ज्योतिर्विद उमाशंकर दुबे- ऋतुकर्ता सूर्य है सूर्य सम्पूर्ण प्राणियों का जनक, पालक, जीवनी शक्ति, प्रकाश गौर ऊम्मा देने वाला तो है ही साथ ही ऋतुओं का निर्माता भी है। मादित्य हृदय स्तोत्र (बाल्मीकीय रामायण) में अगस्त्य ऋषि ने ऋतु कर्ता प्रभाकर कहा है। सूर्य ही प्राणियों का सूचन, पालन और संहारकत है। यही अपनी किरणों से गर्मी पहुंचाते हैं और वर्षा करते हैं नाशयत्येव वं भूतं तमेव सृजति प्रभुः । पायस्येष तपस्येच वर्षस्येष गमस्तिमिः ॥ ऋक् संहिता में कहा है पूर्वामन – प्रदिशं पाथियानामुतून प्रशासहिदावनुष्ठ । ऋक् सं १ । ६५ । ३। “वह सूर्य ऋतुओं का नियमन करके क्रमशः पृथ्वी की पूर्वादि दिशाओं का निर्माण करता है ।” वायु का कारण भी सूर्य को माना है सवितारं यजति पत्सवितारं यजति तस्मादुरत: पाश्चादयं । भूयिष्ठं पवमान पवते सवित् प्रसूतो ह्यष एतत्पवने ॥ “सविता (सूर्य) का वजन करने से उत्तर पश्चिम से बहुत वायु चलता है ।” ऋतु कैसे बनती हैं सूर्य ऋतुओं का निर्माण किस प्रकार करता है संक्षेप में यह स्पष्ट करते हैं। पृथ्वी का भ्रमण पथ ( कक्षा) अन्डाकार है। और पृथ्वी अपनी धुरी पर २३.५ अंश सकी हुई है अर्थात् पृथ्वी की भूमध्य रेखा कक्षा के साथ साढ़े तेइस अंश का कोंण बनाती है। ऋतु परिवर्तन का मुख्य कारण पृथ्वी के अक्ष की नति है। सूर्य पृथ्वी की कक्षा के ठीक केन्द्र में नहीं है। भ्रमण काल में पृथ्वी कभी सूर्य के निकटतम (PERIHELION) ९१,४००,००० मील पर (३ जनवरी) और कभी (४ जुलाई को) दूरतम (APHELION) ९४,६००,०००, मील पर होती है। किन्तु ऋतु का कारण इस दूरी का घटना बढ़ना नहीं है, क्योंकि जब पृथ्वी ३ जनवरी को सूर्य के निकटतम होती है तो उत्तरी गोलार्ध में जाड़ की ऋतु होती है। और जब ४ जुलाई को दूरतम होती है तब गर्मी की ऋतु होती है जब कि सूर्य के निकट होने पर गर्मी और सूर्य से दूर होने पर शीत होना चाहिये । सीधा सा कारण ऋतु का ये है कि जब उत्तरी गोलाधं सूर्य के सम्मुख होता है तब वहां गर्मी बोर दक्षिणी गोलार्ध में जाड़ो की ऋतु होती है। एक बात अवश्य अन्तर की है, वह यह कि दिसम्बर जनवरी में दक्षिणी गोलाधं सूर्य के सामने तो होता ही है साथ ही पृथ्वी सूर्य के निकटतम भी होती है इसलिये वहां गर्मी उतरी गोलार्थ की अपेक्षा तेज होती है । सूर्य के मकरारम्भ २१ दिसम्बर से करिम्भ २१ जून तक सूर्य उत्तरायण और सायन कर्क आरएम से मकर प्रवेश तक दक्षिणावन रहता है। निरयन पद्धति से मकर संक्रान्ति १४ जनवरी को होती है। ऋतु और अवन का विचार करने में सावन मान ही लिया जाता है, जैसा कि वैदिक ऋऋतुपरक महीनों के बारम्भ की ऊपर दी हुई तारीखों से स्पष्ट है। २१ मार्च को सूर्य सायन मेष प्रवेश करता है। अर्थात् पृथ्वी के • अंश विषुवत रेखा पर आता है। उसे बसन्त सम्पात (VERNAL EQ UINOX) कहते हैं। तब दिनमान और रात्रिमान समान होता है। (यह समानता हर अक्षांशों पर नहीं होती) यहीं से ऋतुओं का आर म्भ होता है। बंदिक माधव मास का आरम्भ २१ मार्च को होता है। २१ मार्च को उत्तरी ध्रुव में ६ महीने की रात्रि के पश्चात सूर्योदय होता है। जैसे-जैसे सूर्य उत्तर पथ की ओर बढ़ता है। दिनमान और गर्मी बढ़ती जाती है। २१ जून को वह उत्तर पथ के अन्तिम छोर पर होता है। उस दिन सूर्य की उत्तरा क्रान्ति २३ अंश २७ कला होती है। इसके पश्चात् उत्तरा कान्ति घटने लगती है। क्यों कि सूर्य दक्षिण पथ की ओर वापस चल पड़ता है। याने दक्षिणायन हो जाता है, उत्तरी घ्र व में सूर्य ठुलने लगता है और तीन महीने पश्चात् जब २२ सितम्बर को शरद सम्पात होता है तो घ्र व में ६ महीने के लिये सूर्य अस्त हो जाता है। २२ सितम्बर को सूर्य की क्रान्ति • अंश होती है। एक बार फिर दिनमान और रात्रिमात समान होते हैं। सूर्य की दक्षिणा कान्ति में वृद्धि होने लगती है और २२ दिसम्बर को सूर्य की परम दक्षिणा ऋम्ति २३ अंश २७ कला होती है। ध्रुव पर ६ मास का दिन और ६मास की रात्रि मिलाकर देवताओं का एक अहोरात्र होता है। जो मानवों के एक वर्ष के बराबर है। क्रान्ति वृत्त (EGLIPTIC) जहाँ विषुव बुस (CELETIAL EQU (ATOR) को सूर्य के उत्तराभिमुख होने पर काटता है उसे वसन्त सम् कहते हैं। विषुवत रेखा के दोनों ओर कान्ति वृत्त की अन्तिम सीमा है। इसे अपन वृत्त कहते हैं। इसी परम सीमा के अन्दर भ्रमण करता हुआ सूर्य ऋतुओं का निर्माण करता है । बसन्त संपात से बसन्त ऋतु का बारम्भ माना जाता है। सामन सूर्य जिस दिन विषुवत रेखा पर बाता है उस दिन बसन्त ऋतु और मर्च का आरम्भ होता है। यह वर्ष का बारम्भ प्राकृतिक याने खगोलिक है, मानव निर्मित न हीं जैसे कि ग्रेगेरियन कलेण्डर का एक जनवरी से होता है। बसन्त सम्पात विन्दु बाम गति से चलनशील हैं इसलिये ऋतु के लिये वह किसी एक निश्चित तिथि और समय पर सदा प्रारम्भ होगी ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्राचीन नक्षत्र गणना कृत्तिकादि है, इससे यह सिद्ध होता है कि किसी समय संपात कृत्तिका नक्षत्र में रहा होगा। महाभारत के अनुशासन पर्व में नक्षत्रों की गणना कृत्तिका से आर म्भ की गई है। पराशर ने बिशोंत्तरी दशा की गणना कृत्तिका से आरम्भ की है कृतिकातः समारम्प त्रिरावृत्य बशाधिपाः । आ-चं-कु-रा-गु-श-बु-के-शु पूर्वा विहगाः कमात् ॥ –बृ. पारा ४६/१२ इससे प्रतीत होता है कि पराशर के समय में बसन्त सम्पात कृतिका नक्षत्र पर था। यदि अयन गति ५०.२३८८” (NEWCOMB) ले तो एक नक्षत्र में यह विन्दु ९५५.४३५६ वर्ष रहता है। एक नक्षत्र चरण में २३८. ८५ वर्ष रहता ७१. ८३ वर्ष में एक दिन पीछे हट जाता है । २१५५ वर्ष में एक मास पीछे खिसक जाता है। लगभग २५८६० वर्षों में १२ मासों में घूमता हुआ पुनः उसी स्थान पर आ जाता है। वर्तमान में सम्पात उत्तरी मादप्रद नक्षत्र में है । प्राचीन काल से माघ शुक्ल पंचमी को वसन्तोत्सव मनाने की परि पाटी चली आ रही है। इससे यह मालूम होता है कि किसी समय माध में वसन्त ऋतु होती थी। वर्तमान में मंत्र वैशाखो वसन्तः है, माध फाल्गुन शिशिर ऋतुई किन्तु वसन्त का पर्व माघ शुक्ल पंचमी को आज भी मनाया जाता है। कहा माघ मासे नृपश्रेष्ठ शक्लाय १ चमी तिथो । रति कामी त संपज्य कर्तव्यः त महोत्सवः ॥ प्राचीन ग्रन्थों में वसन्त के विषय में विभिन्न उल्लेख मिलते हैं। अश्वमेष पर्व में उल्लेख है-“श्रवणादीनि माणि ऋतवः शिशिरा दयः।” राशियों के आधार पर बौद्धावन सूत्र के अनुसार मेष और वृष की संक्रान्ति में वसन्त ऋत मानी है । कालमापन में मीन और मेव में तथा भाव प्रकाश में कुंभ और मीन में मानी है। शास्त्र में चान्द्र मास में ऋतु के विषय में उल्लेख है-“मुखं वा एतरसंवत्सरस्य यच्चित्रा पूर्ण मास ।” अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से संवत्सर और ऋत चक्र का आर म्भ है। वर्तमान में शास्त्र अनुसार संवत्सर का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रति पदा से होता है और वर्ष का आरम्भ वासन्ती नवरात्र से होता है। वर्तमान में चान्द्रमासों में ६ ऋतुओं का विभाजन इस प्रकार है:– चैत्र वंशाख वसंत ज्येष्ठ – आषाढ़ ग्रीम श्रावण भाद्रपद वर्षा आश्विन कार्तिक शरद मार्गशीर्ष पौष हेमन्त माघ फाल्गन शिशिर उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि वसन्न संपात विन्दु के चलनशील होने के कारण जो मौसम वर्तमान में चैत्र में होता है वह पांच हजार वर्ष पूर्व माघ में होता था। बसंत संवत्सर और ऋतुचक्र का मुख या आरम्भ है इसीलिए हम इस पर विस्तार से विचार कर रहे हैं। अब प्रश्न उठता है कि जब संपात विन्दु स्थिर नहीं है तो प्रकृति के अनुसार यह कैसे मालूल हो कि वसन्त ऋतु आ गई ? इसका भी उल्लेख है कि जब वृक्षों के जीर्ण पत्तों गिर जायें और नई कोपल निकल आयें तो समझना चाहिये कि वसन्त ऋतु आ गई। सरागवस्त्र जंर दक्षः वसन्तो वसमिः सह संवत्सरस्य सवितु प्रेषकृत प्रथमः स्मृतः । निर्णयामृत के ‘रति कामी तु संपूज्य पद से भी वसन्त ऋतु का एक लक्षण प्रकट होता है। रति और कामदेव की पूजा से भावार्य है काम वासना का उद्भव वसंत ऋतु में प्राणियों में काम वासना व्यापक रूप से जाग्रत होती है। पशु पक्षी मानव सभी में यह भावना स्वाभाविक रूप से होती है। कहा है-“बाहार निद्रा भय मैथुनं च एतत् समानो पशुभिः नराणाम् ।” जहाँ तक मनुष्य का सम्बन्ध है उसके लिये तो बारहो महीने बसन्त के हैं क्योंकि वह प्रकृति से दूर हटकर बनावटी जीवन जी रहा है, किन्तु अन्य पशु पक्षियों की बेष्टाओं से वसंतागमन का आभास मिलता है। हजारों जन्म कुण्डली देखने पर एक बात परिलक्षित अवश्य हुई है कि भादूपद मास से आग्रहायण तक जन्म का प्रतिशत अधिक है। अंग्रेजी महीनों में यह अगस्त से दिसम्बर तक जाता हैं। इससे यह नतीजा निकलता है कि अधिकांश आधान माप से चैत्र तक होते हैं। सारांश यह है कि ऋतु का प्रभाव सभी प्रणियों पर होता है। इसीलिये वसंत को संवत्सर का मुख और ऋतुच का आदि माना है। ग्रीष्म ज्येष्ठ आषाढ़ के मास ग्रीष्म ऋतु के हैं। वैदिक सौर मासों में ये शुक्र और शुद्धि हैं। सायन सूर्य के दूध और मिथुन राशि के परिभ्रमण के अस्तंगत ग्रीष्म ऋतु होती है। इसका काल खण्ड २१ अप्रैल से १२ जून तक है। इस काल में सूर्य की उत्तरा क्रान्ति नित्य बढ़ती रहती है। सूमं को किरण उत्तरी गोलाद’ में सीधी पड़ती है। इसी के साथ गर्मी का असर बढ़ता जाता है। सूर्य समुद्र के जल का शोषण करते हैं। वाता वरण को जल वाप्प से पूरित करते हैं। वसन्त ग्रीष्म वर्षा देवताओं की ऋतु मानी गई है। शरद, हेमन्त शिशिर पितरों की ऋतुयें हैं। वसन्तो प्रोमो वर्षा ते देवो ऋ॒तवः । शरद हेमन्त शिशिरस्तेपितरो । ज्योतिष में उत्तरायण देवों का दिन दक्षिणायन को देवों को रात्रि माना है। ग्रीष्म ऋतु ही वर्षा का कारण होती है। गर्मी किसी वर्ष अधिकती है। किसी वर्ष गर्म हवा अधिक चलती है, कभी कम चलती है। इन विविधिताओं का कारण ग्रह होते हैं । असामयिक वर्षा, आँघी, तूफान, ओले गिरना, अतिशीत इन सबका कारण ग्रह और नक्षत्रों के योग होते हैं। सभी ऋतुएं परस्पर जुड़ी हुई हैं । आने वाली ऋतु को बीती हुई ऋतु प्रभावित करती है। अपने-अपने स्थान पर सभी का महत्व है किन्तु वर्षा ऋतु इनमें सबसे अधिक उप योगी है क्योंकि यह जल प्रदान करती है जो कि प्राणिमात्र के जीवन का अवलम्ब है, अन्न की उपज वर्षा पर निर्भर है। भूमिगत जल की मात्रा भी वर्षा पर निर्भर है।
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