श्री अनिल गोविन्द बोकील
(नाथसंप्रदाय मे पूर्णाभिषिक्त और तंत्र मार्ग मे काली कुल मे पूर्णाभिषिक्त के बाद साम्राज्याभिषिक्त।)-
Mystic Power-बहुत लोगो का प्रश्न यही होता है कि ; हम इतना इतना करते है ; फिर भी हमे अपयश का सामना क्यों करना पडता है ?
या - अगर आपके कोई गुरू हो ; तो उन्हे ये लोग खडा ( ? ) सवाल करते है कि ; -- " आप से दीक्षा लेने के बावजूद भी हमारी समस्याओ का अंत क्यों नहीं हो रहा है ?
क्या इन लोगो को गुरू याने समस्यांए हल करनेवाली एकाध संस्था प्रतीत होती है ?
इन लोगो की सरल सरल धारणा यही रहती है कि ; आपकी सभी बातो का या समस्याओ का दायित्व गुरू ने ही लेना चाहिये ? यहां एक बात अवश्य ध्यान मे लेनी होगी कि ; अन्योपर निर्धारित रहनेकीं ऐसी मानसिकता जबतक आप मे है ; तबतक आपकी समस्याए कदापि हल नहीं होनेवाली । उद्धरेदात्मनात्मानम " यह गीता-वचन ध्यान मे रखना ही होगा हम सभी को ।
गुरू आपकी उन्नतीका तथा आप स्वयंभू बने इसका दायित्व अवश्य लेते है । गुरु का तात्पर्य आपकी समस्यांए हल होने का एक माध्यम ऐसा कदापि नहीं है ।
स्व-प्रयत्न ; साधना खुद को ही करनी होती है । इसे पर्याय नहीं होता कभी । ठीक यही वास्तव ध्यान मे न लेने की वजह से अन्य धर्मीयो को ; आपको ; उनकी चुंगल मे फसाने का मौका मिलता रहता है । फिर ? हमारा येशू इन सब से आपको मुक्त करेगा ; या हमारा अल्लाह दयालू है ; ऐसा उपदेशात्मक बोलते बोलते ; आपको उनका धर्म स्वीकारने को कहा जाता है । और आप वैसा स्वीकार करते भी है । ठीक है ; फिर भी आपकी समस्याए ज्यो कि त्यो क्यों रहती है ? फिर भी क्यों आते है आप ; उनके बहकावे मे ? उनकी लंबी चौडी बातो मे ? है क्या उनके धर्म मे कोई समस्या-मुक्ती का कोई मार्ग? बिलकुल नही । पर हमारे हिंदू धर्ममे इसके लिए काफी उपाय बताये गये है । कौन देखेगा ? इसी परिप्रेक्ष मे अब हम लोग कुछ जानकारी लेने जा रहे है ।
अब देखेगे कि हमारी समस्याओका अंत क्यों नहीं होता ? समस्या-काल मे हम करते क्या है ? भगवान से एक तरह का करार ( Contract ) करते है कि -- ऐसा ऐसा हो जाय तो मै यह करुंगा । एक सामान्य-सा उदाहरण देखे । अगर आप कहते है कि ; मुझे दो करोड रुपये मिल जाए तो ; मै मंदिर को इतना इतना दान मे दे दूगा । अब देखिये ; दो करोड हमे बहुत लगते है ; और मनमे शंका होने लगती है कि -- सचमुच मुझे इतनी राशी मिलेगी ? बस्स !! आ गया विकल्प मनमे !! और हुआ क्या ? आपका संकल्प मूल ( Root ) ही नहीं पकड पाया । इसीलिए जब भी आप ; विकल्प-रहित विश्वास से कुछ करेंगे ; तभी आपके संकल्प की सिद्धी होगी ।
अब " संकल्प " इस विषयपर काफी कुछ पढने को मिलता है हमे । सभी का सार एकही दिखेगा -- सौदा ; कॉन्ट्रॅक्ट !!! °•°•°• और यही तो अध्यात्म मे नहीं चलता । फिर संकल्प कैसा करे हम लोग ? संकल्प करे -- पूरे हक के साथ ; प्रेमपूर्वक !! और इस विषय मे कुछ लोगो को प्रत्यक्ष ही समझा दिया गया भी है।
एक सामान्य व्यावहारिक उदाहरण देखे अब । कोई लडका पिताजी को सौ रुपये मांगता है । पिताजी दे भी देते है । कुछ दिनो बाद अगर फिरसे वह लडका बोले कि -- मुझे दो लाख रुपये चाहिये । तो ? पिताजी क्या कहेंगे ? यही ना ? -- कि ; पहले दिये हुए सौ रुपये कैसे विनियोग किये यह बताओ ; फिर दो लाख ही क्या -- सबकुछ तुम्हारा ही तो है । °•°• अब जरा सोंचे कि ; आप भगवान के समक्ष खडे है -- कुछ मांग रहे है ; और अगर वह आपसे पूछे कि ; मैने तुम्हे पहले से जो दिया है ; याने कि -- इंद्रिय-मन-बुद्धी -- उसका उपयोग तुमने आजतक कैसे किया -- यह बताओ ; फिर सबकुछ तुम्हारा ही तो है । है कोई उत्तर आपके पास ? इसपर अधिक स्पष्टीकरण नहीं देता मै । अब आगे चलते है .......
गुरू हमे बताते है कि ; मन्त्र ; दैवत और आप स्वयं --- सभी मे ऐक्यभाव रखकर जो भी करना ( जप /पाठ आदि ) है करो । हम लोग सुरू मे वैसा भाव रखते भी है ; पर विकल्प की वजह से वह टिकता नहीं । जब भी इष्ट दैवत के साथ आपका स्पर्श होता है ( स्पर्श होना याने संबंध जुडना ) ; तब अप्राप्य कुछ भी नहीं रहता । होता ये है कि हम ही खुद के लिए विकल्पो की दीवारे खडी करते रहते है । और अपना अंतरात्मा तथा अन्यो का /इच्छित बातो का स्पर्श होने ही नहीं देते ।
अगर हम ; किसी भी प्रकारसे परस्पर संबंधोके अंतर्गत निसर्गतः होनेवाली संवेदनशीलता प्राप्त कर सके ; तो संकल्प-सिद्धी का हमारा मार्ग निश्चय ही खुल जाएगा -- यह बात सामान्य तर्क से भी जानी जा सकती है ।
इसी बात को समझने के लिए एक बहुत ही सरल सामान्य उदाहरण देखते है अब ।
आप जब गहरी नींद मे होते है ; तब आपकी उंगलीयां आपकी आंखो मे घुसती है ? नहीं ना ? या आपके दांत आपकी जिव्हा को कभी कांटते है ? नहीं । क्यों होता है ऐसा ? क्योंकि -- हमारी सभी इंद्रियो को यह एहसास रहता है कि ; हम सब एक ही देह के हिस्सा है ।
अब और एक उदाहरण देखे । आप रास्ते से जा रहे है । आपको ठेंस लगती है । क्या होता है उस वक्त ? मुह से " अरे बाप रे ! " ऐसे उद्गार निकलते है ; आंखो से अश्रू आते है ; गिरते गिरते हाथ सहारा ढुंढते है --- आदि आदि । मतलब ; आँखें ; हाथ ; पैर ; मूह -- सभी की प्रतिक्रिया एकसाथ होने लगती है -- और वह भी बिना कुछ विचार किये । बराबर ? क्या यही एकात्मता नहीं ? अब जरा सोंचे ; हमारे इष्ट दैवत के साथ या कार्य के साथ होती है हमारी एकात्मता कभी इस तरह ? नहीं होती ना ? यह इसलिए कि -- भय ; विकल्प ; हमारे षड्रिपु आदि के प्रभाव से हम दिगभ्रमित होते रहते है ।
अब इसपर क्या करना होगा हमे ? कुछ मार्ग या उपाय है इसके लिए ? है । उपाय यही होगा कि ; अभी के दो उदाहरणो के अनुसार ; हम अपने इष्ट के साथ ऐक्य ( तात्विक परिभाषा मे अद्वैत ) विकसित करने के प्रयास करे । इसी हेतु तो हमारी संस्कृति मे ; विविध शास्त्र ; वेद ; श्रीभगवद्गीता -- आदि की प्रस्तुति हुई है ना ? हम इसी का अध्ययन और आचरण करेंगे ।
इस के लिए हमारे ऋषि-मुनीयो ने काफी मार्गदर्शन करके रखा ही है । उसीपर हम केंद्रित हो जाएंगे । अगर हम ऐसा करें तो ; हमे भी विश्वास हो जाएगा कि ; हम सबकुछ कर सकते है । और हमारे लिए इस जगत मे एक भी चमत्कार नहीं रहेगा । होंगे सिर्फ वैज्ञानिक सत्य !!
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