निर्णय सिन्धु, द्वितीय परिच्छेद के वैशाख मास वर्णन में भार्गवार्चन दीपिका को उद्धृत कर कहा है कि स्कन्द पुराण तथा भविष्य पुराण में परशुराम जन्म तिथि दी गयी है। स्कन्द पुराण में परशुराम जन्म के विषय में अध्याय (६/१६६) में उल्लेख है। वहां संक्षेप में उनके पिता जमदग्नि के जन्म समय का उल्लेख श्लोक ४४ में है, पर उसके बाद परशुराम जन्म की ग्रह स्थिति या तिथि का वर्णन नहीं है। सम्भवतः यह कमलाकर भट्ट के समय के स्कन्द पुराण में था।
स्कन्द पुराण-वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ। निशायाः प्रथमे यामे रामाख्यः समये हरिः।
स्वोच्चगैः षड्ग्रहैर्युक्ते मिथुने राहु संस्थिते। रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो हरिः स्वयम्॥
भविष्य पुराण-शुक्ला तृतीया वैशाखे शुद्धोपोष्या दिनद्वये। निशायाः पूर्वयामे चेदुत्तरान्यत्र पूर्विका॥
लक्ष्मीनारायण संहिता (१/२६८)-
वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ। जमदग्नि गृहे प्रादुरासीत् परशुधृक् हरिः॥२२॥
यहां समस्या है कि वैशाख शुक्ल ३ को पुनर्वसु नक्षत्र सम्भव है या नहीं। तृतीया के दिन सूर्य चन्द्र का अन्तर ३६ अंश से कम होगा। शुक्ल प्रतिपदा से अमावास्या के बीच सूर्य का वृष राशि में प्रवेश होना चाहिये अर्थात् ३० अंश पर होना चाहिये। यदि प्रतिपदा दिन ही वृष संक्रान्ति है तो उस दिन चन्द्र ४२ अंश तक होना चाहिये। तृतीया अन्त तक सूर्य ३३ अंश पर तथा चन्द्र ८२ अंश तक हो सकता है। ८० से ९०अंश २०’तक पुनर्वसु होने से तृतीया दिन रात्रि में जब गणित के अनुसार चतुर्थी का आधा भाग बीत चुका हो,पुनर्वसु नक्षत्र आरम्भ हो जायेगा।
माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों के इतिहास लेखक, श्रीबाल मुकुंद चतुर्वेदी के अनुसार भगवान परशुराम का जन्म ५१४२ वि.पू. वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन-रात्रि के प्रथम प्रहर में हुआ था। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है। ५१४२ विक्रमपूर्व (५१९९ ई.पू.) वैशाख शुक्ल ३, सन्ध्या ८ बजे-लग्न तुला, सूर्य मेष १० अंश, चन्द्र-पुनर्वसु नक्षत्र, मंगल २९८ अंश, बुध १६५ अंश, गुरु ९५ अंश, शुक्र ३५७ अंश, शनि २०० अंश०। यहां बुध उच्च का नहीं हो सकता क्योंकि वह सूर्य से २७ अंश से अधिक दूर नहीं हो सकता। परशुराम देहान्त के बाद कलम्ब वर्ष आरम्भ हुआ था जो केरल में आज भी प्रचलित है। उसके अनुसार तथा दिव्य वर्ष के १९ वें युग गणना के अनुसार उनका देहान्त ६१७७ ई.पू. में हुआ था।वायु, ब्रह्माण्ड, मत्स्य पुराणों के अनुसार स्वायम्भुव मनु से द्वापर आरम्भ (३१०२ ईपू) तह २६,००० वर्ष में ७१ युग हुए।
यहां प्रतियुग ३६० वर्ष से कुछ अधिक (३६६.२० प्रायः) होगा जिसे सुविधा के लिए ३६० वर्ष मान लेते हैं। इनमें ४३ युग वैवस्वत मनु तक तथा २८ युग उसके बाद हुए। वैवस्वत मनु के बाद १२,००० वर्ष की युग गणना के अनुसार द्वापर तक १०,८०० वर्ष हुए जिनमें ३६० वर्ष का युग लेने पर ३० युग होंगे। या २८ युग लेने पर प्रति युग ३८५.७१ वर्ष के होंगे। श्री कुंवरलाल जैन ने ३० समान युगों में २ युग जल प्रलय काल के माने हैं जो वैवस्वत यम काल में हुआ था।
यम काल का जल प्रलय-ब्रह्म पुराण, अध्याय ४३-
इन्द्रनीलमयी श्रेष्ठा प्रतिमा सार्वकामिकी॥७१॥ यम तां गोपयिष्यामि सिकताभिः समन्ततः॥७४॥
लुप्तायां प्रतिमायां तु इन्द्रनीलस्य भो द्विजाः॥७७॥
इस गणना के अनुसार १९वें युग में परशुराम जन्म मानने पर उनका जन्म काल (६७०२-६३४२ ईपू) होगा।
वायु पुराण, अध्याय ९८ (मत्स्य पुराण, ४७/२३६-२४५ भी)-
एकोनविंशे त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकोऽभवत्। जामदग्न्यास्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरः सरः॥९०॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा। सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥
उनका निधन ६१७७ ईपू में हुआ। अतः १९वें युग में जन्म के लिए उनकी आयु ६३४२-६१७७ = १७५ वर्ष से अधिक होगी। ब्रह्माण्ड पुराण आदि में लिखा है कि २१ बार राजाओं के विनाश (लोकतन्त्र स्थापन) में १२० वर्ष लगे थे।
यदि यह कार्य ४० वर्ष आयु में आरम्भ हुआ तो १६० वर्ष की आयु तक लोकतन्त्र स्थापना तथा उसके बाद पश्चिम समुद्र तट पर शूर्पारक (मंगलोर के निकट) में १५ वर्ष से अधिक निवास किया।
कई व्यक्ति परशुराम को अमर मानते हैं। यदि वे अमर होते तो उसके बाद भगवान् राम के अवतार की आवश्यकता नहीं थी । वे ७ चिरजीवियों में से थे। इसका अर्थ दीर्घजीवी है, अमर नहीं । कहा गया है कि ३० परशुराम हुए थे, जो परम्परा भीष्म पितामह काल तक चली थी। यह आज के शंकराचार्य परम्परा की तरह है।
त्रिंशत् परशुरामाश्च (स्कन्द पुराण, ४/२/६१/२०८)
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )
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