पिता के गर्भ से उत्पन्न ऋषि

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्रीमती चेतना त्यागी (सलाहकार सम्पादक)-  आज के आधुनिक युग में हम नए नए अविष्कार कर रहे हैं। विगत कुछ वर्षों से ये बात सिद्ध हो चुकी है कि ऐसी कई/अधिकतर चीजें जो आज हम बना रहें हैं,उसका वर्णन हमारे धर्म ग्रंथों में पहले ही दे दिया गया था।ये इस बात को सिद्ध करता है कि सनातन हिन्दू धर्म ना केवल अति-प्राचीन हैअपितु बहुत वैज्ञानिक भी।आज हम जो सेरोगेसी की बात करते हैं वो सदियों पहले महाभारत में वर्णित था।उसी प्रकार आज के वैज्ञानिक इस बात पर भी शोध कर रहे हैं कि क्या पुरुष कृत्रिम रूप से गर्भ धारण कर सकते हैं? हम सबने श्रीराम के वंश के बारे में पढ़ा है।ब्रह्मा जी से १९वीं पीढ़ी में एक राजा हुए महाराज युवनाश्व।महाराज युवनाश्व अपने आप में अनोखे हैं क्योंकि उन्होंने पुरुष होते हुए भी गर्भ धारण किया था।इस कथा का वर्णन हमें नारद पुराण में मिलता है।युवनाश्व की पत्नी का नाम गौरी था। विवाह के बहुत वर्षों के बाद भी दोनों निःसंतान रहे।संतान प्राप्ति के लिए महाराज युवनाश्व ने वन जाकर तप करने का निश्चय किया। उन्होंने राज-पाठ मंत्रियों के हाथ सौंपा और वन जाकर तपस्या करने लगे। उसी दौरान उनकी भेंट महर्षि भृगु के पुत्र च्यवन ऋषि से हुई। जब महर्षि च्यवन ने महाराज युवनाश्व की समस्या सुनी तो उन्होंने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि यज्ञ के प्रभाव से उन्हें संतान प्राप्त हो सकती है।तब महाराज युवनाश्व ने उनसे ही उस यज्ञ को संपन्न करने का अनुरोध किया।महर्षि की स्वीकृति के बाद महाराज युवनाश्व ने अपने मंत्रियों और सेना को वहां बुलाया और च्यवन ऋषि के निर्देशानुसार एक महान “इष्टि यज्ञ” का आयोजन किया। वो यज्ञ १ वर्ष तक अविलम्ब चलता रहा और यज्ञ समाप्ति पर महर्षि च्यवन ने एक मटके में अभिमंत्रित जल रख दिया जिसे पीकर महारानी गौरी गर्भ धारण कर सके।यज्ञ समाप्त होने के बाद सभी लोग थकान से पीड़ित होकर गहरी निद्रा में सो गए। रात्रि को महाराज युवनाश्व को अत्यधिक प्यास लगी और वे अपने सेवकों को पुकारने लगे।किन्तु अत्यधिक गहन निद्रा में होने के कारण किसी ने उनकी पुकार ना सुनी।विवश होकर राजा युवनाश्व स्वयं जल ढूंढने निकले। बहुत ढूंढने के बाद भी उन्हें जल नहीं मिला किन्तु तभी यज्ञभूमि के पास उन्हें एक मटके में रखा जल दिखा।वे नहीं जानते थे कि वो जल अभिमंत्रित है जिसे उनकी पत्नी को पीना है और इसी अज्ञानता में उन्होंने उस अभिमंत्रित जल को पी लिया।जल पीते ही उनके शरीर में बदलाव आरम्भ हुआ और वे अस्वस्थ हो गए।जब महर्षि च्यवन ने ये देखा तो उन्होंने कहा कि अब उनके ही गर्भ से संतान की उत्पत्ति होगी।महाराज युवनाश्व ने उनसे बड़ी प्रार्थना की कि वे उसका कोई उपाय बताएं किन्तु वे भी विवश थे क्यूंकि वो जल यज्ञ संपन्न कर अभिमंत्रित किया गया था और उसके फल को अब रोका नहीं जा सकता था। जब संतान के जन्म लेने का सही समय आया तो राजा बहुत घबरा गए। महर्षि च्यवन के लिए भी ये असाधारण  स्थिति थी। तब उन्होंने देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों का आह्वान किया। तब अश्विनीकुमारों ने महाराज युवनाश्व के कोख को चीर कर एक बालक को बाहर निकाला। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि किसी पुरुष ने संतान उत्पन्न किया हो इसी लिए इस अद्भुत घटना के साक्षी बनने हेतु देवराज इंद्र सहित सभी देवता वहॉं उपस्थित हुए। उस बालक के जन्म के साथ एक समस्या ये उत्पन्न हुई कि अब उसे दुग्धपान कौन करवाएगा? तब देवराज इंद्र स्वयं वहाँ आये और उन्होंने उस बालक के मुँह में अपनी तर्जनी अंगुली डाली जिससे दिव्य दूध निकल रहा था। उस दिव्य दुग्ध से तृप्त होकर वो बालक १३ अंगुल बढ़ गया और संतुष्ट होकर सो गया। तब इंद्र ने कहा – “मम धाता”, अर्थात मैं ही इसकी माँ हूँ। इसी कारण उस बालक का नाम “मान्धाता” पड़ा। देवराज इंद्र ने उसे ये वरदान दिया कि वो चक्रवर्ती राजा बनेगा जिसका यश दिग-दिगन्तर तक फैलेगा। देवराज इंद्र का वरदान फलीभूत हुआ और मान्धाता संसार के सबसे महान सम्राटों में एक बने। मान्धाता की राजधानी उस समय अयोध्या थी।मान्धाता भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे।उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर खण्डवा के पास एक पहाड़ी पर शिवलिंग की स्थापना कर तपस्था की और नदी का रुख इस तरीके से घुमाया कि वहां ॐ बन गया जो कि आज ओमकारेश्वर ज्योतिलिंग के नाम से प्रसिद्ध है और वह स्थान मान्धाता पहाड़ी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।बाद में मान्धाता अपनी राजधानी यहीं ले गये।यादव नरेश शशबिंदु की कन्या बिंदुमती इनकी पत्नी थीं, जिनसे मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र हुए।



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