पुराणो को वेद की आत्मा कहा गया है।

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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डॉ.दिलीप कुमार नाथाणी (विद्यावाचस्पति)- ‘आत्मा पुराणं वेदानाम्‘।। ‘पुराणं परमर्षिणा‘।। ‘पुरा भवं पुराणं‘।। ‘इतिहास पुराणानि भिद्यन्ते लोकगौरवात्‘। एवं सपादाःपंचैते लक्षा मर्त्ये प्रकीर्तिताः। पुरातनस्य कल्पस्य पुराणानि विदुर्बुधाः।। पुराणं मानवो धर्मः साङ्गोवेदश्चिकत्सतम्। आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः।। अर्थात् पुराण, मन्वादि, स्मृति षड्वेदाङ्ग और चिकित्सा शास्त्र चारों ईष्वर की आज्ञा हैं। कुतर्क का आश्रय लेकर इनका खण्डन नहीं करना चाहिए। नारद पुराण के अनुसार-पुराणो मे ही सभी वेद प्रतिष्ठित रहे हैं-वेदाः प्रतिष्ठता सर्वें पुराणेष्वेव सर्वदा। सब वेदो के अर्थों का सार पुराण को कहा गया है-सर्व वेदार्थ साराणि पुराणानीति भूयते। पुराण के अनुसार ‘वह अनेक रूपों में अवतरित होता है। उसका एक रूपपुराण भी है, ब्रह्म पुराण भगवान का सिर है, पद्म पुराण हृदय है, विष्णु भगवान की दाहिनी बाँह है, शिव पुराण बाँयी बाँह है, श्रीमदभागवत् पुराण भगवान् की दोनोंजंघा हैं, नारद पुराण दोनों जंघाएँ तथा मार्कण्डेय दाहिना चरण है, अग्नि पुराणभगवान् का बाँया पैर है, भविष्य पुराण दक्षिण जानु है, ब्रह्मवैवर्त बाँया जानु है, लिंगपुराण भगवान् का दाहिना गुल्फ है, वराह पुराण भगवान् का बाँया टखना है,स्कन्द पुराण के रोम हैं, वामन पुराण भगवान् की त्वचा है, कूर्म पुराण पीठ है, मत्स्यपुराण मज्जा, ब्रह्मण्ड पुराण भगवान् की अस्थि है, इस प्रकार भगवान् विष्णु पुराणविग्रह के रूप में प्रकट हुए हैं। ब्रह्माण्ड पुराण के प्रक्रियावाद में ‘पुराण‘ शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की गयी है। अङ्ग और उपनिषद् के सहित चारों वेदों का अध्ययन करके भी, यदि पुराण को नहीं जाना  गया तो ब्राह्मण विचक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि इतिहास पुराणके द्वारा ही वेद की पुष्टि करनी चाहिए।यहीं नहीं पुराण ज्ञान से रहित अल्पज्ञ से वेद डरते रहते हैं, क्योंकि ऐसेे व्यक्ति के द्वारा ही वेद का अपमान हुआा करता है, अत्यन्त प्राचीन व वेद को स्पष्ट करनेवाला होने से नाम पुराण हुआ है, पुराण की इस परिभाषा को जो जानता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार पुराणों की अनादिता प्रामाणिकता तथा मङ्गलमयता का स्थल-स्थल पर उल्लेख है, और सर्वथा सिद्ध एवं यथार्थ है। वस्तुतः पुराण अनादि और नित्य हैं।इस प्रकार संत महात्माओ ं द्वारा भी कुछ पुराण विषयक परिभाषाएँ दी गयी हैं – रामकृष्ण परमहंस के अनुसार ‘पुराणों के बहिरंग पर हमें कभी ध्यान नहीं देनाचाहिए,उनका अंतरंग अर्थात अन्त वर्णित तथ्य वेदानुकूल होने से प्रमाण कोटि में निष्चित रूप से आता है, तब हमें उनके बहिरंग की सत्यता के विषय में संषयालुनहीं होना चाहिए‘।

  1. महन्त श्री अवेद्यनाथ जी के मत में-‘तप पुंज परम कारूणिक महर्षि व्यास रचित अष्टादश पुराण तथा उप पुराणादि समग्र सार्वभौम आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा सामाजिक जीवन दर्शन के जीवन्तभाष्य अथवा विश्वकोष हैं, पुराणों में भारतीय संस्कृति की सम्पत्ति सुरक्षितहै।
  2. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ‘पुराण शब्द का अर्थ जो पहले हो गया हो, उसका जिसमें वर्णन हो, वहीं पुराण है’।
  3. स्वामी निश्चलानन्द सरस्वती ‘पुराण अनादि होते हुए भी पौरूषेय है। प्रजापतिपितामह को सर्वप्रथम पुराणो का स्मरण हुआ, पुनः वेदों का।
  4. आचार्य गोपाल दत्त पाण्डेय-‘पुराण’ के अध्ययन से सृष्टि उन्मीलित होती है,निखिल ब्रह्मण्ड की जिज्ञासा से ओत प्रोत मानव हृदय की अन्तः सलिलासरस्वती पुराणो की धारा मे संगमित हो अपने अस्तित्व को बनाये रखतीहैं।
  5. डाॅ0 रमाशंकर भट्टाचार्य-‘पुराण का क्षेत्र बहुत ही विशाल है, जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसका प्रतिपादन पुराणों में किया गया हो‘।
आचार्य बलदेव उपाध्याय-‘भारतीय संस्कृति के स्वरूप की जानकारी के लिएपुराण के अध्ययन की महती आवश्यकता है,
  1. पुराण भारतीय संस्कृति का मेरूदण्ड है-वह आधार पीठ है, जिस पर आधुनिक भारतीय समाज अपने नियमन को प्रतिष्ठित करता है‘।
  1. आदित्य नाथ के अनुसार-‘पुराण हमें बताते हैं कि विश्व का हित धर्म और दर्शन विज्ञान अध्यात्म गृह जीवन और तपोजीवन के समन्वय में हैं। यह समन्वय ही हमारी सभ्यता और संस्कृति का आधारपीठ है’।
  2. डाॅ0श्रीकृष्ण मणि त्रिपाठी-‘पुराण साहित्य भारतीय सामाजिक जीवन का स्वच्छ दर्पण है’।
उपर्युक्त पुराणों की परिभाषाओं  से हम कह सकते हैं। कि वेद व्यास त्रिकाल दर्शी थे, उन्हौंने पुराणों में वेदों के अर्थ को सरस शैली में निबद्ध किया है। अतः पुराणों का अध्ययन प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है जिससे कि हमें अपनीप्राचीन संस्कृति तथा सभ्यता का ज्ञान प्राप्त हो सके, तथा उस ज्ञान के द्वारा हमवर्तमान परिवेश को पुष्ट कर सकते हैं।



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