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31 October 2024
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डॉ दिलीप कुमार नाथाणी विद्यावाचस्पति-
पुराणों का वर्गीकरण प्रधानतया तीन प्रकार से किया गया है। एवं तीनों ही प्रकारों में पुनः इनका त्रिधा विभाजन दिखाई देता है-
(क) अधिश्ठातृ देवता के आधार पर किया गये वर्गीकरण के अन्तर्गत- जिस देवता केा प्रधान मान कर पुराण का विशय है उसी श्रेणी में उस पुराण को वर्गीकृत किया गया है। इस प्रकार जो पुराणों का त्रिधा विभाजन है-(1) शैव, (2) वैष्णव, (3) ब्राह्म आदि।
(ख) गुणों के आधार परः- प्रत्येक पुराण में सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक रूप से गुणात्मक भेद है। अतः इस आधार पर भी पुराणों को वर्गीकृत किया गया है-(1) सात्त्विक, (2) राजसिक, (3) तामसिक
(ग) वर्ण्य विषय की दृष्टि से-वर्ण्य विषय की दृष्टि से भी इनका वर्गीकरण दिखाई देता है प्रत्येक पुराण में केवल इतिहास, अथवा केवल मात्र देव तत्त्व की व्याख्याएँ ही नहीं हैं वरन् कुछ पुराण इतिहास प्रधान विषयवस्तु केा संग्रहीत किये हुये हैं, कुछ अन्य धार्मिक तथा कुछ पुराण विश्वकोशात्मक विषयवस्तु को संग्रहीत किये हैं अतः इन्हीें के आधार पर इनका विभाजन किया गया है-(1) ऐतिहासिक, (2) धार्मिक, (3) विश्वकोश
पुराणों का सात्त्विक, राजसिक तामसिक प्रकार से त्रिधा विभाजन किया गया है। इसमें पुराणों को तत्तत् वर्ग में वर्गीकृत किया है। शब्दकल्पद्रुम ने इसको दिया है।
(1) सात्त्विक पुराणः- सात्त्विक पुराणो के अन्तर्गत विष्णु, नारद तथा भागवत, गरुड़, पद्म, वाराह इन छः पुराणों केा सात्त्विक पुराण कहा गया है-
वैष्णवं नारदीयंच तथा भागवतं शुभम्।
गारुड़ंच तथा पाद्मं वाराहं शुभदर्शने।
सात्त्विकानि पुराणानि विज्ञेयानि शुभानि वै।।
पद्मपुराण के अनुसार सात्त्विक पुराण मोक्षप्रद हैं-सात्त्विका मोक्षप्रदाः प्रोक्ता मत्स्य पुराण में सात्त्विक के लक्षण कहे हैं – सात्त्विकेषु पुराणेषु महात्म्यमधिकं हरेः। अर्थात् सात्त्विक-पुराणों में बहुधा हरि का माहात्म्य हेाता है।
(2)राजसिक पुराणः- ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त्त, मार्कण्डये, भविष्य, वामन, ब्राह्म इन छः पुराणों केा राजसिक कहा गया है-
ब्रह्माण्डं ब्रह्मवैवर्त्त मार्कण्डेयं तथैव च।
भविष्य वामनं ब्राह्मं राजसानि निबोधत।
सात्त्विका मोक्षदाः प्रोक्ता राजसाः स्वर्गदा शुभाः।
राजसिक पुराणों केा स्वर्गप्रदायक एवं शुभ कहा गया है-राजसाः स्वर्गदाः शुभाः। भविष्यपुराण में भी इन वर्गीकरण का फल कहा है तथा उन्हें कर्मकाण्ड से युक्त बताया है- राजसाः षट् स्मृति वीर कर्मकाण्डमया भुवि। मत्स्य पुराण के अनुसार राजसिक पुराणों में ब्रह्मा का माहात्म्य अधिक होता है-राजसेषु च माहात्म्यमधिकं ब्रह्मणो विदुः।
(3)तामसिक पुराणः- मत्स्य, कूर्म, लिंग,शैव, स्कन्द, अग्नि, इन छः को तामसिक पुराण कहा गया है-
मातस्यं कौम्र्मं तथा लैंगं शैवं स्कान्दं तथैव च।
आग्नेयंच षड़ेतानि तामसानि निबोधत्।।
इसी प्रकार तामसिक दैवीय कृपा प्राप्ति में हितकर हैं- तथैव तामसा देवि निरयप्राप्तिहेतवः। भविष्य पुराण में तामस पुराण केा शाक्तधर्म प्रवर्तक कहा है-तामसाः षट् स्मृताः प्राज्ञैः शक्ति धर्मपरायणाः। मत्स्य पुराण के अनुसार तामस पुराणों में अग्नि व शिव का माहात्म्य अधिकांशतः होता है- तद्वदग्नेश्च माहात्म्यं तामसेशु शिवस्य च। पुराणों का एक अन्य प्रकार का विभाजन है जो कि प्रत्येक पुराण के अधिष्ठातृ देवता के आधार पर किया गया वर्गीकरण है।
पुराणों में अन्तर्विभाजन
पुराणों में हमें अन्तर्विभाजन भी प्राप्त होता हैं अर्थात् प्रत्येक पुराण भाग-खण्ड-अंश-स्कन्द-पाद-पर्व-संहिता-अध्याय आदि में विभाजित है। तथा पुनः ये भाग एवं खण्ड अध्यायों में लिखे गये हैं।
(1) ब्रह्मपुराणः-यह देा भागों में विभक्त है पूर्व भाग व उत्तरभाग तथा दोनों में कुल मिलाकर 245 अध्याय हैं। किन्तु श्लोक संख्या की दृष्टि से नारदीयपुराण के अनुसार इसमें कुल 10000 श्लोक हैं तथा मत्स्यपुराण के अनुसार इसमें 13000 श्लोक संग्रहीत है।
(2) पद्मपुराणः- इस पुराण का विभाजन पाँच खण्डों में है-(1) सृष्टिखण्ड, (2) भूमिखण्ड, (3) स्वर्गखण्ड, (4) पाताल खण्ड, (5) उत्तरखण्ड। पुनः इनमें से प्रत्येक खण्ड में अध्यायों की संख्या क्रमश: 82, 125, 39, 113, 282 जो कि संकलित रूप से 641 अध्याय व 55000 श्लोकों के रूप में निबद्ध है।
(3) विष्णुपुराणः- यह पुराण दो भागों में विभक्त है पूर्वभाग, उत्तरभाग, वर्तमान में इसका केवल प्रथम भाग ही प्राप्त होता है। यह प्रथम भाग छः अंषों में उपविभाजित है। ये अंष पुनः अध्यायों में विभक्त हैं। इसमें प्रथम अंश में 22 अध्याय, द्वितीय में 16, तृतीय 18, चतुर्थ में 24, पंचम में 38 तथा षष्ठ अंश में 8 संकलित रूप से 126 अध्यायों तथा कुल 23000 श्लोकों में यह पुराण उपनिबद्ध है। कुछ विद्वानों का मत है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण ही विष्णुपुराण का उत्तर भाग है यदि इस तथ्य को स्वीकार कर लिया जाय तो इससे श्लोकों की संख्या पूर्णता को प्राप्त हेाती है।
(4) क-शिवपुराणः- यह शिवपुराण सात संहिताअेां में विभाजित है। (1) विद्येश्वर संहिता, (2) रुद्रसंहिता, (3) शतरुद्रसंहिता, (4) कोटिरुद्रसंहिता, (5) उमासंहिता, (6) कैलाशसंहिता, (7) वायवीयसंहिता। पुनः इसकी द्वितीय रुद्रसंहिता पंचधा खण्डात्मक विभाजित हैं जो कि (1) सृष्टिखण्ड, (2) सतीखण्ड, (3) पार्वतीखण्ड, (4) कुमारखण्ड, (5) युद्धखण्ड। इसी प्रकार सातवी वायवीय संहिता का भी द्विधा विभाजन है पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध के रूप में दिखाई देता है। इन सातों संहिताओं में क्रमषः 25, 197 (20+43+55+20+59=197), 42, 43, 57, 23, 76 (35$41=) कुल 464 अध्याय तथा 24000 श्लोक हैं।
ख-वायुपुराणः-वायुपुराण चार पादों में विभक्त है-(1) प्रक्रियापाद, (2) उपोद्धातपाद, (3) अनुशंगपाद, (4) उपसंहारपाद। इसमें से प्रथम पाद में 1-6, द्वितीय पाद में 7-64, तृतीय पाद में 65-99 तथा चतुर्थ पाद में 100-112 अध्याय हैं।
(5) क- श्रीमद्भागवतम्ः- 12 स्कन्दों में विभाजित जिनमें क्रमश: 19, 10, 33, 31, 26, 19, 15, 24, 90, 31, 13, सकल रूप से 335 अध्याय व 18000 श्लोक हैं।
ख- देवीभागवत् यह भी 12 स्कन्धों में विभाजित है। जिनमें क्रमश: 20, 12, 30, 25, 35, 31, 40, 24, 50, 13, 24, 14 सकल रूप से 332 अध्याय तथा 18000 श्लोक हैं।
(6) नारदीय पुराणः- यह पुराण दो भागों में विभक्त है। पूर्वभाग व उत्तर भाग। पूर्व भाग में चार पादों के अन्तर्ग कुल 125 अध्याय हैं तथा उत्तरभाग में 82 अध्याय हैं इस प्रकार सकलतः 207 अध्याय एवं 25000 श्लोकों में यह पुराण उपनिबद्ध है।
(7) मार्कण्डेय पुराणः- मार्कण्डेय पुराण में 136 अध्याय हैं तथा कुल 9000 श्लोक हैं। वर्तमान में जो मार्कण्डेय पुराण प्राप्त होता हैं उसमें 6900 श्लोक ही प्राप्त होते हैं।
(8) अग्निपुराणः- अग्निपुराण 136 अध्यायों में विभक्त हैं तथा इसमें कुल नारदीय पुराण के अनुसार 9000 श्लोक हैं तथा मत्स्यपुराण के अनुसार 13000 श्लोक होने चाहिये।। सम्भवतः इसी कारण अग्निपुराण् व वह्निपुराण नाम से दो पुराण प्राप्त हेाते हैं।
(9) भविष्यपुराणः- यह पुराण पाँच पर्वों में विभक्त हैं (1) ब्रह्मपर्व, (2) वैष्णवपर्व, (3) शैवपर्व, (4) सौरपर्व, (5) प्रतिसर्ग पर्व। इसमें कुल 605 अध्याय हैं। नारदीयानुसार इसमें 14000 श्लोक तथा मत्स्यानुसार इसमें 14500 श्लोक हैं।
(10) ब्रह्मवैवर्तपुराण:- यह पुराण चार खण्डों में विभक्त हैं- (1) ब्रह्मखण्ड, (2) प्रकृतिखण्ड, (3) गणेषखण्ड, (4) श्रीकृश्णजन्मखण्ड। इसकें अन्तिम दों भाग पुनः पूर्व व उत्तर नाम से द्विधा विभाजित हैं। इन चार खण्डों में क्रमषः 30, 57, 46, 133, संकलित रूप से 266 अध्याय तथा 18000 ष्लोक हैं।
(11)लिंग पुराणः- लिंग पुराण दो भागों में विभाजित है पूर्व भाग व उत्तरभाग। इनमें क्रमश: 108 तथा 55 अध्याय हैं। संकलित रूप से 163 अध्याय तथा 11000 श्लोको में संकलित है।
(12) वाराहपुराणः- वाराह पुराण भी द्विधा विभक्त है पूर्वभाग तथा उत्तरभाग, इनमें से 218 अध्याय, 24000 श्लोकों में उपनिबद्ध है।
(13) स्कन्दपुराणः- स्कन्दपुराण सात खण्डों में विभक्त हैं (1) महेश्वरखण्ड, (2) वैष्णवखण्ड, (3) ब्रह्मखण्ड, (4) काशीखण्ड, (5) अवन्तीखण्ड, (6) नागरखण्ड, (7) प्रभासखण्ड। इनमें कई अवान्तर खण्ड भी हैं। यहाँ इन प्रमुख खण्डों में क्रमश: 174, 156, 87, 100, 387, 279, 421 संकलित रूप से 1671 अध्याया हैं। इसमें नारद के मतानुसार 8100 श्लोक तथा मत्स्यपुराण 81102 श्लोक परिमाण है।
(14) वामन पुराणः- यह पुराण भी दो भागों में है पूर्वभाग तथा उत्तरभाग। इसके पूर्वभाग में पूर्वभाग में चार संहिताएँ हैं (1) माहेश्वरी संहिता, (2) भागवती संहिता, (3) सौरीसंहिता, (4) गाणेश्वरी संहिता। इनमें कुल 95 अध्यायों में 10000श्लोक हैं। इस पुराण का उत्तरभाग भी अनुपलब्ध है। सम्भवतः उपपुराणों का कोई पुराण इसका द्वितीय खण्ड हो। यह अध्ययन व विवेचन का विशय है।
(15) कूर्मपुराणः- यह पुराण चार संहिताओं में विभक्त है- (1) ब्राह्मीसंहिता, (2) भागवती संहिता, (3) सौरी संहिता, (4) वैष्णवी संहिता। तत्र साम्प्रत केवल ब्राह्मी संहिता ही उपलब्ध है। इसके पुनः दो भाग हैं (1) पूर्वार्द्धम, (2) उत्तरार्द्धम्। पूर्वाद्ध्र में 53 अध्याय तथा उत्तरार्द्ध में 46 अध्याय हैं इस प्रकार संकल रूप से 99 अध्याय तथा 18000 ष्लोक हैं।
(16) मत्स्यपुराणः- यह पुराण 290 अध्यायों में विभक्त है। इसमें कुल 14000 श्लोक हैं। नारद के अनुसार 15000 श्लोक का परिमाण कहा गया है।
(17) गरुडपुराणः- गरुडपुराण दो खण्ड में विभाजित है पूर्वखण्ड, उत्तरखण्ड। इसमें उत्तर खण्ड को प्रेतकल्प कहते हैं। जिसमें शरीरत्याग के उपरान्त आत्मा की गति के बारे में वर्णन प्राप्त होता है। इसके प्रथम में भाग में 240 तथा उत्तरखण्ड में 78 अध्याया हैं सकल रूप से 328 अध्यायों तथा 18000 श्लोकों में उपनिबद्ध है।
(18) ब्रह्माण्डपुराणः- यह पुराण चार पादों में विभक्त है। (1) प्रक्रियापाद, (2) अनुशंदपाद, (3) उपोद्धातपाद, (4) उपसंहारपाद। इसके प्रथम दो पाद को पूर्वभाग कहा गया है तथा तृतीय को मध्यभाग व चतुर्थ पाद को उत्तरभाग कहा जाता है। इसमें कुल 161 अध्याय तथा 12000 श्लोक हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार इसमें 12200 श्लोक हैं।
क्रमश: