श्री सुशील जालान (ध्यान योगी )
Mystic Power- श्रीमद्भगवद्गीता महर्षि वेदव्यास रचित 5000 वर्ष पूर्व का एक योगशास्त्र है, ब्रह्मविद्या का उपनिषद् है, जिसमें योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और कुन्ती पुत्र धनुर्धर अर्जुन के बीच हुए संवाद को संकलित किया गया है। महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि में शोकविषादग्रस्त अर्जुन को श्रीकृष्ण ने विभिन्न योगों का वर्णन करते हुए ब्रह्म विद्या का उपदेश दिया था।
श्रीमद्भगवद्गीता शब्द का पदच्छेद अन्वय है,
श्रीं (श्रीम् ) + अत् (अद् ) + भग + वत् + गीत + आ
श्रीं का पदच्छेद है, श् + र् + ई + अनुस्वार (बिन्दु),
- श्, है बाह्य सांसारिक विषयों का शमन करना,
- र्, है नाभिस्थ मणिपुर चक्र का कूट बीज वर्ण, अग्नि तत्त्व,
सुषुम्ना नाड़ी का उद्गम स्थल, - ई, है दीर्घ काल तक की गई कामना/धारणा, और - (ं) अनुस्वार, है बिन्दु जो हृदयस्थ महर्लोक, अनाहत चक्र,में प्रकट होता है।
अर्थ हुआ-
बाह्य सांसारिक विषयों का शमन कर, अंतर्चेतना को नाभि में स्थित मणिपुर चक्र में जाग्रत कर, सुषुम्ना नाड़ी में उर्ध्व कर, हृदयस्थ महर्लोक, अनाहत चक्र में, दीर्घ काल तक बिन्दु की धारणा कर, उसे प्रकट करना।
#अत्,
- अ, है पूर्व काल, अर्थात् आदि काल का द्योतक, - त्, है एकवचन,
अर्थ हुआ-
वह (बिन्दु) एक ही है सृष्टि के आदि काल से।
भग
- भ, है भाल का द्योतक, - ग, है गमन करना,
अर्थ हुआ-
भाल, कपाल में स्थित ललाट में सहस्रार - आज्ञा चक्र में अंतर्चेतना को ले जाना।
वत्
- व (व् + अ), व् है स्वाधिष्ठान चक्र का कूट बीज वर्ण, अ है स्थायित्व के लिए, - त्, है एकवचन के संदर्भ में।
अर्थ हुआ-
स्वाधिष्ठान चक्र में भवसागर है, जहां से किसी एक भाव को धारण करने के संदर्भ में गीत का पदच्छेद है, ग् + ई + त (त् + अ),
- ग्, है गमन करने के संदर्भ में,
- ई, है दीर्घ काल तक की गई धारणा,
- त, त् है एकवचन, अ है स्थिर करने के लिए।
अर्थ हुआ-
उस एक (धारणा) को उर्ध्व अन्तर्चेतना में दीर्घ काल तक समाहित (धारण) करना।
आ, है दीर्घ काल तक प्रकट रहने के संदर्भ में, (अ = प्रकट)।
भग कहते हैं योनि को, 84 लाख हैं। भगवान् कहेंगे उसे जो 84 लाख योनियों का स्वामी है। योनि चिन्ह भगवान् शिव का तीसरा नेत्र भी है।
- भग का अर्थ हुआ तीसरा नेत्र, भाल पर प्रकट होता है बिन्दु स्वरूप में, जब जाग्रत होता है, तब ही योगी भगवत् पद पर आसीत् होता है।
- अनाहत चक्र में बिन्दु जीवभाव रहित आत्मबोध है, और यही बिन्दु ब्रह्मबोध है सहस्रार - आज्ञा चक्र में। आत्मबोध, अर्थात् स्व-आत्मा का बोध और ब्रह्मबोध, अर्थात् सर्व-आत्मा का बोध।
- श्रीं, श्रीविद्या/ब्रह्मविद्या का परिपक्व फल है और यह ऐश्वर्य उपलब्ध होता है जब तीसरा नेत्र जाग्रत होता है योगी का, स्वामित्व 84 लाख योनियों के साथ।
सक्षम उर्ध्वरेता योगी अपनी अंतर्चेतना को सुषुम्ना नाड़ी में, मणिपुर चक्र से उर्ध्व कर, अनाहत चक्र में बिन्दु का दर्शन करता है। निष्काम रह कर बिन्दु को सहस्रार - आज्ञा चक्र पर ले जाता है जहां उसे भगवत् पद प्राप्त होता है, ब्रह्मबोध से।
भगवत् पद पर आसीत् योगी स्वाधिष्ठान चक्र से किसी भी जीवभाव को अथवा पदार्थ को प्रकट कर सकता है, धारण कर सकता है, अपनी इच्छा मात्र से।
भगवत् पद दीर्घ काल तक धारण करता है सक्षम योगी ब्रह्मबोध से। इसका अर्थ है, वह जीवन्मुक्त होता है, जन्म-मृत्यु के चक्र के बंधन को क्षीण कर देता है, कल्पान्त तक आत्म/ब्रह्म में स्थित रहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता आत्म/ब्रह्म विद्या का वर्णन करती है, विभिन्न योगों के आश्रय से, जिनके अनुशीलन से सक्षम साधक योगी भगवत् पद प्राप्त करने में समर्थ होता है।
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