डॉ.मदनमोहन पाठक (धर्मज्ञ)- महाकवि शिरोमणि श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी की अदभुत दक्षता व काव्य प्रतिभा का वर्णन अतुलनीय है। यह ग्रन्थ एक व्यक्ति विशेष की मन की सत्य उत्पत्ति है तुलसी ने निश्चय ही शांत चित होकर इसकी रचना की होगी किन्तु यदि इसकी कुछ बातों पर ध्यान दें तो आप को भी यह महसूस होगा की यह एक साधारण रचना नहीं है । रामचरित मानस में प्रयुक्त एक शब्द "मंगल" यह प्रत्येक अवस्था में मंगलमय स्थिति को दर्शाता है किन्तु कभी आपने सोंचा है की यह शब्द पूरी रामायण मे कितनी बार प्रयोग हुआ है और कहाँ - कहाँ हुआ है "मंगल" शब्द १७७ बार प्रयोग हुआ है । बालकाण्ड में १०० बार, अयोध्याकाण्ड में ६७ बार, अरण्यकाण्ड में ०० अर्थात बिल्कुल नहीं , किष्किन्धाकाण्ड में ०१ बार , सुन्दरकाण्ड में ०३ बार, लंकाकाण्ड में ०० अर्थात बिल्कुल नहीं और उत्तरकाण्ड में ०६ बार "मंगल" शब्द को प्रयोग करने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि दोहा या चौपाई के मध्य में लाइन कि सुन्दरता को बढ़ने के लिए कवि ने इसका प्रयोग किया है या कि अत्यधिक भावविभोर होकर जबतब इसका प्रयोग करता चला गया , लेकिन यह भी नहीं है इसके प्रत्येक प्रयोग का किसी न किसी रूप में इसकी विस्वसनीयता को और भी सार्थक रूप प्रदान करता है जहाँ पर भी "मंगल" शब्द का प्रयोग किया गया है वहां पर प्रत्यच्छ अथवा अप्रत्यच्छ राम सीता का ही वर्णन है। बालकाण्ड के दोहा १ से लेकर ४२ तक २२ बार "मंगल" है लेकिन दोहा ४३ से ६६ के बीच में "मंगल" बिलकुल ही प्रयोग नहीं किया गया है ऐसा क्यों ? क्यों कि इस भाग में सती मोह से से लेकर सती देह परित्याग की कथा आती है इस लिए यहाँ पर "मंगल" होना संभव नहीं है इसी प्रकार राम विवाह में मंगल का प्रयोग दिल खोल कर किया गया है बालकाण्ड - इसमें रावण आदि के अवतार , तपस्या , दुर्लभ वरप्रप्ति इत्यादि में तो "मंगल" नहीं पर रावण विवाह अवं कुम्भकर्ण ,बिभीषण विवाह इत्यादि में भी "मंगल" नहीं है सायद रावण के भय से नहीं आया होगा ! विस्वामित्र के साथ वन में पड़ने से 'अमंगलहारी ' चरित्र का प्रारम्भ जो हुआ वह अहिल्यौद्धार तक चला है बाद में मंगलभवन चरित्र का प्रारम्भ होता है ! अमंगल का नाश हुए बिना "मंगल" नहीं होता ! धनुर्भंग होकर जयमाला - समर्पण तक "मंगल" मानो बड़े शान से बार बार इधर उधर धूम रहा है ! बाद में दुष्ट राजाओं की असभ्यता और उनके चढ़ाये हुए कवच आदि देख कार मानो वह चौक गया और मंडप से भाग गया; यह फुस फूसी डींग,शेखी, व्यर्थ ही ठहरेगी और बाद में "मंगल" वेष धारण करके जा सकूँ इस लिए कहीं छिप कर बैठा था। परसुरामजी को आता देख उसकी बोलती ही बंद हो गई चिंतित हो कर दूर खड़ा हो गया जब परसुरामजी धनुष बाण रहित , निस्तेज से हुए , तपस्या के लिए जाते हुए उसने देखा तब निडर हुआ ! दोहा २८६ में "मंगल" निडर होकर आ गया और उत्तरोत्तर तक बरकती होती चली गई वह बिलकुल बालकाण्ड समाप्ति तक ! पहले ४२ दोहा में २२ बार , ४३ दोहा से २८५ तक सिर्फ १५ बार ही "मंगल" है लेकिन दोहा २८६ से ३६९ तक ७६ दोहा में ३६ बार है अचानक बहुत बरकत हुई या नहीं ? अयोध्याकाण्ड - इसमें भी जब तक कैकेई राम प्रेमी थी तबतक "मंगल" शब्द १८ बार प्रयोग किया गया , वनवास वार्ता फैलनेतक ०७ बार , राम चित्रकूट में निवास करने तक ०८ बार , राम सन्देश में ०१ बार और पादुका लेकर वापस अयोध्या आने तथा अयोध्या काण्ड समाप्ति तक ३३ बार "मंगल" का प्रयोग हुआ है! अरण्यकाण्ड - "मंगल" का नाम भी नहीं है इस काण्ड में "मंगल" शब्द क्यों नहीं ? जहाँ पर अमंगलकारी शूर्पनखा,खरदूषण, आदि हजारो निसाचर जहाँ पर हों वहां पर "मंगल" होना संभव नहीं था ! किष्किन्धाकाण्ड- इसमें सिर्फ एक बार "मंगल" है जैसा कि रावण सखा अमंगलकारी जीवित था तबतक इस काण्ड में "मंगल" नहीं था सुग्रीव का पूरा कल्याण हुआ और बाद में वन "मंगल" रूप बना पर सीता शोध न लगने से रघुनाथ विरहातुर हुए हैं इसलिए वह "मंगल" दायक नहीं हुआ ! सुन्दरकाण्ड - इसमें तीन बार "मंगल" है इस काण्ड में पूर्वार्धका सम्बन्ध लंका से होने और सीता - शोध - समाचार रघुनाथ को न मिलने से पूर्वार्ध में "मंगल" नहीं है दोहा ३७ में रावण ने पुरे जीवनकाल में एकबार ही मंगल का उच्चार किया है ! रघुवीर सेनासहित धरतीपर उतरने का समाचार मंदोदरी को मिलने पर उसने जो प्रथम उपदेश दिया वह सुनने पर रावण उससे कहता है कि 'सभय सुभाउ नारि कर साचा ! मंगल महुँ भय मन अति काचा !! रामप्रभु मर्म के बाणों से मरण आने पर अपना "मंगल" ही होनेवाला है ऐसा विश्वाश उसे हो गया लेकिन मंदोदरी मर्म नहीं समझ सकी ! सेतुबंधन की युक्ति दोहा ६० के अंत में ज्ञात हुई ; तब रावण का वध होकर सीता प्राप्ति होकर जन "मंगल" होगा यह निश्चित हुआ इसलिए उपसंघार में में इक बार "मंगल" है ! लंकाकाण्ड - इसमें "मंगल" अपवाद रूप में भी नहीं है लंका अमंगलों का मजबूत स्थान होने, रावण वडग से 'अमंगलहारी' यह सुब होने तक "मंगल" होना असंभव ही था रावण वध होकर विभीषण , रामभक्त लंकाधीश बना तो भी अमंगल कि खानि सूर्पनखा, तथा अन्य सुब शूर्पनखा, तहत अन्य राक्षसों की स्त्रियाँ जीवित थीं और युद्ध में जो भाग गए थे वह राच्छस भी थे इस लिए बाद में "मंगल" नहीं और रघुनाथ को भारत भेंट की चिंता लगी थी इसलिए भी "मंगल" नहीं ! उत्तरकाण्ड - इसमें ६ बार "मंगल" है और वह भी बहुत दबा हुआ ! दसरथ जी का स्वर्गवास होने से सुब रानियाँ विधवा हो गई थीं इसलिए मंगलोत्सव करने के लिए उत्साह कहाँ था ? दसरथ जी की अनुपस्थिति माताओं का जो अमंगल हुआ था वह दूर करना नरचरित्र की के लिए असंभव था इसलिए अंत तक "मंगल" नहीं ! इसलिए महाकवि श्री गोस्वामी तुलसी दास जी की अदभुत प्रतिभा की प्रसंसा करने को जी चाहता है ! * मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा॥ कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं॥ भावार्थ:-जो कपट छोड़कर यह कथा गाते हैं, वे मनुष्य अपनी मनःकामना की सिद्धि पा लेते हैं, जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन (प्रशंसा) करते हैं, वे संसार रूपी समुद्र को गो के खुर से बने हुए गड्ढे की भाँति पार कर जाते हैं॥
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