पूजन का अभिप्राय

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री  कृष्ण दत्त जी महाराज- mysticpower- पूजन कहते हैं, उनका यथोचित स्वागत किया जाएं और उनको अपने हृदय में, उनके ज्ञान और विज्ञान की प्रतिभा को अपने में धारण करते हुए वह, मानव उसका प्रसार उसका चलन करता है, वह उनकी आज्ञा का पान करता है, तो उनको पूजा कहा जाता है। पूजा का अभिप्रायः यह नहीं है कि आज हम मानो देखो, उसके चरणों की वन्दना कर रहे हैं और उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर रहे है। तो चरणों की वंदना से कोई लाभ नहीं है, देखो, वह लाभप्रद नहीं है, लाभप्रद उसी काल में होगा जब भी मानो उसके विचारों को ओर उसकी मान्यताओं को ऊँचा बनाने का प्रयास करेगा। देवप्रवृत्ति परन्तु विचार आता है, वह कैसे माने जाएं मानो पितरगण भी हमारे इतने ऊर्ध्वा में, वे देवतव प्रवृत्ति वाले हो। देवता प्रवृत्ति वाले कौन होते हैं? जैसे माता की अपने में देवप्रवृत्ति वाली विचार धारा आती है। माता को देवता के रूप में स्वीकार करते हैं। माता भी वास्तव में माता है, निर्माण करने वाली विचित्रतव हो जैसे माता मलदाल्सा के जीवन की गाथाए। स्मरण आती रहती हैं। आता मलदाल्सा मानो देखो, बाल्यकाल में वह वेद का अध्ययन करती थी, अध्ययन करते हुए मानो देखो, जब वह अमृतम् मानो देखो, मनुवंश में उसका संस्कार हुआ तो वह जब प्रथम गर्भ बालक का था देखो, वह गर्भाशय उष ब्रह्म, जब उसमें एक शिशु का प्रवेश हुआ, तो माता मानो देखो, प्राण के द्वारा तपस्या करती थी।   प्राण-सखा विचार आता है कि वह प्राण तपस्या क्या है? मेरे पुत्रो! देखो, प्राण को हम जानना चाहते हैं प्रत्येक मानव परम्परागतो से बेटा! प्राण की आभा में लगा हुआ है, मानो देखो, माताएं तो बाल्यकाल से विद्यालय से ही जाना करते हैं ब्रह्मचारी जन भी, कि प्राण अपने में प्राणत्व में कहलाता है। यह प्राण नाभि से ले करके, मानो देखो, कण्ठ के भाग से होता हुआ, यह नासिका के द्वारा बाह्य-जगत में जाता है, और बाह्य-जगत में जब प्रवेश करता है तो बाह्य जगत से यह मानो देखो, शुद्धिकरण करता हुआ प्राण-सखा को परमाणुवाद को यह ऊर्ध्वा देखो, अपने आन्तरिक जगत में ले जाता है और अन्तर्जगत् में ले जा करके उसको प्राण कहते हैं।   अपान-गति मेरे प्यारे! देखो, यह प्राण का नीचे सम्बन्ध अपान से हो जाता है। जितने भी मानो संसार में जो बा“य जगत में या आंतरिक जगत में जितना भी मानो देखो, ऊर्ध्वा में गति कराने वाली वृत्तिया। हैं, मानो वह अपान-प्राण की मानी गई हैं। चाहे वह जलाशय हैं चाहे, वह मलवृता है कोई भी क्रियाकलाप हो जो दूर जाने वाला है, वह अपान का ही व्रेफय है। अपान को ही उसका श्रेय माना गया हैं। जब अपान और प्राणों का दोनों का समन्वय हो जाता है, तो मानो देखो, वह अपने अन्तर्हृदय और अर्न्तजगत को दृष्टिपात करने लगता है।   ब्रह्मवेत्ता-निर्माता माता मलदाल्सा बेटा! माता मलदाल्सा, जब मानो देखो, जेठा पुत्र गर्भ में था तो उसे मानो देखो, प्राण सखा के द्वारा और मन की पुट लगा करके, बेटा! उसे अन्तरात्मा में, अन्तर्हृदय में बेटा! दृष्टिपात करने लगी। अन्तरात्मा से अन्तर्हृदय को प्रायः दृष्टिपात किया जाता है, जहाँ वह शिशु पनप रहा है, जहाँ देवता मानो देखो, देवतव को प्रदान कर रहे हैं, देवता अपने में देवत्त्व बन रहे हैं। तो मानो देखो, माता मलदाल्सा अपने में शान्त मुद्रित हो करके उसको दृष्टिपात करती रहीं। मेरे प्यारे! देखो, माता के हृदय में यह कामना रही कि मेरा अन्तरात्मा में, जो मानो गर्भाशय में जो शिशु पनप रहा है, वह शिशु इतना महान और प्रबल और विचित्र होना चाहिए, मानो देखो, वह जिससे मेरे जीवन का साथी बनकर रहे, मेरे जीवन को ऊर्ध्वा गति देने वाला हो, मेरे जीवन को मानो देखो, परमात्मा तक क्या, उनकी वृत्तियों में रत्त रहना चाहिए। ऐसी विचारधारा, बेटा! माता मलदाल्सा की देवपूजा के सम्बन्ध में रही है। मानो बेटा! देखो, मुझे ऐसा स्मरण है कि माता जब अन्तरात्मा को कतियों में रत्त करा देती है और जब वह बाल्य बा“य-जगत में आता है तो मानो देखो, बेटा! माता उसे पालन-पोषण करती हुई, लोरियों को जब पान कराती है, तो मनोनीत इच्छा यह होती है माता प्रसन्न हो करके ओर वह वेद-मन्त्रों का गुणगान गाते हुए वेद-ध्वनियों में, स्मृतियों में ओर उपनिषदों में रत्त करते हुए मानो देखो, बालक को जब वह अपना रस प्रदान करती है, रस में रस का समन्वय कर देती है, तो मेरे प्यारे! देखो, वह बाल्य, ब्रह्मवेत्ता बनने के लिए अग्रसर हो जाता है।



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