डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)-
यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि श्राद्ध में दी गयी अन्न आदि सामग्रियाँ पितरों को कैसे मिलती हैं; क्योंकि विभिन्न कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद जीव को भिन्न-भिन्न गति प्राप्त होती है। कोई देवता बन जाता है, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई चिनार का वृक्ष और कोई तृण। श्राद्ध में दिये गये छोटे-से पिण्ड से हाथी का पेट कैसे भर सकता है? इसी प्रकार चींटी इतने बड़े पिण्ड को कैसे खा सकती है? देवता अमृत से तृप्त होते हैं, पिण्ड से उन्हें कैसे तृप्ति मिलेगी? इन प्रश्नों का शास्त्र ने सुस्पष्ट उत्तर दिया है कि नाम- गोत्र के सहारे विश्वेदेव एवं अग्निष्वात्त आदि दिव्य पितर हव्य-कव्य को पितरोंको प्राप्त करा देते हैं। यदि पिता देवयोनि को प्राप्त हो गया हो तो दिया गया अन्न उसे वहाँ अमृत होकर प्राप्त हो जाता है। मनुष्य योनि में अन्नरूप में तथा पशुयोनि में तृण के रूप में उसे उसकी प्राप्ति होती है। नागादि योनियों में वायुरूप से, यक्षयोनि में पानरूप से तथा अन्य योनियों में भी उसे श्राद्धीय वस्तु भोगजनक तृप्तिकर पदार्थों के रूप में प्राप्त होकर अवश्य तृप्त करती है-
नाममन्त्रास्तथा देशा भवान्तरगतानपि ।
प्राणिनः प्रीणयन्त्येते तदाहारत्वमागतान्॥
देवो यदि पिता जातः शुभकर्मानुयोगतः ।
तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्वेऽप्यनुगच्छति॥
मर्त्यत्वे ह्यन्नरूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत् ।
श्राद्धान्नं वायुरूपेण नागत्वेऽप्युपतिष्ठति ॥
पानं भवति यक्षत्वे नानाभोगकरं तथा।
(मार्कण्डेयपुराण, वायुपुराण, श्राद्धकल्पलता)
जिस प्रकार गोशाला में भूली माता को बछड़ा किसी-न-किसी प्रकार ढूँढ़ ही लेता है, उसी प्रकार मन्त्र तत्तद् वस्तुजात को प्राणी के पास किसी-न किसी प्रकार पहुँचा ही देता है। नाम, गोत्र, हृदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्पपूर्वक दिये हुए पदार्थों को भक्तिपूर्वक उच्चारित मन्त्र उनके पास पहुँचा देता है। जीव चाहे सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो तृप्ति तो उसके पास पहुँच ही जाती है-
(क) यथा गोष्ठे प्रणष्टां वै वत्सो विन्देत मातरम् ।
तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्यत्रावतिष्ठते ।
नाम गोत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नं नयन्ति तम् ।
अपि योनिशतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति । (वायुपु० उपोद्घात पा०८३।११९-२०)
(ख) नामगोत्रं पितॄणां तु प्रापकं हव्यकव्ययोः ।
श्राद्धस्य मन्त्रतस्तत्त्वमुपलभ्येत भक्तितः ।
अग्निष्वात्तादयस्तेषामाधिपत्ये व्यवस्थिताः ।
नामगोत्रास्तथा देशा भवन्त्युद्भवतामपि ।।
प्राणिनः प्रीणयन्त्येतदहणं समुपागतम् । (पद्मपुराण, सृष्टिखं० १०।३८-३९)
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