योगी गुरु परमहंस देव- mystic power - योग शिक्षा करने से पहले अपने शरीर के संबंध में जानकारी होनी चाहिये। शरीर और प्राण, इन दोनों बातों के पूरे तत्त्व्से अवगत नहीं होने से योग साधना विड़म्बना मात्र है। इसलिए योगी बनने से पहले या उसके साथ-साथ उसकी जानकारी होनी चाहिए। क्योंकि काया (शरीर) और प्राणों के बीच आपस में कया संबंध है, वह नहीं जानने से प्राणों को संयत नहीं किया जा सकता और शरीर को निरोग नहीं रखा जा सकता और प्राणों का किस नाड़ी में किस तरह संचरण होता है, किस प्रकार प्राण का अपान के साथ सयोंग किया जाता है, उसका भी पता नहीं चलता। अतः. योग साधना भी नहीं होती। शास्त्र में बताया गया है। नवचक्र षोड़शाधारं त्रिलक्ष्यं व्योमपंचकम, स्वदेहे जो न जानन्ति क्यं सिध्यन्ति योगिनं:। -उत्पत्तितंत्र जिस व्यक्ति को अपने शरीर के नवचक्र, षोड़शाधार, त्रिलक्ष्य और पंचाकाश की जानकारी नहीं है, उसकी सिद्धि कैसे होगी? किसी भी साधना के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब शरीर में मौजूद है। त्रिलोक्य यानि भूतानि तानि सर्वाणि देहतः। मेरु संवेष्ट्रय सर्वत्र व्यवहारः प्रवर्त्तते। -शिवसंहिता 'भूट, भूवः स्वःः-इन त्रिलोक में जितने तरह के जीव हैं, वह सब इस शरीर के भीतर हैं। वे सभी मेरु को घेर कर अपने अपने कार्य को सपन्न कर रहे हैं। ““देहेजस्म्नि वर्त्तते मेरुः सप्तद्वीपसमन्वितः। सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालका॥ ऋषयो मुनयः सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तवा। पुष्यतीर्यानि पीठानि वर्त्तन््ते पीठदेवता:॥ सृष्टिसंहारकत्तरि भ्रमन््तो शशिभास्करौ। नभो वायुश्च वहिनश्च जलं पृथ्वी तवैव च।?”? -शिवसंहिता जीव के शरीर में सप्तद्वीप के साथ सुमेरु पर्वत रहता है। इसमें समूचे नद, नदियाँ, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र और क्षेत्रापाल भी रहते हैं। ऋषि-मुनि,ग्रह-नक्षत्र, समस्त पुण्यतीर्थ, पुण्यपीठ और पीठदेवता इस शरीर के भीतर नित्य रहते हैं। सृष्टि के संहार करने वाले चन्द्र और सूर्य इस शरीर के भीतर निरन्तर भ्रमण कर रहे हैं। फिर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि पंच महाभूत भी इस शरीर के भीतर अधिष्ठित हैं। “'जानाति यः सर्वमिदं स योगी नात्र संशयः”? -शिवसंहिता जो शरीर की इन सभी बातों से अवगत है, वही यथार्थ योगी है। इसलिए सर्वप्रथम शरीर तत्त्व को जानना चाहिए। प्रत्येक जीव का शरीर शुक्र, शोणित, मज्जा, मेद, मांस, अस्ति और त्वक-इन सप्तधतुओं द्वारा निर्मित है। मृदा, वायु, अग्नि, जल और आकाश, इस पंचभूत से शरीर निर्माण के लिए समर्थ सप्तधातु और भूख,प्यास आदि शरीर के धर्म उत्पन्न हुए है। पंचभूत से उत्पन्न होने के कारण इस शरीर को भौतिक शरीर कहते हैं। भौतिक शरीर निर्जीव और जड़-स्वभाव युक्त है, परन्तु चैतन्य रूपी पुरुष का आवास स्थान होने के कारण यह सचेतन जैसा प्रतीत होता है। शरीर के भीतर पंचभूत में से प्रत्येक के अधिष्ठान के लिए पृथक-पृथक स्थान है। इन स्थानों को चक्र कहते हैं। वे अपने-अपने चक्र में रहते हुए शरीर के समस्त कार्यों का निर्वाह करते हैं। गुहय क्षेत्र में जो मूलाधार चक्र है, वह पृथ्वी तत्त्व का स्थान है। लिंगमूल में जो स्वाधिष्ठान चक्र है, वह जल तत्त्व का स्थान है। नाभिमूल में मणिपुर चक्र है, जो अग्नि तत्त्व का स्थान है। हृदय क्षेत्र में अनाहत चक्र वायुतत्त्व का स्थान है। कठ क्षेत्र में विशुद्ध चक्र आकाश तत्त्व का स्थान है। योगीजन इन पांच चक्रों में पृथ्वी आदि के क्रम से पंचमहाभूत का ध्यान करते हैं। इसके अतिरिक्त ध्यान योग्य और भी कुछ चक्र हैं। ललार क्षेत्र में आज्ञा नामक चक्र में पंचतन्मात्र तत्त्व, इन्द्रियतत्त्व, चित्त और मन का स्थान है। उसके ऊपर ज्ञान नामक चक्र में अहंतत्त्व का स्थान है। उसके ऊपर ब्रहम रंध्र में एक शतदल चक्र है, जिसके भीतर मह तत्त्व का स्थान है। उसके ऊर्ध्व में महाशून्य में सहख्नदल चक्र में प्रकृति-पुरुषपरमात्मा का स्थान है। योगीजन इस भौतिक शरीर में पृथ्वी तत्त्व से लेकर परमात्मा तक समस्त तत्त्वों का चिंतन करते हैं। योगीगुरु पुस्तक से साभारः
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