पितर स्वरूप महात्म्य

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  • 31 October 2024
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श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )- Mystic Power- वेद खण्डन करने वाले पितर का अर्थ केवल जीवित माता-पिता करते हैं। यदि उनका वेद में कुछ भी विश्वास है तो वेद वर्णित पितरों में जीवित माता-पिता का सन्दर्भ खोजें। (१) देव-असुर निर्माता- तेन असुना असुरान् असृजत, तद् असुराणां असुरत्वम्। सो असुरान् सृष्ट्वा पितेव अमन्यत, तदनु पितॄन् असृजत, तत् पितृणां पितृत्वम् (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/३/८/२)- प्रजापति ने असु (प्राण, ऊर्जा) से असुर बनाये, असु से उत्पन्न होने से वे असुर हैं। उनके निर्माण के लिए पितर बनाये, वे असुरों को उत्पन्न करने के कारण पितर हुए। इसके बाद पितरों से मन तत्त्व द्वारा मनुष्य, दिवा या क्रियात्मक तेज से देव बनाये। देव, असुर, मनुष्य, पितर-ये ४ अम्भ हैं। अप् आकाश में जल जैसा फैला विरल पदार्थ है, उसमें तरंग या शब्द होने से वह अम्भ होता है, जिससे निर्माण होता है। ये ७ ऋषियों द्वारा हुए। यही वर्णन मनुस्मृति में है- ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः। देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१) ऋषि से पितर हुए, पितरों से देव-दानव, देवों से जगत् हुआ। (दानव या असुर क्रियात्मक नहीं हैं, उसने कुछ नहीं हुआ)। (२) अग्निमुख-अग्निमुखा एव तत् पितृलोकात् जीवलोकं अभ्यायन्ति (शतपथ ब्राह्मण, १३/८/६) अग्निर्वै पथो अति वोढा, स एनान् अतिवहति। (शतपथ ब्राह्मण, ३/८/४/६) पितर सौम्य प्राण है, उनका वहन अग्नि-प्राण करता है। सोम = बिखरा हुआ पदार्थ, अग्नि = सीमा बद्ध पदार्थ या ऊर्जा। पितृलोक से अग्नि या पिण्ड माध्यम से पितर जीव लोक आते हैं। आकाश के ५ अग्नि विश्व के ५ पर्व हैं-पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः (कठोपनिषद्, ३/१/१)। पृथ्वी पर पञ्चाग्नि विद्या (छान्दोग्य उपनिषद्, ५/४-९) के अनुसार अग्नि ५ भागों में विभक्त होता है-आदित्य, पर्जन्य, पार्थिव, पुरुष, योषित्। इनसे ५ प्रकार के सोम का वहन होता है-श्रद्धा, सोम, वृष्टि, अन्न, रेत। (३) दक्षिण दिशा-दक्षिणा संस्थो वै पितृयज्ञः (कौषीतकि ब्राह्मण, ५/९/१४, गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, १/२५ ) दक्षिण दिशा में पितरों का स्थान है। पृथ्वी पर मकर रेखा के दक्षिण का भाग पितृयान कहते हैं। कर्क रेखा के उत्तर देवयान है। गीता (८/२४-२७) के अनुसार दक्षिण गति से चान्द्र ज्योति (सोम) द्वारा गमन करने पर पुनरागमन होता है। उत्तर दिशा में जाने पर अग्नि ज्योति से ब्रह्म तक पहुंचता है, पृथ्वी पर नहीं लौटता। भागवत पुराण (७/१५/५०-५६), बृहदारण्यक उपनिषद् (६/२/१६), छान्दोग्य उपनिषद् (५/१०/१-२) भी। स यत्रोदगावर्तते- देवेषु तर्हि भवति देवांस्तर्हि अभिगोपायति। अथ यत्र दक्षिणावर्तते पितृषु तर्हि भवति पितॄंस्तर्ह्यभिगोपायति॥ (शतपथ ब्राह्मण, २/१/३/३) उत्तरं यदगस्त्यस्य अजवीथ्याश्च दक्षिणम्। पितृयानः स वै पन्था वैश्वानर पथाद् बहिः॥८७॥ नागवीथ्युत्तरं यच्च सप्तर्षिभ्यश्च दक्षिणम्। उत्तरः सवितुः पन्था देवयानश्च स स्मृतः॥९२॥ (विष्णु पुराण, अध्याय २/८), वायु पुराण (५०/२०९-२२३) भी। (४) पितृ लोक-अन्तर्हितो हि पितृलोको मनुष्यलोकात् (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/८/६) अध इव हि पितृलोकः (शतपथ ब्राह्मण, १६/६/१/१०) तृतीये हि लोके पितरः (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ९/८/५, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/३/१०/५, १/६/८/७) अन्तरिक्षं तृतीय पितॄन् यज्ञो अगात्। (ऐतरेय ब्राह्मण, ७/५) पितृलोकः सोमः (२४) देव लोकम् एव तत् पितृ लोकाद् अभ्युत्क्रामन्ति (२५) (कौषीतकि ब्राह्मण, १६/५) पितृलोको यमः (कौषीतकि ब्राह्मण, १६/८/२७) ओषधिलोको वै पितरः (शतपथ ब्राह्मण, १३/८/१/२०) इन सभी का समन्वित अर्थ है कि पृथ्वी की दक्षिण दिशा या नक्शा में नीचे जाने से पितृ लोक जाते हैं। पहले चन्द्र पर पहुंचते हैं, जो ओषधीश है। चन्द्र में उनको अन्न मिलता है। उसके बाद किरण से इन्द्र (तेज रूप) देव लोक में आगे बढ़ते हैं। सूर्य से दूर की तरफ ऊपर हुआ,इसे उत्-क्रमण कहा है। किरण के दबाव से ऊपर जाते हैं। किरण को गो कहते हैं। अतः गरुड़ पुराण में इसे गाय की पूंछ कहा है। सूर्य से दूर जाते हुए शनि तक पहुंचते हैं जिसका प्रकाशित भाग धर्म है। उसका सूर्य से दूर भाग या यूरेनस यम लोक है। अतः पितरों के ३ लोक हुए-प्रथम चन्द्र, द्वितीय सौर मण्डल में यात्रा पथ इन्द्र, तीसरा शनि का अन्धकार भाग। यह अन्तरिक्ष का तृतीय खण्ड पितर लोक हुआ। (५) अदृश्य तत्त्व-तिर इव वै पितरो मनुष्येभ्यः (शतपथ ब्राह्मण, २/४/२/२१)-तिरः का अर्थ है छिपा हुआ। इसे तिर्यक् योनि भी कहा है। मनुष्य या पशु अधः, देव ऊर्ध्व, बीच में पितर तिर्यक् है। अष्ट विकल्पो देवः तैर्यग् योनश्च पञ्चधा भवति। मानुष्यश्चैकविधः समासतो भौतिक सर्गः। (सांख्य कारिका, ५३) तिर्यक् अर्थ में ही पितर को अवान्तर दिशा कहा गया है-अवान्तर दिशो वै पितरः (शतपथ ब्राह्मण, १/८/१/४०) मनुष्य तथा वृक्षों के बीच चेतना वाले पशु को भी तिर्यक् कहा है। (६) रात्रि-रात्रि की शान्त स्थिति में ही निर्माण होता है। अतः रात्रि को पितर कहा है। रात्रिः पितरः (शतपथ ब्राह्मण, २/१/३/१) मनुष्य दिन में परिश्रम करता है, रात्रि के विश्राम में शरीर के क्षय की पूर्ति होती है। विश्व का, मनुष्य का तथा पितरों का निर्माण-ये सभी १० रात्रियों में हुए हैं। अथ यद्दशरात्रमुपयन्ति। विश्वानेव देवान् देवतां यजन्ते (शतपथ ब्राह्मण, १२/१/३/१७) प्रतिष्ठा दशमं अहः (कौषीतकि ब्राह्मण, २७/२, २९/५) सृष्टि के १० सर्ग हैं-१ अव्यक्त से ९ व्यक्त होते हैं। अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञके॥ (गीता, ८/१८) १० सर्गों की उत्पत्ति भागवत पुराण स्कन्ध ३, अध्याय १०, विष्णु पुराण अध्याय (१/५) आदि में है। इनके दिन समान नहीं हैं। हर दिन का मान भिन्न है, जिसके कारण ९ प्रकार के काल मान हैं- ब्राह्मं पित्र्यं तथा दिव्यं प्राजापत्यं च गौरवम् । सौरं सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव ॥ (सूर्य सिद्धान्त १४/१) मनुष्य का शरीर पार्थिव है। वह १० चन्द्र परिक्रमा (२७३ दिन) में गर्भ में बनता है। पितर शरीर चान्द्र लोक का है, वह पृथ्वी की १० परिक्रमा में बनता है, जिसे दशगात्र कहते हैं। (७) संवत्सर, ऋतु-प्राकृतिक कालचक्रों दिन, मास, वर्ष में निर्माण या यज्ञ होता है। संवत्सर चक्र में कृषि होती है, ऋतु के अनुसार अलग अलग प्रकार की। अतः संवत्सर तथा ऋतु को भी पितर कहा गया है। संवत्सरो वै सोमः पितृमान्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/८/२, १/६/९/५) ऋतवः पितरः (कौषीतकि ब्राह्मण, ५/७, शतपथ ब्राह्मण, २/४/२/२४, २/६/१/४, गोपथ ब्राह्मण उत्तर, १/२४, ६/१५) शरद्-हेमन्तः शिशिरस्ते पितरः (शतपथ ब्राह्मण, २/१/३/१) अन्य निर्माण के लिये बाकी सभी ऋतु भी पितर हैं- षड् वा ऋतवः पितरः (शतपथ ब्राह्मण, ९/४/३/८) (८) देव पितर तृप्ति-शरद् ऋतु हवि है, इसके ३ भाग शरद् हेमन्त, शिशिर की हवि से संवत्सर चक्र में निर्माण होता है। शरद्-हेमन्तः शिशिरस्ते पितरः (शतपथ ब्राह्मण, २/१/३/१) देवता-पितर को हवि से तृप्त करने पर वे भी मनुष्यों को तृप्त करते हैं। देवान् वै पितॄन् प्रीतान् मनुष्याः पितरो अनु प्रपिपते॥४॥ ऋतवः खलु वै देवाः पितरः। ऋतूनेव देवान् पितॄन् प्रीणाति। तान् प्रीतान्, मनुष्याः पितरो अनु प्रपिपते॥५॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/३/१०/४-५) भूम्यां देवेभ्यो ददति यज्ञं हव्यमरंकृतम्। भूम्यां मनुष्या जीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्याः॥ (अथर्व, १२/१/२२) (९) लज्जा-ह्लीका (ह्रीका) हि पितरः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/३/१०/६)-यह देवता-पितर को हवि देने के प्रसंग में उसके बाद है। पितर या देव स्वयं हवि नहीं मांगते, बिना मांगे देना पड़ता है। दे कर ३ बार प्रार्थना करनी पड़ती है कि ग्रहण करें। वे स्थूल भाग नहीं लेते हैं। (प्राश्या न प्राश्यामिति, यन्न प्राश्नीयात्, अहविः स्यात्) (१०) देव पितर-देव प्राण से ही सृष्टि होती है, असुर प्राण से नहीं। अतः देव भी पितर हैं। देवा वा एते पितरः (कौषीतकि ब्राह्मण, ५/६, गोपथ ब्राह्मण उत्तर, १/२५) (११) गोदान- ऋक् (१/१५४) सूक्त में विष्णु का परम पद मध्व का उत्स या स्रोत कहा है, जो यव के मद जैसा है। विष्णु के ३ पद सौर मण्डल के क्षेत्र हैं, जो ताप, तेज (सौर वायु) तथा प्रकाश क्षेत्र हैं (अग्नि-वायु-रवि)। परम पद ब्रह्माण्ड है जहां तक सूर्य दीखता है (सूर्य सिद्धान्त, १२/८२)। उसके खाली भाग में मद्य है यह १९८० में पता चला- (1) F H C Crick, Simon & Schuster, New York, 1982. (2) Evolution From Space-F Hoyle and Chandra Wickramasinghe. (3) Intelligent Universe-F. Hoyle, Michael Joseph, London 1983. यह सूर्य किरण रूपी गौ का बचे भाग से उत्पन्न है, अतः इसे भूरि-शृङ्ग (भूरि = अतिरिक्त या बचा हुआ) कहा है। तदस्य प्रियमसि पाथो अश्यां नरो यत्र देव यवो मदन्ति। उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः॥५॥ ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि॥६॥ तेज प्रकाश श्वेत गौ है, थोड़ा कम होने पर लाल या पीला होता है, जिसे रोहिणी (लाल), बभ्रू (भूरी) या पिङ्गाक्षी कहते हैं। ३ प्रकार के पितरों के लिए ३ प्रकार की गौ देते हैं। सा या बभ्रूः पिङ्गाक्षी (गौः)। सा सोमक्रयण्यथ या रोहिणी सा वार्त्रघ्नी यामिदं राजा संग्रामं जित्वोदाकुरुते ऽथ या रोहिणी श्येताक्षी सा पितृदेवत्या यामिदं पितृभ्यो घ्नन्ति। (शतपथ ब्राह्मण ३/३/१/१४) गौ के ५ उत्पाद (पञ्चगव्य) दिया जाता है या ५ प्रकार का गोदान होता है। गो के जीवित वत्स वृषभ का भी दान होता है (वृषोत्सर्ग) जिससे गोवंश की वृद्धि हो। (१२) पितृ सवन-३ प्रकार के पितर हैं-७ पीढ़ी से पूर्व के पितर मृत्यु शोक या बन्धन भूल चुके हैं, अतः उनको नान्दीमुख कहते हैं। ४-७ पीढ़ी तक के पितर बीच के पार्वण पितर हैं। तृतीय पीढ़ी तक के पूर्वज अभी तक परिवार से बन्धे हैं इसलिए अश्रुमुख है। इनके लिए प्रातः, माध्यन्दिन तथा तृतीय सवन होता है। ऊमा वै पितरः प्रातः सवने, ऊर्वा माध्यन्दिने, काव्यास्तृतीय सवने। (ऐतरेय ब्राह्मण, ७/५/३४) ऊमैः पितृभिः भक्षितस्योपहूतस्योपहूतो भक्षयामि (आर्षेय ब्राह्मण, ७/३४/१, शा श्रौत सूत्र, ७/५/२२, वैतान सूत्र, २०/७) तैत्तिरीय संहिता, ४/४/७/२, ५/३/११/३) के सायण भाष्य में ऊमा का अर्थ ऋतु विशेष किया है। ऊर्ज्ज-मास का संक्षेप ऊमा हो सकता है। ऊमा पितरों के लिए हवि का ऋग्वेद में भी उल्लेख है- ऊमा आसन् दृशि त्विषे (ऋक्, ५/५२/१२) ऊमा वा ये सुहवासो यजत्राः (ऋक्, ३/६/८) मुख्यतः तृतीय सवन ही पितरों के लिए है, अतः श्राद्ध कर्म अपराह्ण में होता है। तस्मै (चन्द्रमसे) पूर्वाह्णो देवा अशनमभिहरन्ति मध्यन्दिने मनुष्याः अपराह्णे पितरः। (शतपथ ब्राह्मण, १/६/३/१२) (उस) चन्द्रमा) के लिए पूर्वाह्ण में देवता भोजन इकट्ठा करते हैं, मध्यन्दिन में मनुष्य एवं अपराह्ण में पितर (अन्न संभरण करते हैं)। रात्रिः पितरः (शतपथ ब्राह्मण, २/१/३/१) (१३) मास के पितर -चान्द्रमास पितरों का दिन होता है। वे चन्द्र के दूर भाग में हैं, अतः जब वहां प्रकाश हो तब पितरों का दिन होता है और पृथ्वी के लिए कृष्ण पक्ष। यः (अर्धमासः) अपक्षीयते स पितरः (शतपथ ब्राह्मण, २/१/३/१) अपक्षयभाजो वै पितरः (कौषीतकि ब्राह्मण, ५/६) अग्नि की ऊर्ध्व तथा सोम की निम्न गति होती है। सोम रूप पितर नीचे अग्नि से आकृष्ट हो कर क्षय होता है। (१४) कूप खात-पितृदेवत्यो वै कूपखातः (शतपथ ब्राह्मण, ३/६/१/१३, ३/७/१/६) सोम तत्त्व होने से कम प्रकाश के पितर होते हैं, जैसे कूप या गड्ढे में कम प्रकाश रहता है। देव प्रकाश रूप है, असुर अन्धकार, बीच में पितर हैं। अतः पितृ कर्म में पात्र का मुंह नीचे करते हैं। (१५) पितर से प्रजा- एतद्ध वै पितरो मनुष्यलोका आभक्ता भवन्ति, यदेषां प्रजा भवति। (शतपथ ब्राह्मण, १३/८/१/६) इस प्रकार से पितर मनुष्य लोक में संयुक्त होते है, जो इनकी प्रजा होती है। अथ यदेव प्रजामिच्छेत्-तेन पितृभ्य ऋणं जायते। तद्ध्येभ्य एतत् करोति, यदेषां सन्तताव्यवच्छिन्ना प्रजा भवति। (शतपथ ब्राह्मण, १/७/१/४) जो मनुष्य प्रजा (सन्तान) की इच्छा करे, इससे पितरों के लिए ऋण हो जाता है। वही (ऋण परिशोध) यह इनके लिए करता है, जिससे इनकी प्रजा सन्तत अव्यवच्छिन्न होती है। (पितृ ऋण बाकी रहने पर सन्तान नहीं होती)। अथ यदध्वर्युः पितृभ्यो निपृणाति, जीवानेव तत् पितॄननु मनुष्याः पितृभ्यो घ्नन्ति। (गोपथ ब्राह्मण उत्तर, १/२५) (१६) मन- मनः पितरः प्राणो मनुष्याः। (बृहदारण्यक उपनिषद्, १/५/६, शतपथ ब्राह्मण, १४/४/३/१३) मन के संकल्प से ही सृष्टि होती है। जब कुछ नहीं था तो शून्य में स्थित (श्वोवसीयस) मन की इक्षा से सृष्टि का आरम्भ हुआ। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति (ऐतरेय उपनिषद्, १/१) ईक्षतेर्नाशब्दम् (ब्रह्मसूत्र, १/१/५) विश्व के सभी ५ पर्वों में ३-३ मनोता (क्रियात्मक मन) हैं जिनसे सृष्टि हो रही है। तिस्रो वै देवानां मनोताः, तासु हि तेषां मनांसि ओतानि। वाग् वै देवानां मनोता, तस्यां हि तेषां मनांसि ओतानि। गौः हि देवानां मनोता, तस्यां हि तेषां मनांसि ओतानि। अग्निः वै देवानां मनोता, तस्मिन् हि तेषां मनांसि ओतानि। अग्निः सर्वा मनोता, अग्नौ मनोताः संगच्छन्ते। (ऐतरेय ब्राह्मण २/१०) (१७) मृत पितर-निधनं पितृभ्यः (प्रायच्छत्), तस्मादु ते निधन-संस्थाः (जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, १/१२/२) यानेवैषां तस्मिन् संग्रामे अघ्नन् तान् पितृयज्ञेन समैरयब्त, पितरो वै त आसन्। तस्मात् पितृयज्ञो नाम। (शतपथ ब्राह्मण, २/६/१/१) जो उस संग्राम में मारे गये, उनको पितृ यज्ञ से पुनः संगत किया। वे मृत व्यक्ति पितर थे, अतः इसे पितृ यज्ञ कहते हैं। (१८) यम प्रजा- १० प्रकार की राजा-प्रजा, वेद तथा उनके दिन-क्रम का वर्णन है। यहां केवल यम प्रजापति का उद्धरण दिया जाता है- यमो वैवस्वतो राजेत्याह तस्य पितरो विशाः। त इम आसत इति स्थविरा उपसमेता भवन्ति, तानुपदिशति। यजूंषि वेद सो अयमिति॥ (शतपथ ब्राह्मण, १३/४/३/६) यम के कई स्तर हैं। प्रथम स्तर में तेज या निर्माण का स्रोत सूर्य था, निर्माण की पूर्णता या परिणति यम था। उनके बीच रस्सी जैसा सम्बन्ध पूषा था जो एकमात्र ऋषि था। इसका ३ में विभाजन नहीं हुआ था, अतः इसे अत्रि भी कहते हैं। पूषन् एकर्षे यम-सूर्य प्राजापत्य व्यूहरश्मीन् समूह (ईशावास्य उपनिषद्, १६, वाज.यजु, ४०/१६) मनुष्य रूप में वैवस्वत यम यमन के राजा थे जो वैवस्वत मनु की परम्परा में अन्तिम राजा थे, अतः इनको छोटा भाई कहा गया है। वहीं मृतक सागर भी है। कठोपनिषद् के अनुसार इन्होंने नचिकेता को मृतक गति के बारे में बताया था। अतः मनुष्य रूप में भी पितरों के राजा हैं। (१९) मघा नक्षत्र- पितॄणां मघाः (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/१/२) सूर्य जब मघा नक्षत्र में आता है तब आश्विन कृष्ण पक्ष में पितर लोगों को पिण्ड दिया जाता है। इसे पितृ पक्ष कहते हैं। इसके पूर्व आश्लेषा नक्षत्र ब्रह्माण्ड के सर्पाकार भुजा को छूता है जिसे वेद में अहिर्बुध्न्य (जल का सर्प) या पुराण में शेषनाग कहा है। अतः आश्लेषा के देव सर्प हैं। मघा नक्षत्र इस भुजा के भीतर है जिसमें सौर मण्डल उत्पन्न हुआ है। अतः इसके देव पितर हैं। इसके ९ नक्षत्र बाद मूल नक्षत्र ब्रह्माण्ड के केन्द्र में है अतः इसे मूल-बर्हणि कहते हैं। मघा से ९ नक्षत्र पूर्व राशिचक्र आरम्भ होता है, बीच में होने से भी यह पितर नक्षत्र है। मघा को वेद में अघा भी कहा गया है जिसमें गोदान किया जाता है- अघासु हन्यते गावः अर्जुन्योः पर्युह्यते (ऋक्, १०/८५/१३) अर्जुन का अर्थ फाल्गुनी नक्षत्र है। इसके पूर्व-उत्तर २ भाग हैं, अतः द्विवचन प्रयोग है। (२०) मासिक श्राद्ध-मासि मासि पितृभ्यः क्रियते (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/४/९/१) अथैनं पितरः प्राचीनवीतिनः सव्यं जान्वाच्योपसीदन्। तानब्रवीत्-मासि मासि वो अशनम्, स्वधावः, मनोजवो वः, चन्द्रमा वो ज्योतिः। (शतपथ ब्राह्मण, २/१/३/३१) इसके बाद प्राचीनवीती (उलटा यज्ञोपवीत) बन कर अपने वाम जंघा को गिरा कर उस तरफ बैठें। इन पितरों को उसने (प्रजापति ने) कहा-हर मास में तुम्हारा भोजन होगा। स्वधा तुम्हारा स्वरूप, मनोजव व्यापार, चन्द्रमा ज्योति होगी। वेद मन्त्र भाग में पितर- (१) उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नो‍ऽवन्तु पितरो हवेषु॥ (ऋक्, १०/१५/१, अथर्व, १८/१/४४, वाज. यजु. १९/४९, तैत्तिरीय सं. २/६/१२/३, मैत्रायणी सं. ४/१०/६) इस लोक में स्थित, परलोक में स्थित, और मध्यम लोक के सोमपायी पितृगण ऊपर के लोक को प्राप्त हों। जो पितृगण प्राण रूप को प्राप्त हैं, वे शत्रुरहित होने से निरपेक्ष रूप के ज्ञाता स्वाध्यायनिष्ठ पितृगण बुलाने पर हमारी रक्षा के लिए तुरन्त आ जायें। (२) त इद्देवानां सधमाद आसनृतावानः कवयः पूर्व्यासः। गूळहं ज्योतिः पितरो अन्वविन्दन्त्सत्यमन्त्रा अजयन्नुषासम्॥ (ऋक्, ७/७६/४) ऋत (सरल) मार्ग के अनुयायी, भृगुवंशी पूर्व काल के अङ्गिरा नाम के पितर ही देवों से प्रेम करने में समर्थ हुए। गुहा निहित ज्योति (सूर्य) को इन्होंने प्रकट किया (कठोपनिषद्, ३/१/१ में ब्रह्माण्ड को परम गुहा कहा है)। सत्य ब्रह्म के उपासक, या सत्य मन्त्र (ब्रह्म) मूर्ति इन पितरों ने ही उषा को उत्पन्न किया (पितर अन्धकार प्रकाश की सीमा पर हैं जो उषा है)। (३) सरस्वति या सरथं ययाथ स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती। आसद्यास्मिन् बर्हिषि मादयस्वानमीवा इष आ धेह्यस्मै॥ (ऋक्, १०/१७/८) मण्डल १० के १४ से १९ सूक्तों के ६० मन्त्रों के ऋषि वैवस्वत यम तथा उनके वंशज यामायन उपाधि के हैं। पितरों के साथ रथ पर आरूढ़ होती हुई, स्वधा रूपी अन्न से मोदमान होती हुई हे सरस्वति देवि! इस यज्ञ में सम्मिलित हो कर आप प्रसन्न मूर्ति बनिए, हमें एवं हमारे अन्नों को निर्दोष कीजिए। ऋक् (१५४/५-६) के अनुसार विष्णु के परम पद ब्रह्माण्ड में मद्य भरा हुआ है। इसका क्षेत्र सरस्वती है- मनो वै सरस्वान् (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/१/३१, ११/२/४/९) स्वर्गो लोकः सरस्वान् (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १६/५/१५) (४) प्रजापतिर्मह्यमेता रराणो विश्वैर्देवैः पितृभिः संविदानः। शिवाः सतीरुप नो गोष्ठमाकस्तासां वयं प्रजया सं मदेम॥ (ऋक्, १०/१६९/४) विश्वेदेव नामक देवता (परमेष्ठी या ब्रह्माण्ड के) पितरों के साथ युक्त हो कर प्रजापति मेरे लिए गो सम्पत्ति देते हैं। वे प्रजापति कल्याणदायिनी गौ को हमारे गो-स्थान के निकट करें, एवं उनकी सन्तानों से प्रसन्न हों। वाज. यजु. (१/२५) में भी है-व्रजं गच्छ गोष्ठानम्। ब्रह्माण्ड का आधार गोलोक है, वही पितर भी उत्पन्न होते हैं जिनसे तारा उत्पन्न हुए। पृथ्वी पर भी जहां भगवान् कृष्ण गो चराते थे, वह ब्रज है। भौतिक रूप में विश्वनाथ शिव ने सती से विवाह किया तथा गो रूपी वाक् का ज्ञान दिया। आध्यात्मिक रूप से आज्ञा चक्र के ऊपर त्रिकूट पर शिव-पार्वती की वार्ता से ज्ञान होता है। (५) अतिद्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा। अथा पितॄन् सुविदत्राँ उपेहि यमेन ये सधमादं मदन्ति॥१०॥ (६) यौ ते श्वानौ यमरक्षितारौ चतुरक्षौ पथिरक्षी नृचक्षसौ। ताभ्यामेनं परि देहि राजन् स्वस्ति चास्मा अनमीवञ्च धेहि॥११॥ (ऋक्, १०/१४/१०-११, अथर्व, १८/२/११-१२) हे प्रेत पितर! आप ४ आंखों वाले, श्वाव-शबल (चितकबरे) सारमेय नाम से प्रसिद्ध दोनों कुत्तों से बच कर जाइये। तुम्हें उत्तम पितृलोक मिले जहां के पितर यम के साथ आनन्दित होते हैं। सरमायाः सुतौ जातौ शूरौ परमदुःसहौ। श्यामश्च शबलश्चैव यमस्यानुचरौ स्मृतौ॥ (ब्रह्माण्ड पुराण, ३/७/३१२) द्वौ श्वानौ श्यावशबलौ वैवस्वत कुलोद्भवौ। ताभ्यामन्नं प्रयच्छामि स्यातावेत्तावहिंसकौ॥ (श्वान बलि देने का मन्त्र) (७) यो यज्ञो विश्वतन्तुभिस्तत एकशतं देवकर्म्मेभिरायतः। इमे वयन्ति पितरो य आययुः प्र वयाप वयेत्यासते तते॥ (ऋक्, १०/१३०/१) जो यज्ञ चारों ओर से तन्तुओं में फैला हुआ है, १०० देव कर्म से जो वितत हो रहा है, उस वितान यज्ञ को पितर लोग चुनते हैं। वे पितर प्राण रूप हैं और कहते हैं कि आगे आगे बुनते आओ, पीछे का ठीक करते हुए। यहां १०० देवकर्म का अर्थ १०० वर्ष की आयु है, प्रति वर्ष की पूर्ति एक यज्ञ है (संवत्सरो यज्ञः-शतपथ ब्राह्मण, ११/१/१/१ आदि)। कठोपनिषद् (२/३/१६) के अनुसार हृदय से १०१ नाड़ियां निकलती हैं, जिनमें १ मूर्धा की तरफ ऊपर जाती है (सुषुम्ना) जिससे जा कर मनुष्य ऊपर के लोकों में जा कर अमृत भाव पाता है। बाकी १०० नाड़ियां अन्य प्रकार की योनियों में उत्क्रमण कराती हैं।- शतं चैका हृदयस्य नाड्यः, तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका। तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति, विष्वङ्ङब्या उत्क्रमणे भवन्ति॥ बाकी १०० नाड़ियां आयु सूत्र हैं। अतः क्रिया या यज्ञरूप यजुर्वेद की १०१ शाखा हैं, उसके ब्राह्मण शतपथ में १०० अध्याय हैं। वर्तमान जन्म के संस्कारों का १०० जन्मों तक प्रभाव होता है। भीष्म पितामह को भी १०० जन्म तक ही स्मृति थी। जातक कथाओं में भी सिद्धार्थ बुद्ध के १०० जन्मों का वर्णन है। (८) पाकः पृच्छामि मनसा ऽविजानन् देवानामेना निहिता पदानि। वत्से बष्कये ऽधि सप्ततन्तून् वि तत्निरे कवय ओतवा उ॥ (ऋक्, १/१६४/५, अथर्व, ९/९/६) (९) महिम्न एषां पितरश्च नेशिरे देवा देवेष्वदधुरपि क्रतुम्। समविव्यचुरुत यान्यत्विषुरैषां तनूषु नि विविशुः पुनः॥ (ऋक्, १०/५६/४) (१०) सहोभिर्विश्वं परि चक्रमू रजः पूर्वा धामान्यमिता मिमानाः। तनूषु विश्वा भुवना नि येमिरे प्रासारयन्त पुरुध प्रजा अनु॥ (ऋक्, १०/५६/५) (११) द्विधा सूनवो ऽसुरं स्वर्विदमास्थापयन्त तृतीयेन कर्म्मणा॥ स्वां प्रजां पितरं पित्र्यं सह आवरेष्यदधुस्तन्तुमाततम्॥ (ऋक्, १०/५६/६) (१२) नावा न क्षोदः प्रदिशः पृथिव्याः स्वस्तिभिरति दुर्गाणि विश्वा। स्वां प्रजां बृहदुक्थो महित्त्वा ऽवरेष्वदधादा परेषु॥ (ऋक्, १०/५६/७) इन मन्त्रों के २ अर्थ हैं। आकाश में रस या सोम तत्त्व से ७ लोक बने, जो पिण्ड रूप अग्नि हैं। मनुष्य के गर्भ में रहने पर चान्द्र मण्डल के सोम से जो पितर प्राण आता है, वह ७ पीढ़ी तक जाता है। यह पूर्वजों के कोषिका रूप गुणों का प्रभाव है (DNA)। (१३) ये अग्निष्वात्ता ये अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते। तेभ्यः स्वरा ऽसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयन्ति। (वाज. यजु, १९/६) अग्नि से खाये हुए (अग्निष्वात्त), अग्नि से न खाये हुए (अनग्निष्वात्त) दोनों प्रकार के पितर हमारे दिए स्वधा अन्न से अन्तरिक्ष में आनन्दित हो रहे हैं। उन मोदमान पितरों के लिए दीप्तिमान अग्नि कामनानुसार नवीन शरीर (प्रेत शरीर) का निर्माण करते हैं। (१४) नमो वः पितरो रसाय, नमो वः पितरः शोषाय, नमो वः पितरो जीवाय, नमो वः पितरः स्वधायै, नमो वः पितरो घोराय, नमो वः पितरो मन्यवे, नमो वः पितरः, पितरो नमो वः, गृहान्न पितरो दत्त सतो वः पितरो देष्मै तद्वः पितरो वासः। (वाज. यजु, २/३२) रस-शोष, जीव, स्वधा, घोर, मन्यु लक्षण वाले प्रेत पितरों का उल्लेख है। (१५) ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिस्रुतम्। स्वधा स्थ तर्पयत मे पितृन्। (वाज. यजु, २/३४) बलप्रद ऊर्क् रस, अमृत नामक शिवतम सोमरस, घृत नामक आन्तरिक्ष्य रस आदि अनेक रसों को धारण करने वाले हे जल देवता! आप स्वधा बन कर मेरे पितरों को तृप्त करो। यह मृत पितरों के लिए जल तर्पण है। वेद भाषा में ये आकाश के विभिन्न भागों के जल हैं, जैसा मधु वाता ऋतायते (ऋक्, १/९०/६, वाज. यजु, १३/२७, तैत्तिरीय सं, ४/२/९/३, काण्व सं, ३९/३, बृहदारण्यक उप, ६/३/११) के सन्दर्भ में शतपथ ब्राह्मण (७/५/१/३-४) में कहा है। तमभ्यनक्ति। दध्ना मधुना घृतेन। दधि हैवास्य लोकस्य रूपं, घृतमन्तरिक्षस्य मध्वमुष्य-- (३) मधुवाता ऋतायत इति। यां वै देवतामृगभ्यनूक्ता यां यजुः सैव साऽक्षो देवता तद्यजुस्तद्धैतन्मध्वेवैष त्रिचो रसो वै मधु रसमेवास्मिन्नेतदधाति गायत्रीभिस्तिसृभिस्तस्योक्तो बन्धुः। (४)-शतपथ ब्राह्मण (७/५/१/३-४) अमृताह्यापः (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/७/६/३, गोपथ ब्राह्मण उत्तर, १/३) (१६) एतत् ते प्रततामह ये स्वधा ये च त्वामनु। (अथर्व, १८/४/७५) हे प्रततामह (प्रपितामह) आपके लिए दिया हुआ अन्न आपके लिए स्वधा बने, आपके अनुयायियों के लिए भी स्वधा बने। (१७) मैनमग्ने विदहो माभि शूशुचो मास्य त्वचं चिक्षिपो मा शरीरम्। शृतं यदा करसि जातवेदोऽथेमेनं प्रहिणुतात् पितृभ्यः॥ (अथर्व, १८/२/४) हे क्रव्याद अग्नि! आप इस प्रेत शरीर को कष्ट के साथ नज्लावें, इसे शोक सन्तप्त न करें, इसका चर्म बाहर न फेंकें, बल्कि शरीर को पूरा जला दें। हे जातवेदा अग्नि! जब शरीर जलने पर प्रेतात्मा परिपक्व हो जाय, तब इसे पूर्व पितरों से मिला दें। (१८) समिन्धते अमर्त्यं हव्यवाहं घृतप्रियम्। स वेद निहितान् पितृन् परावतो गतान्॥ (अथर्व, १८/४/४१) मरण-रहित एवं घ्य्तप्रिय गव्यवाहन नाम से प्रसिद्ध अग्नि को समिद्ध करते हैं। क्यों कि यह अग्नि गुप्त सम्पत्ति को पहचानने वाले हैं। पृथ्वी से बहुत दूर पितरों को भी पहचानते हैं। (१९) यद्वो अग्निरजहादेकमङ्गं पितृलोकं गमयं जातवेदाः। तद्व एतत् पुनराप्यायामि साङ्गाः स्वर्गे पितरौ मादयध्वम्॥ (अथर्व, १८/४/६४) हे पितर देवताओ! परलोक में जाते हुए आपके जिस अंग को जातवेदा अग्नि ने छोड़ दिया है, उसे मैं पुनः पूर्ण करता हूँ। आप पूर्णाङ्ग बन कर स्वर्ग में आनन्द लें। (२०) जीवनामायुः प्रतिरत्वमग्ने पितृणां लोकमप् गच्छन्तु ते मृताः। सु गार्हपत्यो वितपन्नरातिमुषामुषां श्रेयसीं धेह्यस्मै॥ (अथर्व, १२/२/४५) हे अग्नि! जीवित दशा में आप आयु वृद्धि करें, मरने पर पितृलोक पहुंचा दें। कृपण मनुष्य को दग्ध करते, इस प्राणी के शत्रुओं को जलाते हुए इस जीवात्मा (प्रेत पितर) के लिए आप कल्याणकारी नयी नयी उषाओं को धारण करें। (२१) ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धताः। सर्वांस्तानग्ने आवह पितृन् हविषे अत्तवे॥ (अथर्व, १८/१/३४) जो भूमि में गाड़े गये हैं, जो पानी में बहाये गये है, जो अग्नि में जलाये गये हैं, या फेंक दिए गये हैं, उन सभी को हवि (श्राद्धान्न) ग्रहण करने के लिए बुलायें। (२२) देवाः पितरो मनुष्या गन्धर्वाप्सरसश्च ये। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः॥ (अथर्व, ११/७/२७) यहां पितरों को मनुष्य से अलग गिना गया है, अर्थात् वे मृत पितर हैं। (२३) पृथिवीं त्वा पृथिव्यामावेशयामि देवो नो धाता प्रतिरात्यायुः। परा परैता वसुविद् वो अरुचधा मृताः पितृषु सम्भवन्तु॥ (अथर्व, १८/४/४८) पृथिवी से उत्पन्न होने के कारण तुमको पृथ्वी में मिला रहा हूं। धाता तुमको आयु दें। पृथ्वी से दूर जाने वाले पितरो! धाता तुमको आश्रय दें, परलोक में अन्य पितरों से मिल जाओ। मृतक के मिलने के कारण उसे मृत् या मृदा (मिट्टी) कहते हैं। शव को पृथ्वी के ४ तत्त्वों में मिलाने के समय यह मन्त्र कहा जाता है। (२४) नमो वः पितर ऊर्जे, नमो वः पितरो रसाय (अथर्व, १८/४/८) नमो वः पितरो भामाय, नमो वः पितरो मन्यवे। (अथर्व, १८/४/८२) क्रम (१४) में वर्णित वाज. यजु, २/३२ की तरह ऊर्जा, रस, भाम, नयु आदि तत्त्वों को पितर कहा गया है। (२५) इमं मे ज्योतिरमृतं हिरण्यं पक्वं क्षेत्रात् कामदुधा म एषा। इदं धनं निदधे ब्राह्मणेषु कृण्वे पन्थां पितृषु यः स्वर्गः॥ (अथर्व, ११/१/१) यह स्वर्ण मेरा अविनाशी प्रकाश है। क्षेत्र से उत्पन्न होने वाला यह पक्व अन्न (पिण्ड) एवं गौ (वृषभ) मेरी कामनाओं को पूर्ण करते हैं। इन धन को ब्राह्मणों में प्रतिष्ठित करता हूं, जिससे पितरों के लिए सुखद मार्ग हो। यहां वर्णित अन्न, गौ, भोजन ब्राह्मणों को दान की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थों में है- तावा रेताः-ऋत्विजामेव दक्षिणाः। अन्यं वा एतऽएतस्य (गच्छतः) आत्मानं संस्कुर्वन्ति, एतं यज्ञं ऋङ्मयं, यजुर्मयं, साममयं, आहुतिमयं। सोऽस्यामुष्मिंल्लोकऽआत्मा भवति, तद्ये प्राजीजनन्तेति-तस्माद् ऋत्विग्भ्य एव दक्षिणा दद्यात्, नानृत्विग्भ्यः। अथ प्रतिपरेत्य गार्हपत्यं-दक्षिणानि जुहोति। स दशाहोमीये वाससि हिरण्यं प्रबध्यावधाय जुहोति। देवलोके मेऽप्यसदिति वै यजते, यो यजते। सोऽस्यैष यज्ञो (यज्ञातिशयो) देवलोकमेवाभिप्रेति, तदनूची दक्षिणा यां ददाति सा-ऎइ। दक्षिणामन्वारभ्य यजमानः। (शतपथ ब्राह्मण, ४/३/४/५-७) (२६) जीवं रुदन्ति विनयन्त्यध्वरं दीर्घामनुप्रसितं दीघ्युर्नरः। वामं पितृभ्यो य इदं समीमिरे मयः पतिभ्यो जनये परिष्वजे॥ (अथर्व, १४/१/४६) जो मनुष्य पत्नियों के जीवन के लिए रोते हैं, उनकी दुर्दशा पर आंसू बहाते हैं, उनको यज्ञ में नियुक्त करते हैं (यज्ञ में सह भागी होने के कारण धर्मपत्नी कहते हैं), उनको कभी कष्ट नहीं देते, प्रेमपूर्वक आलिङ्गन करते हैं, एवं पितरों के लिए श्रेष्ठ सन्तान उत्पन्न करते हैं (पितृ-ऋण का परिशोध), उनके लिए पत्नी सदा सुखद होती है। अन्य सैकड़ों वेद मन्त्र प्रेत-पितर विषय में हैं। कुछ अन्य उदाहरण हैं- ऋग्वेद के मण्डल १० के १४ से १९ सूक्तों के ६० मन्त्रों के ऋषि वैवस्वत यम तथा उनके वंशज यामायनों के हैं जो प्रेत पितर से सम्बन्धित हैं। अन्य कुछ मन्त्र हैं (१/४२/५, १/७/१२, १/१०६/३, १/१०९.३, १/१०९/७, १/११९/४, २/५/१, ३/५५/२, ४/१/१३, ४/२/१६, ४/४२/८, ५/४७/१, ५/४७/१, ६/२१/८, ६/२२/२, ६/४६/१२, ६/४९/१० आदि मन्त्रों में प्रेत पितर का उल्लेख है। वाज. यजु में अध्याय १९ केवल प्रेत पितर के विषय में है। अन्य मुख्य मन्त्र हैं-२/७, २/३१, २/३३, २/३४, ३/५५, ५/११, ६/१, ७/४६, ८/५८, १२/४५, १४/२९, १९/११, १९/३७, १९/४५, १९/४७, १९/५०, १९/५३, १९/५४, १९/६९, १९/७०, २९/४६, २९/४७, ३८/९ आदि। अथर्व संहिता के काण्ड १८ के ४ सूक्तों के २८३ मन्त्र पितर तथा श्राद्ध विषय में हैं। कुछ अन्य मन्त्र हैं-१/३०/२, १/२/४, ४/१५/५, ५/१८/१३, ५/२४/१४, ५/२४/१५, ५/३०/११, ५/३०/१२, ६/४६/१, ६/७१/२, ६/११६/२, ६/१२०/३, ७/४१/२, १०/१०/२६, ११/७/२७, १२/१/३२, १४/१/४६, १५/७/२, १८/१/४५, १८/१/४६ आदि।



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