श्री विशिष्ठानंद ( कौलाचारी ) -
तंत्र में जो श्रीचक्र भैरवीचक्र शिवलिंग डमरु कछुआ आदि के रूप में व्यक्त है समस्त ब्रह्मांड के लिए धन एवं ऋण पिरामिडो के समागम से ही सभी ऊर्जाएँ उत्पन्न होती हैं, शून्य से लेकर नौ तक के ऊर्जा उत्सर्जन बिंदु नाभिक से लेकर से नाभिक तक कैसे उत्पन्न होते है ? और यही भारतीय देवी देवता हैं और इनकी तरंगे इनकी शक्ति इन तरंगों एवं इन बिंदुओं के दाब से असंख्य बिंदु उत्पन्न होते जाते हैं।
पिरामिडो के मिलन से जो डमरु बनता है वह इनके समागम के कारण फैलता सिकुड़ता रहता है यह नाच भी रहा होता है इसके नाचने से वायु तत्व गैस निर्मित करने वाली ऊर्जा बनती है यहां जिस प्रकार की वायु बनती है उसे यही डमरु अपने पंपिंग के कारण घन ऊर्जा को अंदर खींचता है।
इस डमरु की धूरी जिस पर मुख्य उर्जा बिंदु बनते हैं सांप के शरीर जैसी आकृति में होती है क्योंकि यह ऊर्जा धाराओं से बनती है और चुंबकीय कवच बनाकर सुरक्षित हो जाती है डमरू के क्रिया करने से जो ऊर्जा की फुहार निकलती है और घूमते चांदनुमा गडढे पर मूल तत्व के बाद से जो फुहार बनती है यह दोनों मिलकर एक ऊर्जा फव्वारे का रूप में धारण कर लेते हैं।
और चुंबकीय क्षेत्र बनाकर कवच बना लेते हैं आपने फव्वारे से गिरती बूंदों को तो देखा होगा यह सांप के फण के समान होती है और क्रिया के जुड जाने के कारण इनसे अंदर ऊर्जा बाहर और बाहर की ऊर्जा जो वायु ऊर्जा होती है अंदर जाती है
एक फुफकार प्रारंभ हो जाती है इस केंद्रीय नली के ऋण बिंदु पर जो दाब पड़ता है वह मूली की जड़ की भांति नीचे निकलता है और छितराकर अनेक धाराओं में बंट जाता है यह शेषनाग की पूंछ है और इसी से यह धारणा बनी कि पृथ्वी शेषनाग के फण पर टिकी हुई है यह शब्द को भौतिक स्थल का के लिए प्रयुक्त करते थे उसे अपने पृथ्वी नामक ग्रह से जोड़ दिया है।
इस केंन्द्रीय शेषनाग के केंद्र में उत्पन्न होने वाला नाभिकी विष्णु शय्या है विष्णु प्रथम परमाणु है जो ब्रह्मांड के नाभिक के केंद्र में सूक्ष्म रूप से बैठा हुआ अपनी ही प्रतिलिपिओ की बौछार कर रहा है यह कण ही आत्मा है और कण कण में उर्जा परिपथ का सार है इसलिए इसे आत्मा या सार कहा गया है।
सबमें वास्तविक भोक्ता और कर्ता यही है इसलिए सनातन धर्मी कहते हैं कि वह विष्णु ही असंख्य रूपों से इस ब्रह्मांड को भोग रहा है इस प्रकार समस्त सृष्टि यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही पिरामिडीय उर्जा सूत्र में ढला हुआ है और क्रिया करता हुआ विस्तार कर रहा है।
प्राचीन काल में जहां भी इस प्रकार की संरचनाओं का निर्माण समाधि, कब्रगाह ,पूजस्थल मंदिर पिण्डियो शिवलिंग आदि के रूप में किया गया है वे निरर्थक नहीं है इसके पीछे एक विशाल और रहस्यमय ऊर्जा विज्ञान है यह सभी रिसीवर है शिवलिंग मंदिरों में एक रिसीवर का सबसे परिष्कृत वैज्ञानिक रूप में किया गया है।
यह रिसीवर ब्रह्मांडीय घन उर्जा के एक दुर्लभ स्वरूप को प्राप्त करने के लिए हैं।
यह देखने में निर्जीव निर्माण लगते हैं और इनका ऊर्जा चक्र हमारी अनुभूति में नहीं आता इन रिसीवर द्वारा पृथ्वी की ऊर्जा को उसी प्रकार केंद्र भूत करते हैं जिस प्रकार लेंस भी निर्जीव होता है पर यह प्रकाश के संदर्भ में एक यंत्र का काम करने लगता है पिरामिड भी एक सूत्र का निर्वहन करते हैं
यह सृष्टि की उत्पत्ति का सूत्र है प्राचीन काल में विश्वभर में भारत के विज्ञान का प्रसार प्रचार था इसलिए विश्व की सभ्यताओं में यह सूत्र दिखाई पड़ता है चीन में इस सूत्र को नकारात्मक एवं सकारात्मक ऊर्जा के सहयोग से नाभिकीय ऊर्जा की उत्पत्ति का गया है जापान में भी यह पिरामिडीय सुत्रों में अभिव्यक्त है।
उसका प्राचीन विज्ञान यही सूत्र बताता है मिस्र के पिरामिड आपके सामने हैं दुनिया भर के पूजा गृह इसके परिमाण हैं वाम मार्ग में इसे भैरवीचक्र कहा जाता है और शाक्तमार्ग में यह श्रीचक्र है और यह सभी भारतीय तत्व विज्ञान की देन है यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि इतने विशाल ऊर्जा विज्ञान के रहते हुए भी हम तकनीकियों के लिए दुनिया भर में भीख मांगते रहते हैं ।
यही परिणाम हमारा है हमारे ऋषि त्रिकालदर्शी थे उन्होंने सब बता रखा था
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