स्त्री-पुरुष का योग काम है।

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  • 31 October 2024
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शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ)- "स्त्रीपुंसयोस्तु योगो यः स तु काम इति स्मृतः ।" ( नाट्यशास्त्र २४ / ९५।)   धर्म और अर्थ के अनुकूल काम का सेवन करना चाहिये। सुख से वञ्चित नहीं रहना चाहिये।   यह कथन है ... "धर्मार्था विरोधेन काम सेवेत न हि सुखः स्यात् ॥" (कौटिल्य अर्थशास्त्र १/३/७)   काम के भोग वा पूर्ति से काम की शान्ति नहीं होती है। जैसे अग्नि में हवि डालने से तेजी से अग्नि प्रज्जवलित हो उठती है, वैसे ही काम के सेवन से काम वृद्धि को प्राप्त होता है। मनु का यह वचन है...   " न जातु कामः कामानुपभोगेन शाम्यति ।  हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥" ( मनुस्मृति २/९४)   【 वर्धमान काम को मेरा नमस्कार ।】   काम का स्थान हृदय में हैं। हदिकामो ध्रुवोः क्रोधः । भागवत पुराण जिस का हृदय शुद्ध है, उस का काम भी शुद्ध है। जिस का हृदय शुद्ध नहीं है, उस का काम कैसे शुद्ध होगा ? अशुद्ध हृदय (काम) वाला व्यक्ति अवश्य नरक में जाता है। यह कथन है ... 'न यस्य हृदयं शुद्धं स नरकं वृजेत् ।"   ( महाभारत अनु. १२७/१८ )   【शुद्धकाम जन को मेरा निष्काम नमस्कार ।】   काम का उत्पत्ति स्थान यद्यपि हृदय है, पर यह शरीर के समस्त अंगों में काल सापेक्ष अर्थात् तिथिक्रम से बदलता हुआ रहता है। यह कथन है-'स्मर दीपिका' का।   "पादे गुल्फे तोरौ च भगे नाभौ कुचे हृदि ॥  कक्षे कण्ठे च ओष्ठे च गण्डे नेत्रे श्रुतावपि ।। ललाटे शीर्षकेशेषु कामस्थानं तिथिक्रमात् ॥  दक्षे पुंसां स्त्रिया वामे शुक्ले कृष्णे विपर्ययः ।।"   १- पादे= पादतलों में । २- गुल्फे = ऍड़ी (टखनों) में। ३ -तथा ऊरौ दोनों जाँघों में । ४- च भगे = योनि स्थान में। ५- नाभौ नाभि में । ६ -कुचे= दोनों स्तनों में। ७ -हदि= हृदय में। ८ -कक्षे= दोनों कांखों में। ९- कण्ठे= गले में। १०- च ओष्ठे= दोनों ओठों में। ११ -च गण्डे दोनों गालों में। १२- नेत्रे = दोनों नेत्रों में। १३- श्रुतौ अपि =दोनों कानों पर। १४- ललाटे= माथे पर । १५- शीर्ष केशेषु = सिरके बालों पर।   कामस्थानम् तिथि क्रमात् = तिथि के क्रम से काम के स्थान हैं। दक्षे पुंसाम् =पुरुषों के दायें भाग में। स्त्रिया वामे= स्थियों के बायें भाग में। शुक्ले कृष्णे विपर्ययः= शुक्ल और कृष्ण पक्ष में विपरीत क्रम से इन स्थानों में काम निवास करता है।   "पादांगुष्ठे प्रतिपदि द्वितीयायाच्च गुल्फके।  ऊरुदेशे तृतीयायां चतुथ्यां भगदेशतः ॥  नाभिस्थाने च पञ्चम्यां षष्ठ्यान्तु कुचमण्डले ।  सप्तम्यां हृदये चैव, अष्टम्यां कक्षदेशतः ।।  नवम्यां कण्ठदेशे च दशम्यां चोष्ठदेशतः ।  एकादश्यां गण्डदेशे, द्वादश्यां नयने तथा ।। श्रवणे च प्रयोदश्यां चतुर्दश्यां ललाटके।  पौर्णमास्यां शिखायाञ्च ज्ञातव्यश्व इति क्रमात् ॥ यत्र स्थाने वसेत् कामस्तथैव नख चुम्वनम् ।  मन्त्रेणानेन कर्तव्यं ज्ञातव्यं रतिकोविदै ॥"   जिस स्थान में कामवास हो उस स्थान पर स्पर्श एवं चुम्बन का प्रयोग विचारपूर्वक करना चाहिये। यह बात रति जिज्ञासुओं को जानना चाहिये।   आनन्दमय ब्रह्म का नाम काम है। इस आनन्दमय ब्रह्म को मैं नाना नामों से नमस्कार करता हूँ। मदनाय नमः । मन्मथाय नमः । माराय नमः मोहनाय नमः मोहकाय नमः । मकरध्वजाय नमः । मीनकेतवे नमः। मनसिजाय नमः । मनोवपुषे नमः । मनौजाय नमः। मतद्वाय नमः । मनोहराय नमः। रामाय नमः। रमणाय नमः । रतिनाथाय नमः । रतिप्रियाय नमः । रतिकान्ताय नमः । रममाणाय नमः । रविसखाय नमः । रतिरसाय नमः। रात्रिरजाय नमः। रतिकराय नमः। रतिधराय नमः । रसखोताय नमः कामाय नमः कामपूरणाय नमः । कान्तिमते नमः कामवर्धनाय नमः । कौतूहलकराय नमः । कुसुमधन्विने नमः । क्रौडाप्रियाय नमः। कुसुमायुधाय नमः कमनीयाय नमः ।   स्त्री-पुरुष की हर चेष्टा, अंग सञ्चालन, वेशभूषा, वार्ता, आचरण, खानपान एवं गति काम प्रेरित एवं काम नियन्त्रित है। व्यक्ति का कामतन्त्र जाने अनजाने अपने को प्रकट एवं पुष्ट करता रहता है। देह पर है कसे हुए वस्त्र उद्दाम काम के द्योतक हैं। चिपके हुए वस्त्र होने से शरीर के अंगों का उभार फैलाव एवं नति स्पष्ट दिखती है। यह काम निवेदन का प्रतीक है। पुरुष लोग स्त्रियों जैसे वस्त्र एवं केशविन्यास द्वारा अपनी कामपूर्ति करते हैं। खियाँ भी पुरुषों जैसी वेशभूषा एवं केशकर्तन द्वारा अपने भीतर की कामेच्छा को प्रकट करती हुई, प्रकारान्तर से पूर्ण करती रहती हैं। एक नागासाधु जो निर्वस्त्र होकर शरीर को भस्म से ढके रहता है, उसी तरह नंगा नहीं माना जा सकता जैसे लोग कसाव युक्त (देह से चिपके रहने वाले) बस्त्र पहन कर घूमते फिरते हैं। किन्तु दोनें में अन्तर है। नंगा साधु कामोद्वेलित नहीं होता जबकि अल्पवस्त्री, श्लिष्टचीरी काममद से मत्त रहता है।   स्त्री-पुरुषों के बिखरे हुए अव्यवस्थित केश तथा सिलवटों वाले कटे फटे, विवर्ण, गन्दे अप्रचलित अप्रशस्य वस्त्र विकृत काम के द्योतक हैं। बड़े हुए बाल केश दाढ़ी मूंछ वालों का दाम्पत्य नष्ट होता है। पुरुषों के बाल कान को ढके हुए होने से उसको काम पीड़ा को कहानी कहते हैं। छिद्रयुक्त टोपी पहनने वाले कटुवा लोग दुष्टकाम होते हैं। घूंघट युक्त वा बुर्काधारी मियाँइने दलित काम होती है। तीव्र गति से चलने वाला द्रुतकाम होता है। मन्दगामी तो होनकाम होता है। इधर उधर देखता हुआ चलने वाला पिशाचकाम होता है। ऊँची ऐड़ी की चप्पल पहनने वाली स्त्री उप्रकाम होती है। मटकती हुई चलने वाली पतिताम होती है। अपने सहज आंगिक सौन्दर्य को बिगाड़ती हुई ओठों, नाखूनों पलकों गालों पर पशि करने वाली स्त्री दूषितकाम से पीडित होती है। केशों को रंगने वाले लोग कामभय मस्त होते हैं। छूते हुए, हाथ को पकड़कर बात करने वाले कामवेदना से त्रस्त होते है। हाथ से हाथ मिला कर के तथा कन्धों पर हाथ रख कर, परस्पर सट कर चलने वाले विकृतकाम के आवेग से युक्त एवं सहमेथुनी होते हैं। बात बात में उत्तेजित होने वाले, आंधे घुमाते हुए तथा हाथ झटकते हुए जोर जोर से बोलने वाले हिंसाम होते हैं। फुसफुसाने वाले, सांकेतिक भाषा का प्रयोग करने वाले गुप्तकाम होते हैं। गाली देने, निन्दा करने तथा फूहड़ बात कहने वाले राक्षसकाम होते हैं। सबके सामने चुम्बन, आलिंगन, गाढस्पर्श करने वाले उत्तप्त काम होते हैं। आलसी एवं निष्क्रिय हो कर व्यासीन लोग शिलिकाम होते हैं। दौड़ने, खेलने कार्यरत लोग बृहत्काम होते हैं।   काम एक कुण्डलीकृत सर्प है जो हमारे शरीर में सतत विद्यमान रहता है। सोये हुए इस सर्प को जो जगाता है, उसे यह इस लेता है। इसकी औषधि इसी सर्प का विष (कामरस) है। जो इसे जगा कर सावधानी के साथ खेलता हुआ इसके विष से बचा रहता है, वह आप्तकाम है, आत्मकाम है, आद्यकाम है, अग्निकाम है तथा कृष्ण है। यमुना के जल में स्थित शीयमान कालियनाग नाम के सर्प को जगाकर उसके फण पर खड़े हो कर कृष्ण ने नृत्य किया। इसलिये कृष्ण एक पूर्णकाम पुरुष हैं। जिसने अपनी शरीस्थ कालिय नाग को जगा कर उसके ऊपर सवार होकर नियंत्रित कर नाचा (कामोपभोग किया) वह कामी साक्षात् विष्णु है। ऐसे कामी को मेरा नमस्कार। जिसकी इच्छाओं का समाधान हो गया, वहीं कामी आत्मनियन्ता है। अनेक स्त्रियों का भोग करने वाले कृष्णभगवान् ऐसे ही महापुरुष हैं। कामात्सा कृष्ण को मेरा नमस्कार ।   कुण्डलिनी शक्ति के रूप में उपस्थ स्थान लिंगमूल में काम सोता है। इसे जगाना, उत्तेजित करना सरल, किन्तु अधिकार में रखना कठिन है। जिसकी कुण्डली जागृत होती है, वह सर्वप्रथम कामुक हो जाता है। कामुक होकर या तो साधक पतन के गर्त में गिरेगा या उन्नति के श्रृंग पर चढ़ेगा। दोनों में एक अवश्य होगा। मैथुन क्रिया के मार्ग से उत्थान एवं पतन, स्वर्ग एवं नरक, हर्ष एवं विषाद के दोनों मार्ग उपलब्ध हैं। निर्बल का अधोगमन तथा सबल का ऊर्ध्वगमन होता है। कृष्णसम सबल को मेरा नमस्कार। ललनाओं से लीला करने वाले, कामिनियों से क्रीडा करने वाले, रमणियों से रास रचाने वाले, युवतियों से युक्त रहने वाले, प्रमदाओं को प्रसन्न करने वाले, नारियों संग नाचने वाले, स्त्रियों को स्मृति में रखने वाले, अंगनाओं से आलिगित होने वाले, विलासिनियों को विवस्त्र करने वाले, दाराओं के दुग खोलने वाले, योषिताओं से याचना करने वाले युगपुरुष कृष्ण को कौन नहीं जानता 7 गेंद के खेलैया, नाग के नथैया, रास के रचैया, युद्ध के करैया, जग के सहया, स्वयं के नचैया, रथ के हंकैया, काम के पुरैया, योग के कहैया, बांसुरी बजेचा, द्रौपदी के भैया, माखन चोरैया, कृष्ण कन्हैया, हृदय बसैया, काम के करपा पाहि माम् ॥   मनुष्य की हृदयभूमि में मोहरूपी बीज से उत्पन्न हुआ एक वृक्ष है, जिसका नाम काम है। कहते हैं ... "हदिकाममाश्चित्रो मोहसञ्चयसम्भवः।" (महा. शान्ति, २५४/१)   स्वयं यह वृक्ष प्रकट एवं लुप्त होता रहता है। फल इसके स्वादिष्ट हैं किन्तु प्रभाव विषैला है। जीव स्वाद के लिये इस वृक्ष के फल को खाता तथा तज्जन्य रोग (दुःख) से कराहता रहता है। जो फल के खाने की इच्छा का शमन करता हुआ, फल को देखता, सूंघता, स्पर्श करता मात्र है, वह दुःख से बच जाता है। कहते हैं...   " एवं यो वेद कामस्य केवलस्य निवर्तनम्। बन्यं वै कामशास्त्रस्य स दुःखान्यतिवर्तते ॥" ( महा. शांति. २५४/८)   इस प्रकार जो कामनाओं के निवृत्त करने का उपाय करता है तथा कामशास्त्र को भोगविषयक बन्धन प्रद दुःखपूर्ण समझता है, वह सम्पूर्ण दुःखों को लाँघ जाता है। ऐसे कामदुःखपार पुरुष कृष्ण को मेरा शत शत नमस्कार ।



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