डॉ. दिलीप कुमार नाथाणी विद्यावाचस्पति-
mystic power-शबरी माता का प्रसंग रामायण में अत्यन्त ही उच्च कोटि का भक्ति का प्रसंग है। वह एक ही प्रसंग मानो रामायण के सम्पूर्ण फल का प्रमाण है। ऐसे में सम्पूर्ण रामायण का अध्ययन एवं फल कितना महान् होगा यह अकल्पनीय है। ऐसे में केवल भगवदाश्रय ही मार्ग शेष है।
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माता शबरी का प्रसंगेतिहास केवल मात्र भक्ति ही नहीं वरन् गुरु आदेश के महत्त्व को भी बताता है। माता शबरी को उनके गुरु आदरणीय ऋषि मतंग ने जब यह कह दिया कि राम यहाँ इस आश्रम में आएँगे तो बस उन्होंने गुरु के वचनों पर शंका नहीं की वरन् प्रतिदिन इस भाव से कि कदाचित् आज ही आ जाए, सदैव सज्ज रहीं। उनके गुरु ने दिन नहीं बताया था ऐसे में भी गुरु के वाक्य को मिथ्या नहीं मानना तथा दीर्घकाल पर्यन्त भगवान् राम की प्रतीक्षा करना आदि कई दिव्यातिदिव्य भावों को उन्होंने जीवन्त किया।
माता शबरी के जीवन को देखा जाय तो हमें केवल यही ज्ञात है कि एक साधारण भीलनी ने भगवान् को प्राप्त किया। परन्तु उनकी तपस्या को देखा जाय तो किसी साधारण व्यक्ति के लिये भगवान् का आना सम्भव नहीं है। अत: यह प्रमाणित हुआ कि माता शबरी अत्यन्त ही उच्च कोटि की साधिका, भक्त, गुरु वचनानुसार जीवन जीने वाली थीं।
जब ऋषि मतंग अपने सभी शिष्यों के साथ दिव्यलोकों के लिये प्रस्थान करने लगे तो केवल इन्हें ही यह दायित्व दिया कि वे भगवान् राम के लिये यहाँ आश्रम में प्रतीक्षा करें। अस्तु ऋषि के मन में यह स्पष्ट था कि केवल और केवल माता शबरी ही अपने गुरु के वचनों पर खरी उतर सकती हैं। अत: राम के आश्रम में आने पर उनका स्वागत अभिवादन करने योग्य केवल माता शबरी ही उपयुक्त व्यक्तित्व है।अपने गुरु के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुये माता शबरी ने अपने गुरु से कोई तर्क नहीं किया कि वे उन्हें उस आश्रम में एकाकी छोड़ कर नहीं जाय वरन् अपने साथ ले जाय। ऐसे में प्रत्यक्ष दिखने वाले दिव्य लोकों के लोभ का त्याग करके अपने गुरु के वचनों पर विश्वास का परिणाम यह हुआ कि माता शबरी ने साक्षात् परब्रह्म का साक्षात्कार किया। ऐसे में यह स्पष्ट प्रमाण हुआ कि माता शबरी ने साकारोपासना का प्रतीमान उपस्थापित किया।
वस्तुत: भगवदोपासना साकार व निराकार दो रूपों में श्रुतिसम्मत है। उसमें साकारोपासना सरल एवं तत्काल परिणामदायिनी है। अस्तु साकारोपासक का वैशिष्ट्य यह है कि वह अपनी उपासना में लीन रहता है। वर्तमान कलियुग में साकारोपासना ही सफल है। वर्तमान में *यत्रतत्र जहाँ जहाँ भी निराकारोपासक दिखाई देते हैं वे अपनी उपासना की अपेक्षा साकारोपासना की बहुत ही बुरे शब्दों में बुराई करने में ही ध्यान देते हैं। उनका साहित्य केवल साकारोपासना की बुराई से भरे हुए हैं।
अस्तु यह स्पष्ट है कि साकारोपासना ही मनुष्य को मोक्ष देने वाली है। निराकारोपासना के अनुयायी तो बहुधा मोक्ष को मानते ही नहीं हैं। क्योंकि उनकी दृष्टि में आत्मा, परमात्मा तथा प्रकृति तीनों ही अनादि हैं।
इसके विपरीत जो परम्परा परमात्मा को ही सर्वश्रेष्ठ, सच्चिदानन्दघन मानता है उसके लिये ही मोक्ष होता है। होना भी उसी के लिये ही चाहिये क्योंकि वह अन्य मार्ग की आलोचना नहीं करता। माता शबरी ने यह ही स्थापित किया।
गुरु के वचनों को माता शबरी ने दो रूपें में ग्रहण किया। प्रथम वचनानुसार भगवान् की प्रतीक्षा की तथा परब्रह्म का इस शरीर से साक्षात्कार किया। पुन: उन्हीं परब्रह्म से नवधा भक्ति का उपदेश भी प्राप्त किया—
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।।
आठवँ जथालाभ संतोषां सपनेहुँ नहि देखई परदोषा।।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना।।
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सराचर कोई।।(रामचरितमानस, अरण्यकाण्ड, दोहा 34, चौपाई—4 से दोहा—35 चौपाई 1—4)
रामचरित मानस के इन दोहों एवं चोपाइयों में वेद के सार को गोसाई जी महाराज ने पिरो दिया है। अत: रामचरितमानस ही कलिकाल में 'वेद है! वेद है! वेद है!-
माता शबरी ने साकारोपासना को स्थापित किया है। मूर्ति पूजा ही कलियुग में मोक्षदायक है। जो इसे नहीं मानता वह स्वतन्त्र है।
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