रबिन्दु प्रतिष्ठित है, अर्थात्, मुण्ड में बिंदु को अर्धचन्द्र, महर्लोक में धारण किया गया है। यहां से बिन्दु नीचे नहीं, केवल ऊपर जा सकता है।   ✓  निरोधिनी बिन्दु आत्म तत्त्व है और प्रकृति से आविष्टित है। यहां प्रकृति का निरोध किया जाता है, अर्थात् कामभाव का निरोध, जिससे आत्म तत्त्व प्रकृति से अलग होकर अपने चैतन्य स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सके।   ✓  नाद नाद और बिन्दु का अन्योन्याश्रित संबंध है। कभी ध्यान में योगी को नाद सुनाई देता है मुण्ड में, तो कभी बिन्दु दिखता है। नाद प्लुत स्वर है, जिसका उच्चारण संभव नहीं है। यह एक प्रकार की गूंज है, जैसी घंटा बजाने के बाद सुनाई देती है।   -  नाद शिव का वाहन नंदीश्वर है, योगी को ध्यान के अलावा भी, किसी समय, किसी अवस्था में सुनाई दे सकता है। यह आत्मचेतना का पूर्व संकेत है।   ✓  नादान्त नाद को अनहद कहा गया है, अर्थात् जिसकी हद न हो, जो अनंत ‌तक व्याप्त हो। नाद मध्यमा वाणी, मानसिक भाव/विचार, का द्योतक भी है। जब पश्यन्ति वाणी, अर्थात् दिव्य दर्शन होता है सुषुप्तावस्था में, मध्यमा का उपयोग करने से चेतना वहीं, उस भाव विशेष में, रुक जाती है, अनंत में अग्रसर नहीं होती है।   ✓  शक्ति हर भाव में, शब्द में, शक्ति का संयोजन है। भाव‌ ही देव हैं और देव के संग देवी शक्ति स्वरूप है, जो उस भाव में निहित है। प्रतिमा में दर्शाया जाता है देव/देवी की शक्ति अस्त्रों के रूप में और उनका विवरण विभिन्न स्तोत्रों, स्तुतियों, आरती आदि में दिया जाता है।   -  ओंकार साधना में शक्ति बिन्दु में निहित है और यह बिन्दु महेश्वर लिंग से प्रकट होता है अनाहत चक्र में, उज्जवल, चमकदार, स्वयं प्रकाशित, शुक्र ग्रह के समान, हीरे के जैसा। इसे ही नागमणि कहा जाता है। कुंडलिनी शक्ति नाग के रूप में अपने फन पर इस मणि को धारण करती है, सदाशिव के साथ वासुकि नाग और महाविष्णु के साथ शेष नाग के रूपों में।   ✓  व्यापिनी ईशावास्योपनिषद् (01) -   "ईशावास्यं इदं ॅ्ं सर्वम्" अर्थात्, ईश्वर का आवास चन्द्रबिन्दु (अर्धमात्रा) में है और यह सभी जीवों में स्थित है, व्याप्त है। ओंकार साधना से योगी साधक इस ईश्वर तत्त्व, शक्ति विशेष, को जाग्रत कर सकता है महर्लोक में।   ✓  समना श्रीमद्भगवद्गीता (2.48) -   "समत्वं योग उच्यते" अर्थात्, ईश्वरीय शक्ति का उपयोग करने में समर्थ होता है योगी साधक ओंकार साधना से और उसके कर्मफल में समभाव रखता है, उसपर आश्रित नहीं होता है। इस विधा के उपयोग के कारण योगी हमेशा मुक्त रहता है किसी भी बंधन से।   ✓  उन्मना उन्मना निर्विचार समाधि की स्थिति है, जिसमें केवल सत् का बोध रहता है। ध्यान-योगी ओंकार साधना की इस स्थिति में समस्त अलौकिक सिद्धियों को धारण करता है बिन्दु में, लेकिन कामना के अभाव में उनका उपयोग नहीं करता है।   ✓  परम् शिव यह अनंत बोध‌ की स्थिति है, ओंकार साधना की परमावस्था। इस बोध को शून्य भी कहते हैं, जहां न सत् है और न ही असत्, यानि कि कुछ भी नहीं। इसे ब्रह्मनिर्वाण भी कहेंगे, अर्थात्, निर्ब्रह्म, जहां ब्रह्म भी नहीं है।   #उपसंहार   *  ओंकार साधना में प्रवीण योगी के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता है। सभी देवी देवता ओंकार के अधीन हैं। किसी का भी वह आवाहन कर इच्छित कर्म संपादित कर सकता है, सृष्टि में उत्पत्ति, स्थिति व संहार की सामर्थ्य के साथ।   *  ओंकार साधना सतयुग प्रधान ध्यान-योग की वैदिक सभ्यता व संस्कृति की अनुपम देन है। इस साधना में नर को नारायण, भक्त को भगवान् और साधक को शिव बनाने की क्षमता है। कल्पान्त तक जीवन्मुक्त बनाने की क्षमता है।



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