मनोहर विधालंकर-लेखक सरस्वति देवनिदो निबर्हय ॥ प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि । यदात्मनि तन्वो मे विरिष्टं सरस्वती तदापूणद् घृतेन ॥ वेद भगवान् विश्व के वाङ्मय में वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। विश्व इतिहास के किसी मनुष्य द्वारा इनके प्रणयन, प्रतिपादन या विरचन का कहीं कोई संकेत नहीं मिलता, इसलिए इन्हें अपौरुषेय अथवा ईश्वर प्रणीत माना जाता है। धर्मग्रन्थ कहने से इनका महत्त्व नहीं बढ़ता, अपितु इनका क्षेत्र संकुचित हो जाता है। ये राष्ट्रग्रन्थ अथवा विश्वसंस्कृति के प्रथम ग्रन्थ कहलाने के अधिकारी हैं। वेद के साथ संहिता पद अवश्य जुड़ा होता है, जिससे प्रतीत होता है कि ये सब संकलन हैं । ऋक् मन्त्र १०-११४-८ में “सहस्रधा पञ्चदशान्युक्था” पाद प्रयुक्त हुआ है, जो संकेत करता है कि वेद में कुल मन्त्र लगभग १५ सहस्र हैं। अधिक संख्या पुनरुक्त या शाखाभेद के कारण है। वेद को एक माने या तीन या चार इससे कोई विशेष भेद नहीं पड़ता। यदि उसके मन्त्रों की संख्या निश्चित हो जाए तो इन ही मन्त्रों से ‘अनन्ता वै वेदाः’ चाहे जितने संग्रह बनाए जा सकते हैं और उनका विषय तथा प्रतिपाद्य की दृष्टि से कुछ भी नाम रखा जा सकता है। वेदमन्त्रों के अर्थ वेद अपौरुषेय हैं। उनकी भाषा किसी देश में प्रचलित नहीं है, इसलिए प्रत्येक मननशील व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार संगति लगाकर कुछ भी अर्थ कर सकता है, लेकिन पुरानी परम्परा को ध्यान में रखते हुए जो अर्थ जितना अधिक बुद्धिग्राह्य व विज्ञान के सिद्धान्तों के अनुकूल होगा वह उतना ही मान्य होता चला जाएगा। वेद के विद्वान मानते आए हैं कि वेद के शब्दों को केवल रूढ न मानकर योगरूढ़ या यौगिक स्वीकार करना चाहिए। केवल रूढ़ अर्थ के आधार पर मन्त्रार्थ करने से बहुधा अनर्थ तथा मूर्खता की पराकाष्ठा हो जाती है। मध्यकालीन वेद भाष्यकारों के इस आग्रह ने वेद को हास्यास्पद बना दिया था, और इसीलिये महात्मा बुद्ध ने उसे त्याज्य घोषित कर दिया था। ऋषि दयानन्द और श्री अरविन्द ने बुद्धिसम्मत अर्थ करके पुनः वेद को उचित स्थान दिलाया और उसकी प्रतिष्ठा स्थापित की। वेद की सार्वदेशिकता वेद का सम्बन्ध किसी एक देश या एक युग से नहीं है । वेद सार्वभौम तथा सार्वकालिक हैं । उदाहरण के लिए जनसंख्या की समस्या के सन्दर्भ में विचार करके देखने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। रूस में जनसंख्या कम है। वे देश की पुरुष शक्ति बढ़ाने के लिए-अपने देश में ५ पुत्र उत्पन्न करने वाली स्त्रियों को माता की मानद उपाधि से भूपित करते हैं। ऐसे देश के लिए वेद की निम्न व्यवस्था माननीय है “दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि” (ऋक १०-८५-४५) ऐसी परिस्थिति में वेद १० पुत्र उत्पन्न करने की आज्ञा देता है। – इसके विपरीत भारत जैसे देश-जो अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या से परेशान हैं – -के लिए बिल्कुल दूसरी व्यवस्था है। उनके लिए निर्देश हैं कि-“बहु प्रजा निऋतिमाविवेश” अथर्व०६-१५-१० अर्थात बहुत सन्तान उत्पन्न करने वाला व्यक्ति, पापदेवता या भ्रष्टाचार का आश्रय लेने को बाध्य होता है और अन्त में कष्टमय जीवन व्यतीत करता हैं। यहाँ बहुत पुत्र न कहकर सन्तान कहा है। ऐसी परिस्थिति में पुत्र हो या न हो, दो से अधिक सन्तान का ही निषेध है। इस प्रकार वेद में सब कालों और सब परिस्थितियों के लिए निर्देश दिए गए हैं। जनसंख्याबहुल देशों के लिए एक व्यवस्था है, और बिरल जनसंख्या वाले देशों के लिए दूसरी व्यवस्था है। वेद के ऋषि, देवता व छन्द मन्त्राणामार्षेय छन्दो देवतविद् । अध्यापयन्याजयन्वा श्रेयोऽधि गच्छति ॥ वेद के स्पष्ट अर्थ के अतिरिक्त रहस्यार्थ तथा अन्तहित भाव को अच्छी तरह ह्रदयंगम करने लिए मन्त्रों के ऋषि देवता और छन्द का ज्ञान आवश्यक माना गया है। इन तीनों का मन्त्रार्थ से घनिष्ठ सम्बन्ध प्रतीत होता है । अन्यथा मंत्र के अथ इन तीनों का अनिवार्य साहचर्य न माना जाता। लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं कि ऋषि और देवता तथा छन्द ज्ञान के बिना वेद का पढ़ना बिल्कुल निरर्थक है। जिस प्रकार भिषक् द्वारा निर्दिष्ट अौषधि का गुण-दोष ज्ञान न होने पर भी रोगी को लाभ होता है, उसी प्रकार ऋषि तथा देवता का ज्ञान हुए बिना भी मंत्रार्थ के ज्ञान, मनन और तदनुकूल आचरण के प्रयत्न से लाभ अवश्य होता है। फल या औषध के गुणदोष का ज्ञान होने पर रोगी भी अपने अनुभव के आधार पर किसी दूसरे को औषध दे सकता है, या किसी को लेने से रोक सकता है। इसी प्रकार ऋषि देवता व छन्द के ज्ञान के अनन्तर मनष्य उस मन्त्र द्वारा अधिक लाभ प्राप्त कर सकता है, और दूसरों को अधिक लाभ पहुँचा सकता है। तथा अलाभकर स्थिति में उसके प्रयोग की व्यर्थ मेहनत से बच सकता है। वेद मन्त्रों के अन्य शब्दों के समान ऋषि छन्द तथा देवतावाची शब्दों को भी योगिक या योगरूढ़ समझना चाहिए। केवल रूढ़ अर्थ में लेने से यहां भी अनर्थ होता है तथा इतिहास मानने की प्रवृत्ति होती है। इसके विपरीत यौगिक अर्थ मानने पर ये ऋषिवाची शब्द व्यक्ति के लिए गुण बन जाते हैं। वेद मन्त्रों के ऊपर दिये हए नामों में, श्येन, ताक्षर्य, कपोत्तादि पक्षी; सप्ति; सरमा आदि पशु; कूर्म मत्स्य आदि जलचर और सर्प, गोधा आदि रेंगने वाले जन्तु भी सम्मिलित हैं। इन्हें मन्त्रों का कर्ता तो किसी भी तरह नहीं माना जा सकता। हां, ऋषियों को द्रष्टा मानने वालों के दष्टिकोण से इन पशु पक्षियों को अपने आचरण द्वारा प्रेरणा देने के कारण मार्ग दर्शयिता गुरु मानकर समाधान किया जा सकता है। वेदों के कुल ऋषि ४५७ हैं। इनमें से ७१ ऋषि और देवता दोनों हैं। छन्द अर्थेप्सव ऋषयो देवता छन्दोभि उपधावन् । सर्वा० छन्द ऋषियों तथा देवताओं की सवारी (वाहन) हैं। जैसे मनुष्य सवारी पर बैठकर जहां चाहे जा सकता है, वैसे ही ऋषि और देवता छन्दों पर सवार होकर लोकलोकान्तर का भ्रमण करते हैं। जैसे मनुष्य अपने को छाते से ढककर धूप और वर्षा से अपनी रक्षा करता है, उसे सूर्य और बादल परेशान नहीं कर पाते; वैसे ही ऋषि और देवता छन्दों से अपने को ढककर तिरोहित हो जाते हैं, मूर्ख लोग उन्हें ढूँढ नहीं सकते, वे छन्दों के अक्षरों में ही उलझे रह जाते हैं। छन्द शैली है। भिन्न-भिन्न राग की तरह, छन्दों का भी समय और विषय के हिसाब से अवसर के अनुरूप प्रयोग किया जाता है। वेद में इन छन्दों का भी प्रतिपाद्य विषय से सम्बन्ध होता है । छन्द ज्ञान अर्थ में सहायक है, जैसे मनुष्य वाहन पर बैठकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है, वैसे ही इन छन्दों के अर्थ द्वारा उपदिष्ट आचरण को अपनाकर वह कहीं से कहीं पहुंच सकता है। छन्द का अर्थ है वाणी। वाणी के बिना ज्ञान का आदान-प्रदान संभव नहीं है। इसलिये वेद (ज्ञान) के अर्थ को समझने के लिये ऋषि और देवता छन्दों का आश्रय लेते हैं। छन्दों का प्रयोग जाने और किये बिना वेद को समझना या समझाना सम्भव नहीं है। लेकिन छन्दः शास्त्र का ज्ञान न होने पर भी मन्त्रार्थ का ज्ञान और आचरण तो लाभ पहुंचाता ही है। देवता देवतावाची शब्द मन्त्र में वर्णित विषय की ओर संकेत करते हैं। जैसे अग्नि, इन्द्र, आत्मा, उर्वशी, रथ, अश्व: आदि शब्द मन्त्रों पर देवतावाची दिये हुए हैं। अर्थात् उस-उस मन्त्र में इन शब्दवाची पदार्थों के गुण दोषों का वर्णन हुआ है, लेकिन ये देवतावाची शब्द भी यौगिक हैं। अग्नि शब्द की व्युत्पत्ति करने पर इस एक शब्द से प्रसंग के अनुसार परमात्मा, आत्मा, नेता, पाग, विद्युत्, सूर्य, ब्राह्मण आदि किसी भी पदार्थ का ग्रहण किया जा सकता है। इसी प्रकार इन्द्र= ऐश्वर्यवान् से परमात्मा, आत्मा, मन, शरीर, राजा, क्षत्रिय किसी भी पदार्थ का ग्रहण हो सकता है। देव और देवता “देवो दानाद्वा”-जो कुछ देता है, वह देव। इस दष्टि से परमात्मा और जीवात्मा तथा प्रकृति तो देव हैं ही। इनके अतिरिक्त सूर्य प्रकाश देने से, वायु प्राण देने से, जल जनन शक्ति प्रदानकरने से, देव कहलाते हैं। गुरु ज्ञान देता है, माता-पिता जन्म व पोषण देते है, राजा शासन व व्यवस्था देता है, न्यायाधीश न्याय देता है। अत: ये सब भी देव हैं। “देवो दीपनाद्वा द्योतनाद्वा” – जो स्वयं दीप्त है और दूसरों को दीप्ति देता है, वह भी देव है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा ज्ञान, बल, धन, भी देव हैं । यदि कोई व्यक्ति नदी, वृक्ष, पर्वत पशु या पक्षी से कुछ शिक्षा ग्रहण करता है तो उसका दृष्टि में ये जड़ पदार्थ भी देव या गुरु अथवा ऋषि कहला सकते हैं, वेद में जब इन्ही देवों के सम्बन्ध में कुछ वर्णन होता है तब इन्हीं देवों को देवता कह देते हैं । देवता शब्द वेद का पारिभाषिक शब्द है, इसलिए वेद में देवता चेतन हैं, जड़ भी हैं, बड़े हैं, छोटे भी हैं, अवयवी हैं, अवयव भी हैं। ब्रह्माण्ड का प्रत्येक पदार्थ किसी-न-किसी दीप्ति (विशेषता) से युक्त होने के कारण दिव्य है, किन्तु जब तक वह किसी वेदमन्त्र का प्रतिपाद्य विषय न हो, तब उस दवता नहीं कह सकते । ‘यस्य देवा देवताः सम्बभूवः’ अ०१६-४-४ ।। वेद में कुल देवता ४७६ हैं, जिनमें से ७१ ऋषि भी हैं। ऋषि वेद के देवतावाची शब्दों में से अग्नि, इन्द्र, और आत्मा शब्द ऋषिवाची भी है। ऋषिवाची शब्द भी यौगिक हैं। अर्थात् कोई भी आगे बढ़ने वाला- प्रगतिशील व्यक्ति या पदार्थ अग्नि शब्द से गृहीत होगा । यह अग्नि-ऋषिः= मन्त्रार्थद्रष्टा या मन्त्रार्थ दर्शियता भी हो सकता है और देवता-मन्त्र का विषय अर्थात प्रतिपाद्य भी हो सकता है इसी प्रकार ऐश्वर्या की कामना करने वाला कोई भी व्यक्ति- इन्द्र ऋषि कहलाएगा, और ऐश्वर्य संपन्न व्यक्ति – इंद्र देवता कहलायेगा। वेद के ऋषियों में माषा:, मत्स्य, प्रयोग शब्द: भी परिगणित हैं, इसका यह अर्थ नहीं कि इन मन्त्रों को उड़द की दाल या मछली या प्रयोग नामक व्यक्ति ने समझा और देखा था, वेद के शब्दों का यदि केवल रूढ अर्थ माने तो इस समस्या का हल संभव नहीं लेकिन यौगिक अर्थ को स्वीकार करते ही शत्रुओं का नाश करने वाला व्यक्ति या पदार्थ ‘माष’ सदा प्रसन्न रहने वाला ‘मत्स्य’ और प्रत्येक समस्या का प्रयोग करके समाधान करने वाला–‘प्रयोग’ कहलाएगा और ऐसा व्यक्ति या पदार्थ ऋषि हो सकता है अर्थात् मन्त्रार्थ की भावना का उपदेश करने के कारण वह मार्गदर्शक या गुरु कहला सकता है। समन्वय कुछ शब्द ऋषि और देवता दोनों की सूचियों में हैं। इससे संकेत मिलता है कि ऋषि और देवता में कुछ घनिष्ठ सम्बन्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि – १-ऋषिवाची शब्द के यौगिक अर्थ से प्रेरणा लेकर अपने आचरण को तदनुरूप बनाने वाला मनुष्य भी उसी ऋषि पद को प्राप्त कर सकता है। २-ऋषि के आचरण के समान आचरण बनाकर वह उस मन्त्र के देवता पद को भी प्राप्त कर सकता है। अर्थात् देवता का सखा=समानख्यान बनने के लिए उस मन्त्र के ऋषि के गुणों को अपने आचरण में ढालना आवश्यक है। अथवा दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जब तक वेद का कोई जिज्ञासु ऋषि शब्द की भावना को पूरी तरह आत्मसात् नहीं कर लेता, वह उस मन्त्र के देवता का साक्षात्कार नहीं कर सकता और मन्त्र के रहस्यार्थ को भी पूरी तरह समझ नहीं सकता।
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