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31 October 2024
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श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
(१) पुराण-निगम-आगम-घटनाओं का कालक्रम में वर्णन इतिहास है। इतिहास = इति + ह + आस = ऐसा ही हुआ था।
घटना क्रम के अतिरिक्त उनका विज्ञान समझने के लिये पुराण है। दीर्घकाल के सृष्टि निर्माण या लघुकाल के वंश चरित, दोनों तभी लिखॆ जा सकते हैं जब समय समय पर उनका निरीक्षण और वर्णन हो। विज्ञान समझने के लिये भी एक क्रिया तथा उसके कुछ समय बाद परिवर्तन का अध्ययन जरूरी है। अतः विज्ञान का आधार वेद तभी बन सकता है जब कि काल-क्रम से निसर्ग का निरीक्षण हो। निसर्ग से आगत होने के कारण ही वेद निगम है। मनुष्य ब्रह्मा को चिन्ता हुई-सृष्टि का आरम्भ कैसे करें। इसके लिये पुराणों का स्मरण किया। इससे पता चला कि पहले कैसे सृष्टि हुई थी। उसके अनुसार पुनः वैसे ही सृष्टि हुई। निर्माण की विधि समझना तन्त्र का विषय है। अतः पुराण-निगम-आगम ये तीनों अनादि हैं जिनको रामचरितमानस में स्रोत कहा है। यह मूल पुराण १०० करोड़ श्लोकों का था।
मत्स्य पुराण (५३/२-१०)-इदमेव पुराणेषु पुराण पुरुषस्तदा। (२)
पुराणं सर्व शास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्। अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः॥३॥
पुराणमेकमेवासीत् तदाकल्पान्तरेऽनघ। त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटि प्रविस्तरम्॥४॥
पुराण का एक अर्थ सनातन या पुराण पुरुष भी है जो ब्रह्म का क्रियात्मक रूप है-
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् (गीता ११/३८)
संख्यात्मनः शास्त्रकृतस्तवेक्षा छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः (भागवत पुराण ८/७/३१)
परिवर्तनशील विश्व का वर्णन पुराण है। यदि वेद या पुराण एक ही समय के हों तो यह पता नहीं चल सकता कि उसके बाद अब तक कितना समय बीता। इसकी परिभाषायें हैं-
पुरा परम्परां वक्ति पुराणं तेन तत् स्मृतम् (पद्म पुराण १/२/५३)
यस्यात् पुरा ह्यनन्तीदं पुराणं तेन चोच्यते (वायु पुराण उत्तर ४१/५५)
यस्मात् पुरा ह्यभूच्चैतत् पुराणं तेन तत् स्मृतम् (ब्रह्म पुराण १/१/१७३)
पुराणं कस्मात्। पुरा नवं भवति (निरुक्त ३/१९)
वेद के लिये पुराणों की जरूरत थी अतः वेद में भी पुराणों का उल्लेख है-
अथर्व (११/७/२५)-ऋच सामानि छन्दांसि पुराण यजुषा सह। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिता।
एवं वा अरेsस्य महतो भूतस्य निःश्वसित-मेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो sथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्रा-ण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि अस्यैवैतानि निःश्वसितानि । (बृहदारण्यक उपनिषद् २/४/१०, शतपथ ब्राह्मण १४/२/४/१०)
ऋग्वेदं भगवोऽध्येमियजुर्वेदँ सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यँ राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्याँ सर्पदेवजनविद्यामेतद् भगवोऽध्येमि। (छान्दोग्य उपनिषद् ७/१२)
इतिहास पुराणं तर्पयामि (बौधायन धर्मसूत्र २/५/९/१४)
इत्युक्त्वान्तःपुरद्वारमाजगाम पुराणवित् (रामायण, अयोध्याकाण्ड २/१५/१८)
इतिहास पुराणानामुन्मेषं निर्मितं च यत्। (६३)
चातुर्वर्ण्य विधानं च पुराणानां च कृत्स्नसः (६४)-महाभारत (१/१/६३,६४).
(2) स्वायम्भुव मन- सूर्य के प्रबल ताप के कारण जब लोक जल रहे थे (३१,००० ई.पू. का जल प्रलय), तो एक ब्रह्मा स्वायम्भुव मनु (२९१०२ ई.पू.) ने पुराणों का पुनरुद्धार किया जो त्रिवर्ग (धर्म-अर्थ-काम) का साधन था और उसमें वेद तथा उसके अङ्ग और धर्मशास्त्र आदि थे। वेद उद्धारक रूप को हयग्रीव कहा गया है। उनको नष्ट करने वाले असुर को भी हयग्रीव कहा गया है। यह एक ही पुराण था जिसे ब्रह्माण्ड पुराण कहा है।
बृहन्नारदीय पुराण, अध्याय १०९ -ब्रह्माण्डं च चतुर्लक्षं पुराणत्वेन पठ्यते॥३०॥
तदेव व्यस्य गदितमष्टादशधा पृथक्। पाराशर्येण मुनिना सर्वेषामपि मानद ॥३१॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/६)-अस्मात् कल्पात्ततः पूर्वं कल्पातीतः पुरातनः॥ चतुर्युगसहस्राणि सह मन्वन्तरैः पुरा॥१५॥
क्षीणे कल्पे ततस्तस्मिन् दाहकाल उपस्थिते। तस्मिन् काले तदा देवा आसन् वैमानिकस्तु वै॥१६॥
ततस्तेषु गतेषूर्ध्वं त्रैलोक्येषु महात्मसु। एत्तैः सार्धं महर्लोकस्तदानासादितस्तु वै॥४२॥
तच्छिष्या वै भविष्यन्ति कल्पदाह उपस्थिते। गन्धर्वाद्याः पिशाचाश्च मानुषा ब्राह्मणादयः॥४३॥
सहस्रं यत्तु रश्मीनां स्वयमेव विभाव्यते। तत् सप्त रश्मयो भूत्वा एकैको जायते रविः॥४५॥
क्रमेणोत्तिष्ठमानास्ते त्रींल्लोकान्प्रदहंत्युत। जंगमाः स्थावराश्चैव नद्यः सर्वे च पर्वताः॥४६॥
शुष्काः पूर्वमनावृष्ट्या सूर्य्यैस्ते च प्रधूपिताः। तदा तु विवशाः सर्वे निर्दग्धाः सूर्यरश्मिभिः॥४७॥
जंगमाः स्थावराश्चैव धर्माधर्मात्मकास्तु वै। दग्धदेहास्तदा ते तु धूतपापा युगान्तरे॥४८॥
उषित्वा रजनीं तत्र ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः। पुनः सर्गे भवन्तीह मानसा ब्रह्मणः सुताः॥५०॥
ततस्तेषूपपन्नेषु जनैस्त्रैलोक्यवासिषु। निर्दग्धेषु च लोकेषु तदा सूर्य्यैस्तु सप्तभिः॥५१॥
वृष्ट्या क्षितौ प्लावितायां विजनेष्वर्णवेषु च। सामुद्राश्चैव मेघाश्च आपः सर्वाश्च पार्थिवाः॥५२॥
शरमाणा ब्रजन्त्येव सलिलाख्यास्तथानुगाः। आगतागतिकं चैव यदा तत् सलिलं बहु॥५३॥
संछाद्येमां स्थितां भूमिमर्णवाख्यं तदाभवत्। आभाति य्स्मात् स्वाभासो भाशब्दो व्याप्तिदीप्तिषु॥५४॥
सर्वतः समनुप्राप्त्या तासां चाम्भो विभाव्यते। तदन्तस्तनुते यस्मात् सर्वां पृथ्वीं समन्ततः॥५५॥
अध्याय ७-प्राक् सर्गे दह्यमाने तु पुरा संवर्तकाग्निना॥९॥सप्तसप्त तु वर्षाणि तस्या द्वीपेषु सप्तषु॥१३॥
ऊपर लिखा है कि सूर्य का तेज ७ गुणा बढ़ने के कारण (सप्त-रश्मयः) होने के कारण ध्रुवीय बर्फ पिघल गयी तथा पूरे विश्व में व्यापक वर्षा हुई। इस प्रलय के बाद स्वायम्भुव मनु का काल आरम्भ हुआ जिनके बाद कलि आरम्भ तक ७१ युग बीत गये-प्रति युग ३६५ या प्रायः ३६० वर्ष का होगा-
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/९)-स्वां तनुं स तदा ब्रह्मा समपोहत भास्वराम्। द्विधा कृत्वा स्वकं देहमर्द्धेन पुरुषोऽभवत्॥३२॥
स वै स्वायम्भुवः पूर्वम् पुरुषो मनुरुच्यते॥३६॥ तस्यैक सप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥३७॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-त्रीणि वर्ष शतान्येव षष्टिवर्षाणि यानि तु। दिव्यः संवत्सरो ह्येष मानुषेण प्रकीर्त्तितः॥१६॥
त्रीणि वर्ष सहस्राणि मानुषाणि प्रमाणतः। त्रिंशदन्यानि वर्षाणि मतः सप्तर्षिवत्सरः॥१७॥
षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु। वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥१९॥
(३) मत्स्य अवतार-१०,००० ई.पू. के जल प्रलय के बाद ९५३३ ई.पू. में मत्स्य अवतार द्वारा पुराणों का पुनः निर्माण हुआ जब दोनों पद्धतियों के अनुसार प्रभव सम्वत्सर था (विष्णुधर्मोत्तर पुराण, ८२/७-८)
निर्दग्धेषु च लोकेषु वाजिरूपेण वै मया। अङ्गानि चतुरो वेदाः पुराणं न्यायविस्तरम्॥५॥
मीमांसा धर्मशास्त्रञ्च परिगृह्य मया कृतम्। मत्स्य रूपेण च पुनः कल्पादावुदकार्णवे॥६॥
(४) २८ व्यासों द्वारा वेद पुराण संकलन- २८ युगों में २८ व्यास हुए थे जिनका ब्रह्माण्ड (१/२/३५), वायु (९८/७१-९१), कूर्म (१/५२), विष्णु (३/३), लिङ्ग (१/७/११, १/२४), शिव (३/४), देवीभागवत (१/२, ३) आदि पुराणों में वर्णन है। हर युग में, ब्रह्मा से बादरायण तक २८ व्यासों ने प्रायः ४ लाख श्लोकों में पुराण संहिता लिखी।
देवीभागवत पुराण (१/३)-द्वापरे द्वापरे विष्णुर्व्यासरूपेण सर्वदा। वेदमेकं स बहुधा कुरुते हित काम्यया॥१९॥
अल्पायुषोऽल्पबुद्धींश्च विप्राञ्ज्ञात्वा कलावथ। पुराणसंहितां पुण्यां कुरुतेऽसौ युगे युगे॥२०॥
(यहां वेद और पुराण को सम्बन्धित या पूरक कहा है।)
स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां न वेदश्रवणं मतम्। तेषामेव हितार्थाय पुराणानि कृतानि च॥२१॥
अतीतास्तु तथा व्यासाः सप्तविंशतिरेव च। पुराणसंहितास्तैस्तु कथितास्तु युगे युगे॥२४॥
ऋषयः उचुः-ब्रूहि सूत महाभाग व्यासाः पूर्वयुगोद्भवाः। वक्तारस्तु पुराणानां द्वापरे द्वापरे युगे॥२५॥
सूत उवाच-द्वापरे प्रथमे व्यस्ताः स्वयं वेदाः (पुराण के बाद) स्वयंभुवा।
प्रजापति (कश्यप) द्वितीये तु द्वापरे व्यास कार्यकृत्॥२६॥
तृतीये चोशना (उशना = शुक्र, कवि) व्यासश्चतुर्थे तु बृहस्पतिः।
पञ्चमे सविता (विवस्वान्) व्यासः षष्ठे मृत्यु (वैवस्वत यम) स्तथापरे॥२७॥
मघवा ( १४ इन्द्रों में वैकुण्ठ इन्द्र) सप्तमे प्राप्ते वसिष्ठस्त्वष्टमे स्मृतः।
सारस्वतस्तु (वाणी-हिरण्यगर्भ के पुत्र अपान्तरतमा) नवमे त्रिधामा दशमे तथा॥२८॥
एकादशेऽथ त्रिवृषो भरद्वाजस्ततः परम्। त्रयोदशे चान्तरिक्षो धर्मश्चापि चतुर्दशे॥२९॥
त्रय्यारुणिः पञ्चदशे षोड़शे तु धनञ्जयः। मेधातिथिः सप्तदशे व्रती ह्यष्टादशे तथा॥३०॥
अत्रिरेकोनविंशेऽथ गौतमस्तु ततः परम्। उत्तमश्चैकविंशेऽथ हर्यात्मा परिकीर्तितः॥३१॥
वेनो वाजश्रवश्चैव सोमोऽमुष्यायणस्तथा। तृणविन्दुस्तथा व्यासो भार्गवस्तु ततः परम्॥३२॥
ततः शक्तिर्जातूकर्ण्यः कृष्णद्वैपायनस्ततः। अष्टाविंशति संख्येयं कथिता या मया श्रुता॥३३॥
(५) बादरायण व्यास द्वारा विभाजन- कृष्ण द्वैपायन (बदरी वन में रहने के कारण बादरायण) व्यास ने पुराणों को १८ भागों में बांटा- मत्स्यपुराण, अध्याय ५५-
व्यासरूपमहं कृत्वा संहरामि युगे युगे। चतुर्लक्ष प्रमाणेन द्वापरे द्वापरे सदा॥९॥
तथाष्टादशधा कृत्वा भूलोकेऽस्मिन् प्रकाश्यते। (१०) नामतस्तानि वक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः। (१२)
देवीभागवत पुराण (१/३/२) के अनुसार इनकी सूची है-
मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं व-चतुष्टयम्। अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि पृथक् पृथक्॥
म से २ पुराण-मत्स्य, मार्कण्डेय
भ से २-भागवत, भविष्य
ब्र से ३-ब्रह्म, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त्त।
व से ४-विष्णु, वामन, वाराह, वायु।
अ-अग्नि, ना-नारद, प-पद्म, लिं-लिङ्ग, ग-गरुड़, कू-कूर्म, स्का-स्कन्द।
१८ पुराणों का क्रम सृष्टि निर्माण क्रम के अनुसार है। मधुसूदन ओझा ने इनका वर्णन जगद्गुरुवैभवम्, अध्याय २ तथा पुराण निर्माणाधिकरणम् में किया है। उनके शिष्यों ने भी इसकी व्याख्या की है-पं. गिरिधरलाल शर्मा का पुराण परिशीलन (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १९९८, पृष्ठ २७-३३), सुर्जनदास स्वामी का पुराण रहस्य (१९८७, जयपुर) आदि। पुराणों का यह क्रम बृहन्नारदीय पुराण, अध्याय ९२-१०९ में दिया है-
(१) सृष्टि वाद, (२) मतवाद, (३) अवतारवाद, (४) आयतिवाद, (५) आयतनवाद।
(१) सृष्टिवाद-प्रथम ६ पुराण उक्थ (स्रोत) हैं-ब्रह्म-ब्रह्मा से सृष्टि हुई। (२) पद्म-ब्रह्मा की उत्पत्ति पद्म से हुई। (३) विष्णु-विष्णु की नाभि से पद्म निकला। (४) वायु-विष्णु का स्थान शेष-नाग (आकाशगङ्गा की सर्पाकार भुजा) है जो वायु (गति) रूप है। (५) भागवत-शेषनाग क्षीर सागर (ब्रह्माण्ड का आधार गोलोक, उससे उत्पन्न आकाशगङ्गा-Milky way), (६) नारद-भागवत की प्रेरणा नारद से मिली (सर्वव्यापी रस में जब चेतना प्रविष्ट हुई तब वह नर से उत्पन्न नार कहा गया, उस नार का चेतन रूप नारद है)।
(२) मतवाद-सृष्टि के बारे में ४ मत हैं-(७) मार्कण्डेय पुराण-यह ३ गुणों सत्त्व, रज, तम से सृष्टि का वर्णन करता है। (८) अग्नि-हिरण्यगर्भ सबसे पहले (अग्र) था अतः उसे अग्नि (अग्रि) कहा गया। उसी से सृष्टि हुई। आकाश में सृष्टि के ५ पर्व भी सघन पिण्डों के रूप में अग्नि हैं। (९) सूर्य (भविष्य)-सूर्य से पृथ्वी तथा इसके प्राणियों का निर्माण हुआ है। (१०) ब्रह्म वैवर्त्त-वेदान्त दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण विश्व ब्रह्म का विवर्त्त है।
(३) अवतारवाद-अगले ६ पुराण विष्णु के अवतार क्रम में हैं-(११) लिङ्ग-३ प्रकार के दृश्य जगत् (लिङ्ग = बाह्य चिह्न)। मूल लिङ्ग स्वयम्भू है। गति का आरम्भ ब्रह्माण्ड से हुआ जिसे बाण द्वारा प्रकट करते हैं (३ दिशा में ३ बाण लिङ्ग)। पृथ्वी पर दृश्य रूप अनन्त प्रकार के हैं, उनको इतर (अन्य, other) लिङ्ग कहते हैं। ये प्रकाश द्वारा दीखते हैं। १२ मास में सूर्य ज्योति के १२ प्रकार ज्योति होने से १२ ज्योतिर्लिङ्ग हैं। (१२) वराह-मूल स्रोत फैला हुआ पदार्थ है जो जल के विभिन्न स्तर है। निर्मित पिण्ड भूमि है। बीच की निर्माणाधीन अवस्था वराह है जिसके २ अर्थ हैं-मेघ (जल-वायु मिश्रण) या सूअर (जल-स्थल का प्राणी)। आकाश में ५ प्रकार के वराह हैं-आदि (पूर्ण विश्व का), यज्ञ (ब्रह्माण्ड का), श्वेत (सौर मण्डल का), भू (जिस पदार्थ से पृथ्वी बनी), एमूष (निकट का वायुमण्डल), (१३) वामन-सौर मण्डल में सूर्य ही वामन है। ठोस ग्रहों का क्षेत्र मंगल तक है जो दधिवामन है (भागवत पुराण स्कन्ध ५ मं दधि समुद्र का आकार मंगल कक्षा है), (१४) कुमार (स्कन्द)-सभी ग्रह सूर्य से निकले (स्कन्न, या स्कन्द) हैं जो उससे उत्पन्न होने के कारण कुमार भी कहे जाते हैं। इसके ७ विवर्त्त कहे गये हैं जो वंशानुक्रम के भी ७ स्तर हैं। (१५) कूर्म-आकाश में सृष्टि कूर्म से आरम्भ हुई जिससे ब्रह्माण्ड बना। हर स्तर पर सृष्टि कूर्म आधार पर मन्थन से हुई (तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति-ईशावास्योपनिषद्)। (१६) मत्स्य-आकाश में १०० अरब ब्रह्माण्ड मत्स्य की तरह तैर रहे हैं। हर स्तर पर व्यक्तिगत पिण्ड प्रायः स्वतन्त्र हैं।
(४) आयतिवाद-(१७) गरुड़-यह दो प्रकार की गति (सञ्चर-प्रतिसञ्चर, या निर्माण-विनाश) का या जीवन मृत्यु के चक्र का वर्णन करता है। यह परमात्मा का वाहन होने के कारण आत्मा का भी वाहन है।
(५) आयतन-(१८) ब्रह्माण्ड-यह आकाश में पिण्डों की स्थिति (आयतन = विस्तार) का वर्णन करता है।
(६) लोमहर्षण परम्परा-लोमहर्षण के ८ शिष्यों में काश्यप, सावर्णि, शांशम्पायन ने संहिताओं का संकलन किया।
विष्णु पुराण (३/४/१८)-काश्यपः संहिता कर्ता सावर्णिः शांशपायनः। लौमहर्षणिका चान्या तिसृणां मूलसंहिता॥
वायु पुराण (६१/५७) ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/६५-६६)-त्रिभिस्तत्र कृतास्तिस्रः संहिता पुनरेव हि॥।५७॥
काश्यपः संहिता कर्ता सावर्णिः शांशपायनः। मामिका च चतुर्थी स्यात् सा चैषा पूर्व संहिता॥५८॥
(७) शौनक की महाशाला (विश्वविद्यालय) में महाभारत युद्ध के बाद ८८,००० विद्वानों ने पुराणों का संकलन किया। इसके अध्यक्ष उग्रश्रवा थे। यह परीक्षित जन्म के बाद १००० वर्षों तक (२१३८ ई.पू. तक) चलता रहा। इसे नैमिषारण्य में शौनक का १००० वर्ष का सत्र कहा गया है।
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ॥३॥-मुण्डक उपनिषद् (१/१/२-३)
भागवत पुराण (१/१/४)-नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः। सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत॥
पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड (५) अध्याय १-
सूतमेकान्तमासीनं व्यासशिष्यो महामतिः। लोमहर्षणनामा वै उग्रश्रवसमाह तत्॥२॥
पुराणं चेतिहासं वाधर्मानथ पृथग्विधान्(१५) अथ तेषां पुराणस्य शुश्रूषा समपद्यत (१७)
तस्मिन् सत्रे गृहपत्ः सर्वशास्त्र विशारदः(१७) शौनको नाम मेधावी विज्ञानारण्यके गुरुः (१८)
पद्मपुराण, उत्तरखण्ड (१९६/७२)-
कलौ सहस्रमब्दानामधुना प्रगतं द्विज। परीक्षितो जन्मकालात् समाप्तिं नीयतां मखः॥
(८) उज्जैन के सम्वत् प्रवर्त्तक सम्राट् विक्रमादित्य (८२ ई.पू.-१९ ई. तक) काल में भी बेताल भट्ट की अध्यक्षता में पुराणों का वैसे ही सम्पादन हुआ जैसा पहले शौनक की महाशाला में हुआ था। अतः उसके ज्योतिषीय विवरण उसी काल से मिलते हैं। पुराण संकलन के स्थानों को भी विशाला (विशेष शाला) कहा गया जैसे शौनक संस्था को महाशाला कहते थे। एक तो उज्जैन के पास ही था, जिसाके कारण उज्जैन को विशाला भी कहा गया है। एक उत्तर बिहार के वैशाली की राजधानी थी। बद्रीनाथ में भी शंकराचार्य द्वारा ब्रह्म सूत्र की व्याख्या होने के कारण उसे बद्रीविशाल कहते हैं।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ४, अध्याय १-
एवं द्वापरसन्ध्याया अन्ते सूतेन वर्णितम्। सूर्यचन्द्रान्वयाख्यानं तन्मया कथितम् तव॥१॥
विशालायां पुनर्गत्वा वैतालेन विनिर्मितम्। कथयिष्यति सूतस्तमितिहाससमुच्चयम्॥२॥
तन्मया कथितं सर्वं हृषीकोत्तम पुण्यदम्। पुनर्विक्रमभूपेन भविष्यति समाह्वयः॥३॥
नैमिषारण्यमासाद्य श्रावयिष्यति वै कथाम्। पुनरुक्तानि यान्येव पुराणाष्टादशानि वै।।४॥
तानि चोपपुराणानि भविष्यन्ति कलौ युगे। तेषां चोपपुराणानां द्वादशाध्यायमुत्तमम्॥५॥
सारभूतश्च कथित इतिहाससमुच्चयः। यस्ते मया च कथितो हृषीकोत्तम ते मुदा॥६॥
तत्कथां भगवान् सूतो नैमिषारण्यमास्थितः। अष्टाशीति सहस्राणि श्रावयिष्यति वै मुनीन्॥८॥
(९) अकबर के समय में भी भविष्य पुराण में कई अध्याय जोड़े गये जिनमें कई में अकबर को पृथ्वीराज चौहान का अवतार कहा गया है। उसने विक्रमादित्य की नकल कर नवरत्न भी बनाये तथा उसके लगान व्यवस्था को भी आरम्भ किया। शेरशाह आदि मुगलों को विदेशी रूप में विरोध कर रहे थे, अतः अपने को भारतीय दिखाने के लिये किया। ब्रिटिश काल में एरिक पार्जिटर तथा विलियम जोन्स ने भी कुछ हेराफेरी की जिससे उनका कालक्रम बदला जा सके। भविष्य पुराण में कुछ अध्याय जोड़ कर कहा कि अंग्रेज हनुमान् के वंशज हैं जिनको भगवान् राम ने आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारे वंशज भारत पर राज्य करेंगें। हनुमान् के वंशज होने के कारण वे मनुष्य को हुमैन (Human) कहते हैं। हनुमान मरुत् के पुत्र हैं तथा इंगलैण्ड मरुत् कोण दिशा में है।
पुराणों में ज्योतिष तथा भूगोल सम्बन्धी विवरण पुराने हैं। महाभारत के बाद उनका संकलन करनेवाले माप की भिन्न इकाइयां तथा आकाश के क्षेत्रों के पृथ्वी जैसे नाम समझ नहीँ पाये। पर उसमें कोई उद्देश्यपूर्ण परिवर्तन नहीँ हैं। उन्हीं मूल मापों पर ज्योतिष की सभी पुस्तकें आधारित हैं। ज्यादा पुरानी घटनाएं क्रमशः संक्षिप्त होती गयी जैसा इतिहास लेखन में होता है तथा वायु पुराण आदि में स्पष्ट उल्लेख भी है।
उद्देश्यपूर्ण परिवर्तन अकबर काल में तथा पार्जिटर आदि द्वारा हुआ। शौनक या विक्रमादित्य को इससे कोई लाभ नहीं था।
१७३० में बलदेव विद्याभूषण ने ब्रह्मसूत्र के गोविन्द भाष्य में प्रथम सूत्र में भागवत पुराण की सहायता का आधार लिखा था-उक्तं च गारुडे-
अर्थोऽयं ब्रह्मसूत्राणां भारतार्थ विनिर्णयः। गायत्री भाष्य रूपोऽसौ वेदार्थ परिबृंहणः।।
१७८० के बाद के गरुड पुराण के किसी संस्करण में यह श्लोक उपलब्ध नहीँ है।