श्री अनिल गोविन्द बोकील
नाथ संप्रदाय में पूर्णाभिषिक्त और तंत्र मार्ग में काली कुल में साम्राज्यभिषिक्त।
Mystic Power - दूसरे चरित्र में सतोगुण का पुंजीभूत दिव्य तेज ही तमोगुण के विनाश का साधन बनता है । महिषासुर वध के लिये विष्णु एवं शिव समुद्यत हुए | उनके मुखमण्डल से महान तेज निकलने लगा :
“ततोऽपिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वद्नात्तः।
निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च ।।”
और वह तेज था कैसा? “अतीव तेजसः कूटम् ज्वलन्तमिव पर्वतम् ।”
तत्पश्चात् अरूपिणी और मन बुद्धि से अगोचर साक्षात् ब्रह्मरूपा जगत् के कल्याण के लिये आविर्भूत हुईं । यह है शक्ति का अधिदैव स्वरूप ।
वैसे तो पाप और पुण्य की मीमांसा कोई सरल कार्य नहीं है । जैव दृष्टि से चाहे जो कार्य पाप समझा जाए, किन्तु मंगलमयी जगदम्बा की इच्छा से जो कार्य होता है वह समस्त जीव के कल्याणार्थ ही होता है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देवासुर संग्राम है । युद्ध प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया है । यह देवासुर संग्राम प्राकृतिक श्रृंखला के लिये इस चरित्र का आधिभौतिक स्वरूप है । सर्वशक्तिमयी के द्वारा क्षणमात्र में उनके भ्रूभंग मात्र से असुरों का नाश सम्भव था । लेकिन असुर भी यदि शक्ति उपासना करें तो उसका फल तो उन्हें मिलेगा ही ।
अतः महिषासुर को भी उसके ताप के प्रभाव के कारण स्वर्ग लोक में पहुँचाना आवश्यक था । इसीलिये उसको साधारण मृत्यु – दृष्टिपात मात्र से भस्म करना – न देकर रण में मृत्यु दी जिससे कि वह शस्त्र से पवित्र होकर उच्च लोक को प्राप्त हो । शत्रु के विषय में भी ऐसी बुद्धि सर्वशक्तिमयी की ही हो सकती है । युद्ध के मैदान में भी उसके चित्त में दया और निष्ठुरता दोनों साथ साथ विद्यमान हैं । इस दूसरे चरित्र में महासरस्वती, महाकाली और महालक्ष्मी की रजःप्रधान महिमा का वर्णन है । इस चरित्र में महाशक्ति के रजोगुणमय विलास का वर्णन है । महिषासुर का वध ब्रह्मशक्ति के रजोगुणमय ऐश्वर्य से किया । इसीलिये इस चरित्र की देवता रजोगुणयुक्त महालक्ष्मी हैं । इस चरित्र में तमोगुण को परास्त करने के लिये शुद्ध सत्व में रज का सम्बन्ध स्थापित किया गया है । पशुओं में महिष तमोगुण की प्रतिकृति है । तमोबहुल रज ऐसा भयंकर होता है कि उसे परास्त करने के लिये ब्रह्मशक्ति को रजोमयी ऐश्वर्य की सहायता लेनी पड़ी । तमोगुण रूपी महिषासुर को रजोगुण रूपी सिंह ने भगवती का वाहन बनकर (उसी सिंह पर शुद्ध सत्वमयी चिन्मयरूपधारिणी ब्रह्मशक्ति विराजमान थीं) अपने अधीन कर लिया ।
उत्तर चरित्र रहस्य
तृतीय चरित्र में रौद्री शक्ति का आविर्भाव कौशिकी और कालिका के रूप में हुआ । वस्तुतः सत् चित् और आनन्द इन तीनों में सत् से अस्ति, चित् से भाति, और आनन्द से प्रिय वैभव के द्वारा ही विश्व प्रपंच का विकास होता है । इस चरित्र में भगवती का लीलाक्षेत्र हिमालय और गंगातट है । सद्भाव ही हिमालय है और चित् स्वरूप का ज्ञान गंगाप्रवाह है । कौशिकी और कालिका पराविद्या और पराशक्ति हैं । शुम्भ निशुम्भ राग और द्वेष हैं । राग और द्वेष जनित अविद्या का विलय केवल पराशक्ति की पराविद्या के प्रभाव से ही होता है । इसीलिये शुम्भ और निशुम्भ रूपी राग और द्वेष महादेवी में विलय हो जाते हैं ।
राग द्वेष और धर्मनिवेशजनित वासना जल एवम् अस्वाभाविक संस्कारों का नाश हो जाने पर भी अविद्या और अस्मिता तो रह ही जाती है । यह अविद्या और अस्मिता शुम्भ और निशुम्भ का आध्यात्मस्वरूप है । देवी के इस तीसरे चरित्र का मुख्य उद्देश्य अस्मिता का नाश ही है । अस्मिता का बल इतना अधिक होता है कि जब ज्ञानी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करने लगता है तो सबसे पहले उसे यही भान होता है कि मैं ही ब्रह्म हूँ ।
उस समय विद्या के प्रभाव से “मैं” इस अस्मिता के लोकातीत भाव तक को नष्ट करना पड़ता है । तभी स्वस्वरूप का उदय हो पाता है । निशुम्भ के भीतर से दूसरे पुरुष का निकलना और देवी का उसे रोकना या इसी भाव का प्रकाशक है । निशुम्भ के साथ उस पुरुष तक को मार डालने से अस्मिता का नाश होता है । और तभी देवी के निशुम्भ वध की क्रिया सुसिद्ध होती है । यही शुम्भ निशुम्भ वध का गूढ़ रहस्य है । वास्तव में यह युद्ध विद्या और अविद्या का युद्ध है । इस तीसरे चरित्र में क्योंकि देवी की सत्वप्रधान लीला का वर्णन है । इसलिए इस चरित्र की देवता सत्वगुणयुक्त महासरस्वती बताई गई हैं । इस चरित्र के सत्वप्रधान होने के कारण ही इसमें भगवती की निर्लिप्तता के साथ साथ क्रियाशीलता भी अलौकिक रूप में प्रकट होती है ।
सूक्ष्म जगत् और स्थूल जगत् दोनों ही में ब्रह्मरूपिणी ब्रह्मशक्ति जगत् और भक्त के कल्याणार्थ अपने नैमित्तिक रूप में आविर्भूत होती है । राजा सुरथ और समाधि वैश्य के हेतु भक्त कल्याणार्थ आविर्भाव हुआ । तीनों चरित्रों में वर्णित आविर्भाव स्थूल और सूक्ष्म जगत् के निमित्त से हुआ । वह भगवती ज्ञानी भक्तों के लिये ब्रह्मस्वरूपा, उपासकों के लिये ईश्वरीरूपा, और निष्काम यज्ञनिष्ठ भक्तों के लिये विराट्स्वरूपा है :
त्वं सच्चिदानन्दमये स्वकीये ब्रह्मस्वरूपे निजविज्ञभक्तान् ।
तथेशरूपे विधाप्य मातरुपासकान् दर्शनामात्म्भक्तान् ।।
निष्कामयज्ञावलिनिष्ठसाधकान् विराट्स्वरूपे च विधाप्य दर्शनम् ।
श्रुतेर्महावाक्यमिदं मनोहरं करोम्यहो तत्वमसीति सार्थकम् ।
जैसा कि पहले ही बताया गया है कि शक्ति और शक्तिमान में अभेद होता है । सृष्टि में शक्तिमान से शक्ति का ही आदर और विशेषता होती है । किसी किसी उपासना प्रणाली में शक्तिमान को प्रधान रखकर उसकी शक्ति के अवलम्बन में उपासना की जाती है । जैसे वेद और शास्त्रोक्त निर्गुण और सगुण उपासना । इस उपासना पद्धति में आत्मज्ञान बना रहता है । कहीं कहीं शक्ति को प्रधान मानकर शक्तिमान का अनुमान करते हुए उपासना प्रणाली बनाई गई है । यह अपेक्षाकृत आत्मज्ञानरहित उपासना प्रणाली है । इसमें आत्मज्ञान का विकास न रहने के कारण साधक केवल भगवान् की मनोमुग्धकारी शक्तियों के अवलम्बन से मन बुद्धि से अगोचर परमात्मा के सान्निध्य का प्रयत्न करता है । लेकिन भगवान् की मातृ भाव से उपासना करने की अनन्त वैचित्र्यपूर्ण शक्ति उपासना की जो प्रणाली है वह इन दोनों ही प्रणालियों से विलक्षण है । इसमें शक्ति और शक्तिमान का अभेद लक्ष्य सदा रखा गया है । एक और जहाँ शक्तिरूप में उपास्य और उपासक का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर शक्तिमान से शक्तिभाव को प्राप्त हुए भक्त को ब्रह्ममय करके मुक्त करने का प्रयास होता है । यही शक्ति उपासना की इस तीसरी शैली का मधुर और गम्भीर रहस्य है ।
विशेषतः भक्ति और उपासना की महाशक्ति का आश्रय लेने से किसी को भी निराश होने की सम्भावना नहीं रहती । युद्ध तो प्रकृति का नियम है । लेकिन यह देवासुर संग्राम मात्र देवताओं का या आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का युद्ध ही नहीं था, वरन् यह देवताओं का उपासना यज्ञ भी था और जगत् कल्याण की बुद्धि से यही महायज्ञ भी था और इस सबके मर्म में एक महान सन्देश था । वह यह कि यदि दैवी शक्ति और आसुरी शक्ति दोनों अपनी अपनी जगह कार्य करें, दोनों का सामंजस्य रहे, एक दूसरे का अधिकार न छीनने पाए, तभी चौदह भुवनों में धर्म की स्थापना हो सकती है और *बल, ऐश्वर्य, बुद्धि और
विद्या* आदि प्रकाशित रहकर सुख और शान्ति विराजमान रह सकती है। भारतीय मनीषियों ने शक्ति में माता और जाया तथा दुहिता का समुज्ज्वल रूप स्थापित कर व्यक्ति और समाज को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया है । शक्ति, सौन्दर्य और शील का पुंजीभूत विग्रह उस जगज्जननी दुर्गा को भारतीय जनमानस का कोटिशः नमन् ।।
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