पार्थिव सृष्टि

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )- Mystic Power - १. वैदिक उल्लेख- वेद में इसका संक्षिप्त निर्देश है। पहले पृथ्वी की सतह जल रही थी, वह अनवरत वर्षा द्वारा ठण्ढी हुई। नीचे भागों में जल जमा हुआ, वह समुद्र बना। ऊंची भूमि में पर्वत तथा शुष्क भूमि थी। पहले वृक्ष हुए, उसके बाद जीव जन्तु और उसके बाद मनुष्य सृष्टि हुई। यः पृथिवी व्यथमानामदृंहद्यः पर्वतान् प्रकुपिताँ अरम्णात्। यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात्स जनास इन्द्रः॥ (ऋक्, २/१२/२) अर्थात्, वर्षा अधिपति इन्द्र ने पृथ्वी को व्यथित करते हुए क्रुद्ध पर्वतों को प्रचुर वर्षा से शान्त किया। अभी से तीसरे मन्वन्तर (युग) पूर्व में ओषधियों की उत्पत्ति के विषय में वेद में निर्देश है- या ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा। मनै नु बभ्रूणामहं शतं धामानि सप्त च॥ (ऋक्, १०/९७/१, वाज. सं, १२/७५, काण्व सं, १३/१६) अन्य जीव जगत् को जन्म देने के कारण यह अम्ब या माता है- शतं वो अम्ब धामानि सहस्रमुत वा रुहः (ऋक्, १०/९७/२) ओषधीरिति मातरस्तद्वो देवीरुपब्रुवे। अश्वा इव सजित्वरी वीरुधः पारयिष्णवः॥ (ऋक्, १०/९७/३) ओषधीभ्यो अन्नः, अन्नाद् रेतः, रेतसः पुरुषः (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१/२) २. कालक्रम- वेद तथा पुराण दोनों में मन्वन्तर तथा य़ुग के कई अर्थों में प्रयोग है। ब्रह्माण्ड तथा मनुष्य मन में कणों की संख्या समान है (शतपथ ब्राह्मण, १२/३/२/५, १०/४/४/२), अतः ब्रह्माण्ड को विराट् मन कहते हैं और उसका अक्ष भ्रमण काल ज्योतिषीय मन्वन्तर है (३०.६८ करोड़ वर्ष)। वनस्पति के उद्भव काल के लिए वेद में इसे ही युग कहा गया है। अभी ७वां मन्वन्तर चल रहा है, इससे ३ मन्वन्तर पहले वृक्ष उत्पन्न हुए। ज्योतिषीय वर्णन के लिए यह इकाई है। ७वें मन्वन्तर का अनुवाद बाइबिल के आरम्भ में ७वां दिन किया गया है। प्रथम ३ दिन तक सूर्य, पृथ्वी नहीं थे, उस समय दिन का अर्थ केवल ब्रह्माण्ड का अक्ष भ्रमण ही हो सकता है। मनुष्य जीवन के लिए युग का अर्थ ५ वर्ष है। ऋक् (१/१५८/६) में कहा है कि ममता पुत्र दीर्घतमा ने दशम युग में इस सूक्त का दर्शन किया- दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान् दशमे युगे। पृथ्वी कक्षा शंकु आकार में २६,००० वर्ष में एक परिक्रमा कर रही है जिसे पुराणों में मन्वन्तर कहा गया है, जिसमें ७१ युग थे (प्रायः ३६० वर्ष के)-ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९/१९, १/२/९/३६-३७)। मत्स्य पुराण (२७३/७७-७८) के अनुसार स्वायम्भुव मनु के बाद वैवस्वत मनु तक ४३ युग और उसके बाद कलि आरम्भ तक २८ युग थे। १२,००० वर्ष के मानुष युग के अनुसार २४,००० वर्ष का ब्रह्माब्द कहा गया है, जिसका प्रथम भाग अवसर्पिणी है जिसमें ४, ३, २, १ अनुपात में सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि आते हैं। दूसरे अर्ध भाग में कलि से सत्य तक युग होते हैं। अवसर्पिणी त्रेता में जल प्रलय तथा उत्सर्पिणी त्रेता में हिम युग होता है। यह आधुनिक मिलांकोविच सिद्धान्त के २१६०० वर्ष के चक्र से अधिक सत्य है। अभी इसका तीसरा चक्र वैवस्वत मनु (१३९०२ ईपू.) से चल रहा है। आधुनिक अनुमान के अनुसार ११.२, ३३.२,६०.१ हजार वर्ष पूर्व जल प्रलय (कम हिम के कारण समुद्र तल में वृद्धि) हुआ था। हिमयुग २२, ४५.५, ६९.२ हजार वर्ष पूर्व हुए थे। (१) प्रथम चक्र-६१९०२ ईपू-३७९०२ ईपू तक अवसर्पिणी में सत्य युग ६१९०२-५७१०२ त्रेता ५७१०२-५३५०२ द्वापर ५३५०२-५११०२ कलि ५११०२-४९९०२ उत्सर्पिणी में कलियुग ४९९०२-४८७०२ द्वापर ४८७०२-४६३०२ त्रेता ४६३०२-४२७०२ सत्य ४२७०२-३७९०२ (२) द्वितीय चक्र ३७९०२-१३९०२ ईपू अवसर्पिणी में सत्ययुग- ३७९०२- ३३१०२ त्रेता ३३१०२-२९५०२ द्वापर २९५०२-२७१०२ कलि २७१०२-२५९०२ उत्सर्पिणी में कलि २५९०२-२४७०२ द्वापर २४७०२-२२३०२ त्रेता २२३०२-१८७०२ सत्य १८७०२-१३९०२ (३) तृतीय चक्र १३९०२ ईपू से १०,०९९ ई तक अवसर्पिणी में सत्ययुग १३९०२-९१०२ त्रेता ९१०२-५५०२ द्वापर ५५०२-३१०२ कलि ३१०२-१९०२ उत्सर्पिणी में कलि १९०२-७०२ द्वापर ७०२ ईपू से १६९९ ई. त्रेता १६९९-५२९९ ई सत्य ५२९९-१०,०९९ ई.। ३. पुराण क्रम- पुराण में वैदिक सृष्टि वर्णन का विस्तार क्रमबद्ध रूप से है। पहले लोक सृष्टि में पृथ्वी का निर्माण हुआ। पृथ्वी सौर-मण्डल के एकार्णव समुद्र में डूबी हुयी थी। उस समय १०० योजन ऊंचा (उस समय पृथ्वी नहीं थी, यहां सूर्य व्यास ही योजन है) तथा १० योजन मोटा वराह उत्पन्न हुआ जिसने पृथ्वी को धारण किया। ( वर्तमान काल में पृथ्वी की दूरी १०८-१०९ सूर्य व्यास के बीच है। १००-११० योजन बीच के क्षेत्र के वराह अर्थात् भूमि-जल मिश्रित पदार्थ से पृथ्वी बनी)। इस कल्प में पृथ्वी सतह, पर्वतों, समुद्र का निर्माण हुआ। वायु पुराण, अध्याय ६- आपो ह्यग्ने समभवन्नष्टेऽग्नौ पृथिवी तले। सान्तरालैक लीने ऽस्मिन् नष्टे स्थावर-जङ्गमे॥१॥ एकार्णवे तदा तस्मिन् न प्राज्ञायत किञ्चन। तदा स भगवान् ब्रह्मा सहस्राक्षः सहस्रपात्॥२॥ तुल्यं युगसहस्रस्य नैशं कालमुपास्य सः। शर्वर्यन्ते प्रकुरुते ब्रह्मत्वं सर्व कारणात्॥३॥ जलक्रीड़ासु रुचिरं वाराहं रूपमस्मरत्। अधृष्यं सर्वभूतानां वाङ्मयं धर्म संज्ञितम्॥१०॥ दश योजन विस्तीर्णं शत योजनमुच्छ्रितम्। नीलमेघ प्रतीकाशं मेघस्तनित निस्वनम्॥११॥ भूत्वा यज्ञ वराहो वै अपः स प्राविशत् प्रभुः॥२२॥ सामुद्रीर्वै समुद्रेषु नादेयीश्च नदीष्वथ॥२३॥ तस्योपरि जलौघस्य महती नौरिव स्थिता। चरितत्वाच्च देहस्य न मही याति विप्लवम्॥२६॥ पृथिवीं तु समीकृत्य पृथिव्यां सोऽचिनोद् गिरीन्॥२८॥ निषिक्ता यत्र यत्राऽऽसंस्तत्र तत्राचलोऽभवत्। स्कन्नाचलत्वात् अचलः पर्वभिः पर्वतः स्मृतः॥३०॥ लोकान् प्रकल्पयित्वा च प्रजा सर्गं ससर्ज ह॥३३॥ लोक सृष्टि के बाद प्रजा सृष्टि आरम्भ हुई। प्रजा सृष्टि में पहले तम तथा तिर्यक् सृष्टि अर्थात् वृक्ष, पशु-पक्षी बने। उसके बाद तृतीय ऊर्ध्व या मनुष्य सृष्टि हुई। वायु पुराण, अध्याय ६- प्रध्यान समकालं वै प्रादुर्भूतः तमो मयः॥३५॥ बहिरन्तः प्रकाशश्च शुद्धो निःसंज्ञएव च॥३८॥ (अन्तः संज्ञ वृक्ष) तस्मात् तिर्यक् व्यवर्तन्त तिर्यक् स्रोतः ततः स्मृतम्॥४१॥ ऊर्ध्व स्रोताः तृतीयस्तु स चैवोर्ध्वं व्यवस्थिताः॥४७॥ प्रकाशा बहिरन्तश्चमनुष्याः साधकाश्च ते॥५४॥ ब्रह्माण्ड पुराण, द्वितीय अनुषङ्ग पाद के अध्याय ७, ८ में पृथ्वी पर लोक सृष्टि का बहुत विस्तार से वर्णन है। तप्त पृथ्वी सतह अनवरत वर्षा से शीतल होने पर पहले छोटे और बड़े वृक्ष हुए, कीट, पतंग और पशु सृष्टि पहले जल और स्थल में हुयी। अन्त में मनुष्य सृष्टि हुई। आदिम मनुष्य नदी या समुद्र तट पर रहते थे, जो वृक्षों से फल मूल मिला वह खाते थे। विश्राम के लिए वृक्ष की शाखाओं पर रहते थे। शाखाओं को काट कर उनसे घर बनाया, अतः शाखा की तरह उसे शाला कहा गया। वेद में ओकः का अर्थ घर होता है। अतः हिमालय तथा यूरोप के शीत भागों में जिस वृक्ष से घर बनते हैं, वह ओक कहा जाता है। शाला निर्माण के लिए भारी लकड़ी वाला वृक्ष भी शाल या साल कहा जाता है। घर बनने के बाद कुछ लोग साथ रहने लगे। घरों के बीच चलने के मार्ग बने। कृषि का आरम्भ हुआ। वाहन के प्रयोग के बाद चौड़े मार्ग बने। जल स्रोत और निकास की व्यवस्था होने पर नगरों का विकास हुआ। नगर के भीतर और बाहर के मार्ग बने। समुद्र यात्रा के लिए नौका का प्रचलन हुआ। यही वर्णन वायु पुराण, अध्याय १८ तथा वराह पुराण, अध्याय ३३-३६ में है। ४. ब्रह्मा पूर्व काल- (१) अन्धकार युग-कम से कम १० करोड़ वर्षों से मानव सभ्यता है। पर उतने पुराने वर्णन उपलब्ध नहीं हैं। ब्रह्माब्द के पूर्व मानव सभ्यता का पता नहीं है, जिसे अन्धकार युग कहा गया है। आसीदिदं तमोभूतं अप्रज्ञातं अलक्षणम्। अप्रतर्क्यं अविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः॥ (मनुस्मृति, १/५) (२) आदि कृत युग (६१९०२-५७१०२ ईपू)- इसका वर्णन वराह पुराण, अध्याय ३३, ३४, ३५ में है। अध्याय ३३-आदि कृत से पूर्व रुद्र सृष्टि-अनियमित, पशु जैसा समाज। अध्याय ३४-पितृ सर्ग-महातपा द्वारा वर्णन। गोपीनाथ कविराज जी ने ज्ञानगंज पुस्तक में इनका उल्लेख किया है कि ये हजारों वर्षों से ज्ञान गंज नामक गुप्त तथा दिव्य स्थान में साधना रत हैं। इनके द्वारा पितृ सर्ग की उत्पत्ति का वर्णन। अध्याय ३५-महातपा द्वारा सोम उत्पत्ति वर्णन। ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि के पुत्र सोम हुए। उनका विवाह दक्ष की २७ कन्याओं से हुआ। उनमें रोहिणी सबसे बड़ी थी। रोहिणी के साथ चन्द्र अधिक रहते थे, तो अन्य पत्नियों ने दक्ष से शिकायत की। दक्ष ने चन्द्र को क्षीण होने का शाप दिया। इससे वनस्पतियां भी क्षीण हो गयीं। उसके बाद समुद्र मन्थन द्वारा सोम उत्पन्न हुआ। यह ज्योतिषीय वर्णन है, किसी मनुष्य या राजा का नहीं। चन्द्र कक्षा को दक्ष वृत्त कहते हैं जिसके २७ नक्षत्र उनकी पत्नियां हैं। रोहिणी को ज्येष्ठ या प्रथम कहने का अर्थ है कि उस काल में रोहिणी नक्षत्र में विषुव संक्रान्ति होती थी। महाभारत काल में ३५८१-२६२१ ईपू तक रोहिणी नक्षत्र में विषुव संक्रान्ति होती थी। इसके एक चक्र = २६,००० वर्ष पूर्व स्वायम्भुव मनु हुए थे। २ चक्र पूर्व अर्थात् ५५,५८०-५४,६२० ईपू तक भी रोहिणी नक्षत्र में विषुव संक्रान्ति थी। अर्थात् प्रायः ५५,००० ईपू में जलवायु में भीषण परिवर्तन के कारण अकाल जैसी स्थिति हुयी थी। उसके बाद देव जातियों ने समुद्र मन्थन द्वारा कृषि व्यवस्था में सुधार किया। सम्पत्ति या अन्न स्रोत रूप में ४ समुद्र हैं-स्थल मण्डल, जल मण्डल, वायुमण्डल, जीव मण्डल। इनको आजकल लिथोस्फियर, हाइड्रोस्फियर, ऐटमौस्फियर तथा बायोस्फियर कहते हैं। इन साधनों का अधिक व्यवस्थित उपयोग ही समुद्र मन्थन हैं। यह सत्य या कृतयुग के समाप्त होने पर हुआ तथा उन्नत मणिजा सभ्यता का आरम्भ त्रेता से हुआ। (३) मणिजा युग (५७१०२-४५१०२ ईपू) - यह युग प्रथम चक्र के अवसर्पिणी त्रेता से उत्सर्पिणी सत्ययुग तक था। उसके बाद का त्रेता ब्रह्मा का युग था, जैसा वायु पुराण आदि में लिखा है। मुख्यतः वायुपुराण तथा वराह पुराण के आधार पर पण्डित मधुसूदन ओझा ने अपनी पुस्तक जगद्गुरु वैभव में इसका वर्णन किया है। इनका आधार वायु पुराण का अध्याय ५७ है। ब्रह्माण्ड पुराण, अध्याय (१/६) में भी है- अबुद्धिपूर्विका वृत्तिः प्रजानां भवति स्वयम्। अप्रवृत्तिः कृतद्वारे कर्मणः शुभपापयोः॥५४॥ वर्णाश्रमव्यवस्थाश्च न तदासन्न तस्कराः। अनिच्छा द्वेष युक्तास्ता वर्तयन्ति परस्परम्॥५५॥ ज्ञानं परं कृतयुगे त्रेतायां यज्ञ उच्यते। प्रवृत्तं द्वापरे युद्धं स्तेयमेव कलौ युगे॥५९॥ उसके पूर्व असभ्य वनवासी युग था। स्वायम्भुव मन्वन्तर के आरम्भ में ब्रह्मा के पुत्र अजित नाम के थे। स्वयम्भू के पुत्र जित तथा अजित थे। ये सभी शुक्र नाम से प्रसिद्ध थे। इन देवों के ३ गण थे-तृप्तिमन्त, तुषिमन्त, व्रजकुल। उस समय याम देवों ने विज्ञान का विकास किया। तृप्तिमन्त गण में तीन गण थे-अजित, जित-अजित तथा जित गण। इनमें जित गण बाद में १२ कलावान् हुए, त्विषिमन्त शासन करते थे, वैश्य और कार्मिक वर्ग व्रजकुल नाम से प्रसिद्ध थे। इसमें विद्वान् या ज्ञान साधकों को साध्य कहते थे। राजा या रक्षकों को महाराजिक कहते थे। व्यापार, कृषि आदि व्यवसाय कर समाज चलाने वालों को आभास्वर कहते थे। विविध शिल्प ज्ञाताओं को तुषित कहते थे। १२ प्रकार के साध्य, १२० महाराजिक थे जो २२० तक हो गये। ६४ प्रकार के आभास्वर तथा ३६ तुषित वर्ग थे। पुरुष सूक्त में देवों के पूर्व साध्य युग का कथन है जो यज्ञों के समन्वय से उन्नति के शिखर (नाक) पर पहुंचे। यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ (पुरुष-सूक्त, यजुर्वेद, ३१/१६) वायु पुराण (३१/३-२१) तथा ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/३/५-१७), नारद पुराण (१/१२१/५१-५२) में भी उल्लेख है। ५. मनुष्य ब्रह्मा- महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय ३४८ में मनुष्य रूप में ७ ब्रह्मा का वर्णन है- १. मुख्य (नारायण के मुख से)-वैखानस को उपदेश, २. नेत्र से-सोम को उपदेश, उनसे रुद्र, वालखिल्यों को, ३. वाणी से-इसे शान्ति पर्व ३४९/४९ में वाणी का पुत्र अपान्तरतमा कहा है, उनके माता पिता के लिये वाणी-हिरण्यगर्भाय नमः यज्ञ में पाठ होता है। ४. आदि कृत युग में (श्लोक ३४) कर्ण से ब्रह्मा की उत्पत्ति-आरण्यक, रहस्य. और संग्रह सहित वेद क्रम से स्वारोचिष मनु, शंखपद, दिक्पाल, सुवर्णाभ को उपदेश। ५. आदि कृत युग में (श्लोक ४१) नासिका से ब्रह्मा की उत्पत्ति- क्रम से वीरण, रैभ्य मुनि, दिक्पाल कुक्षि को उपदेश। ६. अण्डज ब्रह्मा (शान्ति पर्व ३४९/१७ में भी)-से बर्हिषद् मुनि, ज्येष्ठसामव्रती हरि, राजा अविकम्पन को उपदेश। ७. पद्मनाभ ब्रह्मा से दक्ष, विवस्वान्, वैवस्वत मनु, इक्ष्वाकु को उपदेश। यह सम्भवतः मणिपुर के निकट हिमालय के पूर्व भाग में थे। उनके नाम पर त्रिविष्टप् का पूर्व भाग ब्रह्म विटप (ब्रह्मपुत्र नदी का स्रोत क्षेत्र), ब्रह्मपुत्र, ब्रह्म देश (बर्मा, अभी म्याम्मार = महा + अमर) हैं। इनके अतिरिक्त २ मुख्य ब्रह्मा और थे-१. पुष्कर ब्रह्मा पुष्कर द्वीप (दक्षिण अमेरिका) में न्यग्रोध में रहते थे। यह उरुग्वे पेरु सीमा पर था जहां से ब्रह्मा के ४ मुख की तरह ४ दिशा में राजमार्ग जाते थे। वेद में उरुगायः शब्द का प्रयोग अधिक गौ के लिए है। आज भी उरुग्वे में प्रति व्यक्ति गौ संख्या सबसे अधिक है। त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत। मूर्ध्नो विश्वस्य वाधतः॥१३॥ तमुत्वा दध्यङ्गृषिः पुत्र ईधे अथर्वणः। वृत्रहणं पुरन्दरम्॥१४॥ (ऋक्, ६/१६) न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे ब्रह्मणः स्थानमुत्तमम्। तस्मिन्निवसति ब्रह्मा पूज्यमानः सुरासुरैः॥(विष्णु पुराण, २/२/८५, ब्रह्माण्ड पुराण, ८/८/७) न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे पद्मवत् तेन स स्मृतः (मत्स्य पुराण, १२३/३९) (२) कश्यप ब्रह्मा-कश्यप के बाद १० युग = ३६०० वर्षों तक देव असुरों में युद्ध चला जिसके बाद वैवस्वत मनु हुए (१३९०२ ईपू)। अतः कश्यप का समय १७,५०२ ईपू. होगा। वे स्वायम्भुव मनु के बाद दूसरे व्यास हुए। इस प्रसंग में उनको भी कई बार ब्रह्मा या प्रजापति कहा गया है। राजस्या ब्रह्मणोंऽशेन मारीचः कश्यपोऽभवत्॥ (ब्रह्माण्ड, २/३/३/१०५) कश्यपो ब्रह्मणोंऽशश्च पृथिव्या अदितिस्तथा॥ (ब्रह्माण्ड, २/३/७१/२३८) ६. स्वायम्भुव मनु- (३३१०२-२९१०२ ईपू)-इस काल में कम से कम ४ मनुष्यों का स्वायम्भुव के रूप में वर्णन है-(१) जित-अजित के पिता, (२) याम देवों के पिता, (३) ३३ छान्दोगों के पिता, (४) मणिजा काल में साध्यों के पिता (वायु पुराण, ३१/३-२१)। उनके बाद चौथे स्वायम्भुव काल में वेदों का प्रणयन हुआ। उसके बाद वर्तमान सप्तम वैवस्वत मनु का काल १३९०२ ईपू से आरम्भ हुआ जिसके बाद सत्य, त्रेता, द्वापर के १०८०० वर्ष ३१०२ ईपू में पूर्ण हुए। इस बीच में ७ अन्य सावर्णि मनु हुए जो इन ७ मनुओं के परिवार के ही थे। ५ मन्वन्वर कालों को १५,२०० वर्ष में बांटने पर इनके काल प्रायः इस प्रकार हैं- क्रम मनु सावर्णि मनु काल (ईपू) १. स्वायम्भुव इन्द्र ३३१०२-२९१०२ २. स्वारोचिष देव २९१०२-२६०६२ ३. उत्तम रुद्र २६०६२-२३०२२ ४. तामस धर्म २३०२२-१९९८२ ५. रैवत ब्रह्म १९९८२-१६९४२ ६. चाक्षुष दक्ष १६९४२-१३९०२ इनके २ पुत्र कहे जाते हैं-प्रियव्रत, उत्तानपाद। प्रियव्रत स्वायम्भुव व्यास पूर्व के हैं जब महाद्वीपों का विस्तृत मानचित्र तथा आकाश के लोकों का निर्धारण हुआ। आकाश के धाम तथा लोकों की माप और नाम करण के बाद ही वेद मन्त्रों में उनका उल्लेख सम्भव था। प्रियव्रत द्वारा रथ से पृथ्वी की ७ परिक्रमा करने से ७ द्वीप बने बीच के भाग ७ समुद्र हुए। यहां पृथ्वी के चारों तरफ ७ कक्षाओं से बने क्षेत्रों का निर्देश है, जिनको महाद्वीप कहा गया है और उनके नाम पृथ्वी के महाद्वीपों के नाम पर ही हैं। बीच के क्षेत्रों के नाम भी पृथ्वी के समुद्रों के नाम पर हैं। पृथ्वी के महाद्वीप वृत्त या वलय आकार के नहीं हैं। (भागवत पुराण, ५/१/२१-३२, देवी भागवत पुराण, ८/४/१३-१५) वेद में उत्तानपाद द्वारा दूरी तथा काल के माप का वर्णन है। यहां उत्तान पाद का अर्थ है छोटी माप द्वारा उससे कई लाख बड़े माप का अनुमान (Extrapolation)। जैसे पिछले १० वर्ष का परिवर्तन देख कर करोड़ वर्षों के इतिहास का अनुमान, या पृथ्वी से तुलना कर सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड तथा दृश्य जगत् की माप। देवानां युगे प्रथमे‍सतः सदजायत। तदाशा अन्वजायन्त तदुत्तानपदस्परि॥२॥ भूर्जज्ञ उत्तानपादो भुव आशा अजायन्त। अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि॥३॥ (ऋक्. १०/७२/३-४) ६. वेद रूप में विज्ञान समन्वय- प्रायः ५७,००० ईपू से मणिजा सभ्यता विकसित थी और उस काल के अनेक खान मिले हैं। किन्तु वेद रूप में सभी विज्ञान शाखाओं का एकीकरण स्वायम्भुव मनु के काल में हुआ। उनको प्रथम व्यास कहा गया है। अन्तिम २८वें व्यास कृष्ण द्वैपायन थे जो भीष्म पितामह के समकालीन थे। लिपि की उत्पत्ति गणपति द्वारा हुई- गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्। ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥ विश्वेभ्यो हित्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नः कविः। स ऋणया (-) चिद्-ॠणया (विन्दु चिह्नेन) ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्तमह ऋत- (Right, writing, सत्य का विस्तार) ऋतस्य धर्तरि।१७॥ (ऋक् २/२३/१,१७) = ब्रह्मा ने सर्व-प्रथम गणपति को कवियों में श्रेष्ठ कवि के रूप में अधिकृत किया अतः उनको ज्येष्ठराज तथा ब्रह्मणस्पति कहा। उन्होंने श्रव्य वाक् को ऋत (विन्दुरूप सत्य का विस्तार) के रूप में स्थापित किया। श्रव्य वाक्य लुप्त होता है, लिखा हुआ बना रहता है (सदन = घर, सीद = बैठना, सीद-सादनम् = घर में बैठाना)। पूरे विश्व का निरीक्षण कर (हित्वा) त्वष्टा ने साम (गान, महिमा = वाक् का भाव) के कवि को जन्म दिया। उन्होंने ऋण चिह्न (-) तथा उसके चिद्-भाग विन्दु द्वारा पूर्ण वाक् को (जिसे हित्वा = अध्ययन कर साम बना था) ऋत (लेखन ) के रूप में धारण (स्थायी) किया। विज्ञान की हर शाखा का विकास स्वायम्भुव मनु काल में हुआ। २० शास्त्रों के स्रोत रूप में स्वायम्भुव मनु का विस्तृत वर्णन पण्डित भगवद्दत्त ने भारतवर्ष का बृहत् इतिहास, खण्ड १ में किया है। शोध केन्द्र के रूप में १० ऋषि संस्थायें बनीं जिनको ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा गया है (महर्षि कुल वैभवम्-पण्डित मधुसूदन ओझा)। ७. स्वारोचिष मन्वन्तर (२९१०२-२६,०६२ ईपू)- देव सावर्णि प्राचीन काल के याम देवों की तरह पुनः देव सभ्यता विकसित हुयी। इस काल के २ मुख्य राजाओं का वर्णन है-उत्तानपाद, तथा उनके पुत्र या वंशज राजर्षि ध्रुव। उत्तानपाद स्वायम्भुव मनु युग के बाद प्रथम मुख्य राजा थे। उनके पुत्र ध्रुव चक्रवर्त्ती राजा थे। उनके देहान्त के समय पृथ्वी के उत्तर अक्ष की दिशा ध्रुव तारा की तरफ थी (२७,३७७ ईपू-भागवत पुराण, ४/८/१२)। ८. उत्तम तथा तामस मन्वन्तर- उत्तम मन्वन्तर का काल २६०६२-२३०२२ तथा तामस का काल २३०२२ से १९९८२ ईपू है। इस अवधि में रुद्र तथा धर्म सावर्णि मनु हुए। इन मन्वन्तरों का बहुत कम वर्णन उपलब्ध है। ध्रुव के कुछ वंशजों का उल्लेख है जो उत्तम मन्वन्तर के हो सकते हैं। उत्तम मन्वन्तर में उत्तम मनु को वत्स बना कर पृथ्वी का दोहन हुआ। पृथ्वी के दोहन के २ अर्थ हैं, खनिज निष्कासन या कृषि। इन दोनों की उन्नति इस युग में हुई, इस लिए यह उत्तम काल हुआ। पण्डित मधुसूदन ओझा के अनुसार वामदेव कृषि के विकास के दायित्व में थे। उनके स्रोत का पता नहीं चला। इस काल में रुद्र सावर्णि भी थे, जिनका एक नाम वामदेव है। इनको वेद में भोजन देने वाला कहा गया है- ब्रह्मास्य शीर्षं बृहदस्य पृष्ठं वामदेव्यमुदरमोदनस्य। छन्दांसि पक्षौ मुखमस्य सत्यं विष्टारी जातस्तपसोऽधि यज्ञः॥ (अथर्व सं. ४/३४/१) स्कन्द पुराण (७/१/१०५/४५) के अनुसार वामदेव तृतीय कल्प का नाम है जो इस प्रसंग में तृतीय मन्वन्तर है। तामस मन्वन्तर नाम के अनुसार ह्रास का काल था। भारतीय तथा आधुनिक युग चक्र के अनुसार प्रायः २०,००० ईपू में हिम युग था, जिसके कारण विप्लव तथा नाश हुआ होगा। इस युग का इतिहास भी अन्धकार में है। ९. रैवत या ब्रह्म सावर्णि (१९९८२-१६९४२ ईपू)- तामस मन्वन्तर में सभ्यता का ह्रास होने पर इस काल में उसका कश्यप काल में पुनः विकास हुआ। अतः उनको ब्रह्मा जैसा, या ब्रह्म सावर्णि कहा गया है। कश्यप इस युग के अन्तिम भाग (१७५०० ईपू) में हुए अतः वे सावर्णि मनु हुए। रैवत या उस नाम के मनु आरम्भ में होंगे। कश्यप काल में विश्व सभ्यता का पुनः वर्गीकरण हुआ। उनकी पत्नियों की सन्तानों द्वारा देव, असुर, राक्षस, दानव, गरुड़, सर्प आदि की सृष्टि कही जाती है। वस्तुतः वे विश्व के विभिन्न भागों की मनुष्य जातियां ही थीं। १०. चाक्षुष युग (१६९४२-१३९०२ ईपू)- दक्ष प्रजापति- इस युग की बहुत सी घटनायें वर्णित हैं-(१) दक्ष प्रजापति का यज्ञ, (२) हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद, विरोचन और बलि असुर सम्राट्, (३) नृसिंह, वामन, कूर्म अवतार, (४) चक्रवर्त्ती राजा पृथु के समय पृथ्वी का दोहन, (५) समुद्र मन्थन, (६) कार्त्तिकेय द्वारा क्रौञ्च विजय। ११. वैवस्वत मनु काल (१३९०२ ईपू) से वर्तमान सूर्य सिद्धान्त आधारित पञ्चाङ्ग चल रहा है। सूर्य सिद्धान्त में मय असुर ने सत्य युग से १२१ वर्ष पूर्व ९२२३ ईपू में संशोधन किया था क्योंकि उसके पूर्व वैवस्वत यम काल के जल प्रलय के कारण अशुद्धि आ गयी थी। सूर्य सिद्धान्त में वर्णित अग्स्त्य तारा की स्थिति, पृथ्वी कक्षा की च्युति, पृथ्वी अक्ष का झुकाव तथा दिन मान उसी काल के हैं। उसके बाद इक्ष्वाकु से सूर्य वंश तथा उसी शाखा के ऐल पुरुरवा से चन्द्र वंश का शासन आरम्भ हुआ जिनका पुराणों में विस्तार से वर्णन है।



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