आचार्य मृत्युंजय ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में ईश्वर के तीन स्वरूप, श्रीराम, योगेश्वर कृष्ण, भगवान भैरवदेव आदि के रूप में इनके कई अवतार और तैंतीस कोटि देवता हमारे धर्म में हैं। हमारे लिए ये सभी समान रूप से महान और पूजनीय हैं। हम और आप सामान्य मानव हैं। सभी अवतारों और देवों पर श्रद्धा रखना तथा अपने आराध्यदेव की नियमित आराधना-उपासना करते हुए किसी भी देवी देवता को छोटा न समझना हमारा नैतिक कर्तव्य है, और साथ ही आराधना-उपासना में सफलता प्रदायक प्रमुख तत्व भी। परन्तु जहां तक व्यावहारिकता का प्रश्न है, इन तैंतीस करोड़ देवताओं के नामों की सम्पूर्ण सारिणी भी किसी धर्म ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं। जहां तक पूजा आराधना का प्रश्न है, सम्पूर्ण देश में कुल मिलाकर लगभग दो दर्जन देवों की पूजा-आराधना ही की जाती है। भगवान विष्णु के अब तक हो चुके पन्द्रह अवतारों में सर्वाधिक आराधना भगवान श्रीराम और सोलह कला निधान पूर्णांवतार भगवान कृष्ण की ही की जाती है, तो आशुतोष शिवजी के अमर अवतारों भगवान भैरवदेवजी और पवनपुत्र हनुमानजी की। इसी प्रकार तैतीस कोटि देवों में भी वैदिककाल से ही सर्वाधिक पूजा आराधना पाच देवताओं की हो रही है। ये देव हैं—जगत् संचालक भगवान विष्णु, महेश्वर शिवजी, प्रथम पूजनीय देव गणेश, मातृशक्तियों के तेज का सम्मिलित रूप भगवती दुर्गा और जगत को प्रकाश तथा जीवन का आधार देने वाले प्रत्यक्ष देव भगवान भास्कर अर्थात् सूर्यदेवजी । सभी देवों के साकार स्वरूप दिवाकर रविदेवजी साक्षात विष्णु हैं, क्योंकि जगत् के पालन का कार्य व्यावहारिक रूप में भगवान सूर्यदेवजी ही कर रहे हैं । आधुनिक विज्ञान भी इस बात को मानता है कि पृथ्वी और अन्य सभी ग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से ही हुई सूर्य के प्रकाश और उसकी किरणों से प्राप्त होने पर जीवन को सम्भव बना रखा है। सूर्यदेव की किरणों के ताप से ही समुद्र और नदियों तालाबों का जल रूप में उड़कर बदलता है और फिर पृथ्वी पर करता है। इसलिए साक्षात देवराज इन्द्र और वरुण भी आप ही हैं । प्रलयकाल में सूर्यदेव पृथ्वी के अत्यंत निकट आ जाते हैं और तब आपके प्रबल ताप और अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण के कारण ही पृथ्वी पर प्रलय होती है। इस रूप में साक्षात भगवान शिव और उनका तीसरा नेत्र भी आप ही हैं। आप सभी ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों और चांद-सितारों के अधिपति तो हैं ही, मृत्यु के नियन्त्रक यमराज और क्रूरतम ग्रह शनिदेवजी तो आपके पुत्र ही हैं। यही कारण है कि आप सबसे शक्तिशाली और प्रत्यक्ष देव तथा ईश्वर का साक्षात स्वरूप तो हैं ही, आपकी आराधना-उपासना करने पर सभी देवी-देवताओं की वन्दना-आराधना भी स्वयं ही हो जाती है। सूर्यदेव की पूजा आराधना, उनकी मानसिक उपासना अथवा मंत्रों का जप करने वाले भक्त पर सभी देवी-देवता अपनी कृपादृष्टि बनाए रखते हैं, कोई भी देव उससे नाराज तो हो ही नहीं सकता। सर्वकालीन सर्वाधिक पूजनीय देव इस कलिकाल में तो भगवान विष्णु से भी अधिक पूजा-आराधना उनके अवतारों श्रीराम और गोपाल कृष्ण की हो रही है, तो मातृशक्ति के रूप में भगवती दुर्गाजी और काली माई की। पवनपुत्र हनुमानजी और मातेश्वरी दुर्गाजी के आज उत्तरी भारत में सर्वाधिक मन्दिर हैं, तो दक्षिण भारत में भगवान शिवजी के पुत्र कार्तिकेय मुरुगन के नाम से सबसे अधिक पूजे जाने वाले देवता। परन्तु वेदों में [4:30 pm, 12/04/2022] Sunder bsnl: आराधना कर सके। भगवान विष्णु का प्रतीक गोदावरी नदी से प्राप्त होने वाली पत्थर की पिण्डियां हैं, जिन्हें शालिग्राम कहा जाता है। शिवजी के साक्षात प्रतीक शिवलिंग हैं। नर्मदा नदी से प्राप्त शिवलिंगों को शिवजी का साक्षात स्वरूप माना जाता है, वैसे अब काले अथवा सफेद पत्थर को तराशकर बनाए गए शिवलिंग ही अधिक प्रचलित हैं। मातृशक्तियों का प्रतीक पत्थर की चपटी पिण्डियां हैं। वैष्णोदेवी के मन्दिर में महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली के रूप में इस प्रकार की तीन पिण्डियां ही स्थापित हैं। सभी धार्मिक अनुष्ठानों में गणेशजी की पूजा अनिवार्य रूप से की जाती है और प्राय: ही पीली मिट्टी की डली अथवा गाय के गोबर के टुकड़े पर कलावा लपेटकर उसे गणेशजी मान लिया जाता है। भगवान सूर्यदेव की महानता के अनुरूप हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने यहां भी भगवान भास्कर को विशिष्ट स्थान प्रदान किया है। सूर्यदेव का प्रतीक कोई पिण्डी या मिट्टी की डली नहीं, बल्कि गोलाकार सूर्य चक्र है। प्राचीनकाल में यह सूर्य चक्र कुम्भकारों द्वारा तैयार किया जाता था अथवा भक्त एवं पुजारी स्वयं तैयार कर लेते थे। अब इस प्रकार के प्लास्टर ऑफ पेरिस के बने हुए सूर्यचक्र फुटपाथों से लेकर कलाकृतियां बेचने वाले म्यूजियमों तथा आर्टगैलरियों तक में उपलब्ध हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हिन्दुओं के साथ ही जैन धर्म को मानने वाले भी इस सूर्य चक्र की पूजा-आराधना तो करते ही हैं, वे मंत्रों का जप भी प्राय: इस सूर्यचक्र के सम्मुख बैठकर ही करते हैं। जहां तक बौद्ध धर्म का प्रश्न है, बौद्ध धर्मावलम्बियों की तो सम्पूर्ण साधना का आधार ही यह सूर्यचक्र है। जिस प्रकार हम लोग प्रत्येक धार्मिक कार्य के पहले गणेशजी की पूजा करते हैं, ठीक उसी प्रकार बौद्ध धर्म को मानने वाले सूर्यचक्र के सम्मुख बैठकर ही पूजा-आराधना, मंत्रों का जप तथा अन्य सभी तांत्रिक सिद्धियां करते हैं। साभार : सूर्य उपासना पुस्तक
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