शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ
mystic power -" ऋषि " शब्द की व्युत्पत्ति ऋषि गतौ धातु से मानी जाती है और गति को सामान्य गमन के अर्थ में न लेकर विशिष्ट गति या ज्ञान के अर्थ में लिया जाता है।
ऋषति प्राप्नोति सर्वान् मंत्रान्, ज्ञानेन पश्यति संसारपारं वा। ऋष् + इगुपधात् कित् ( 4/119) इति उणादिसूत्रेण इन् किच्च। इस व्युत्पत्ति का अनेकत्र संकेत भी है। ब्रह्माण्ड पुराण में -
"गत्यर्थादृषतेर्धातोर्नाम निर्वृत्तिरादित:।
यस्मादेव स्वयंभूतस्तस्माच्चाप्यृषिता स्मृता
वायु पुराण (59/79) में इस शब्द के अनेक अर्थ हैं :
ऋषीत्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्मणा स ऋषि: स्मृत:।।
यानी ऋषी धातु के चार अर्थ होते हैं--गति, श्रुति, सत्य और तपस्। ब्रह्मा के द्वारा जिस व्यक्ति में ये चारों चीजें नियत कर दी गईं, वही ऋषि है। मत्स्य पुराण भी यही कहता है।
दुर्गाचार्य की निरुक्ति है-- ऋषिर्दर्शनात् ( नि. 2/11)इस निरुक्ति से " ऋषि" का व्युत्पत्तिप्राप्त अर्थ हुआ-- दर्शन करने वाला, तत्त्वों की साक्षात् अ-परोक्ष अनुभूति करने वाला विशिष्ट व्यक्ति। यास्क भी कहते हैं --" साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवु:"--यह निरुक्ति से फलित अर्थ है। दुर्गाचार्य के अनुसार किसी मंत्रविशेष की सहायता से किये जाने पर किसी कर्म से किस प्रकार का फल परिणत होता है, इस तथ्य का ऋषि को पूर्ण ज्ञान होता है।
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तैत्तिरीय आरण्यक ऋषि शब्द की व्याख्या करते हुए कहता है--" अजान् ह वै पृश्नीस्तप्यमानान् ब्रह्म स्वयंभ्वभ्यानार्षात ऋषयोऽभवन्, तद् ऋषीणामृषित्वम्" ( 2प्रपाठक, 9अनुवाक) यानी सृष्टि के आरंभ में तपस्या करने वाले अयोनिजात व्यक्तियों के पास स्वयंभू ब्रह्म--वेद ब्रह्म-- स्वयं प्राप्त हो गया ( आनर्ष)। वेद की इस स्वत: प्राप्ति के कारण--स्वयमेव आविर्भूत होने के कारण ही " ऋषि" का ' ऋषित्व ' है।अपौरुषेय वेद ऋषियों के माध्यम से ही विश्व में प्रकट हुआ, उन्होंने ही वेद के वर्णमय कलेवर को अपने दिव्य श्रोत्र से श्रवण किया, इसीलिए उसे " श्रुति " कहते हैं। ' उत्तर रामचरित' में भवभूति उचित ही कहते हैं कि " ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति" ( प्रथम अंक)--आद्य ऋषियों की वाणी के पीछे अर्थ दौड़ता फिरता है, वे अर्थ के पीछे कभी नहीं दौड़ते।
विष्णु पुराण के अनुसार हर मन्वन्तर में सप्तर्षियों के नाम बदल जाते हैं, वे भिन्न-भिन्न हो जाते हैं।
" रत्नकोष" में बतलाया गया है कि ऋषियों के 7 भेद हैं :
" सप्त ब्रह्मर्षि देवर्षि महर्षि परमर्षय:।
काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावरा:।।"
यानी ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि,परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि तथा राजर्षि--इनमें क्रम से अवर ( घटकर) होते हैं।
मत्स्य पुराण में ऋषियों की 5 जातियों का ही उल्लेख है। इन विशिष्ट नामों की निरुक्ति भी पुराणों में की गई है। इस सन्दर्भ में विष्णुपुराण ( अंश-3),मार्कण्डेय पुराण (67/4), हरिवंश पुराण (अध्याय7) द्रष्टव्य हैं।
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मनुते जानाति य: स मुनि:। मन् धातो: 'मनेरुच्च' ( उणादि सूत्र 4/122) इन् प्रत्यय:। अकारस्य उच्चेति मुनि:।
" शंख स्मृति" ( 7/6) का कथन है: " शून्यागारनिकेत: स्याद् यत्र सायंगृहो मुनि:।" जो शून्यागार में निवास करता और चलते-चलते जहाँ सायंकाल हो जाये वहीं टिक जाये, वही मुनि है। मुनि 'सायंगृह' है। महाभारत भी इसकी सम्पुष्टि करता है। मुनि का साक्षात् सम्बन्ध तीव्र तपश्चरण तथा क्षमाशीलता से है।महाभारत के वनपर्व के अध्याय 12 में मुनि के स्वरूप का विस्तार से निरूपण है। गीता के अनुसार :
" दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।"
दु:खों से जो उद्विग्न न हो,सुखों में जिसकी स्पृहा न हो, राग, भय तथा क्रोध से जो मुक्त हो, ऐसे स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति को मुनि कहते हैं।
कुछ लोगों के अनुसार वैदिक युग में विचार की दो धाराएँ थीं-वेदों की धारा और पुराणों की धारा । यज्ञ धारा यज्ञ को महत्त्व देती थी जिसमें विशिष्ट देवताओं को लक्ष्य कर हवि अर्पित करने की विधि पर बल था। पुराणधारा का लक्ष्य था लोकवृत्त का अनुशीलन और समीक्षण कर विपुल विवरण देना। किन्तु यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि ये दोनों धाराएँ एक दूसरे की विरोधी नहीं थीं, बल्कि मित्र, सहयोगी और पूरक थीं। मार्कण्डेय पुराण के अध्याय 45 में कथन है :
" उत्पन्नमात्रस्य पुरा ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मन:।
पुराणमेतद् वेदाश्च
मुखेभ्योऽनुविनि:सृता।।
वेदान् सप्तर्षयस्तस्मात्
जगृहुस्तस्य मानसा:।
पुराणं जगृहुश्चाद्या
मुनयस्तस्य मानसा:।।"
स्पष्ट है कि प्राचीन काल में ऋषिधारा और मुनिधारा प्राय: भिन्न थी। ऋषियों ने वेद को ग्रहण किया और मुनियों ने पुराण को। यही नहीं, मार्कण्डेय पुराण वेद के उद्भव को परवर्ती मानता है और पुराण के उद्भव को पूर्ववर्ती। इस बात की पुष्टि शंकराचार्य की एक उक्ति से भी होती है जिसे वे ' सनत्सुजातीय भाष्य ' में प्रस्तुत करते हैं । ' सनत्सुजातीय के द्वितीय अध्याय श्लोक 12 में ब्रह्म को विश्व से विलक्षण तथा विपरीत कहा गया है: " निर्दिश्य सम्यक् प्रवदन्ति वेदा: तद् विश्ववैरूप्यमुदाहरन्ति।" इसके भाष्य में आचार्य शंकर उपनिषदों से प्रचुर उदाहरण देकर ब्रह्म और विश्व की विलक्षणता प्रतिपादित करते हुए पुराण के प्रमाण का निर्देश करते हैं :
" न केवलं वेदा, अपि तु मुनयोऽपि तद् ब्रह्म विश्ववैरूप्यं विश्वरूपविपरीतस्वरूपमुदाहरन्ति।"
स्पष्टत: वे भी वेद तथा पुराणकार मुनियों के वचन को दो प्रकार का मानते हैं।
गौतम के न्यायसूत्रों पर अपने न्यायभाष्य में वात्स्यायन लोकवृत्त को ही इतिहास-पुराण का विषय स्वीकार करते हैं :
" लोकवृत्तमितिहासपुराणस्यविषय:।"
परन्तु यह बात विशेष रूप से ध्यान रखने की है कि वेद और पुराण की---ऋषि और मुनि की धाराएँ भिन्न प्रकृतियों के बावजूद परस्पर विच्छिन्न और प्रतिस्पर्धी नहीं हैं, संबद्ध और पूरक है।
भृ.न.त्रि.
27.09.18
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