वेदों में पाप का परिणाम क्या है ?

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  • धर्म-पथ
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  • 31 October 2024
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श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-   Mystic Powerपाप क्या है ? - पाप और पुण्य के लक्षणों के विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद है। यजुर्वेद के निम्नलिखित मन्त्र की सहायता लेने से पाप और पुण्य का बहुत सुन्दर लक्षण निकलता है।   "पाप्मा हतो न सोमः।" ( यजुर्वेद ६.३५)   अर्थात् जीवन से पाप नष्ट हो, सोम अर्थात् सोम्य गुण नहीं। इस मंत्र से स्पष्ट है कि पाप का उल्टा सोम या सोम्यगुण है और सोम का उल्टा पाप है। इस मंत्र के अनुसार यह भाव निकलता है कि सोम अर्थात् सोम्यगुण, सुशीलता और सद्गुण पुण्य हैं और इसके विपरीत दुर्गुण ही पाप हैं। संक्षेप में पाप और पुण्य को इस प्रकार समझा जा सकता है। सद्गुणों को पुण्य कहते हैं और दुर्गुणों को पाप कहते हैं। सद्गुण सुख और शान्ति के साधक हैं, अतः सद्गुणों पर आश्रित प्रत्येक कार्य पुण्य होगा। इसी प्रकार दुर्गुण दुःख और अशांति के कारण हैं, अतः दुर्गुण-मूलक प्रत्येक कार्य पाप होगा । पाप क्यों करते हैं ?- मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्ति में सुसंस्कार और कुसंस्कार बीज रूप में रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्वजन्म के सु या कु संस्कारों से प्रभावित होता है । परिणाम यह होता है कि पूर्व संस्कारों के कारण व्यक्ति में किसी एक प्रकार के संस्कारों की प्रधानता हो जाती है। उनके अनुसार ही वह सद्गुणों या दुर्गुणों की ओर झुकता है। पूर्व संस्कार उसके इस कार्य में साधक या बाधक होते हैं। यदि व्यक्ति सत्त्वगुण प्रधान है तो उसमें तमोगुणी प्रवृत्तियाँ उदय होने पर भी नष्ट हो जाती हैं। यदि व्यक्ति मूलतः तमोगुणी है तो उसमें तमोगुणी वृत्तियां निरन्तर अभिवृद्धि को प्राप्त होती हैं। उसके हृदय में भी सात्त्विक भाव उदय होते हैं, परन्तु वे उसके हृदय पर स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। यही कारण है कि कुछ व्यक्ति जन्म से ही सुशील और सच्चरित्र होते है। दूसरे प्रकार के व्यक्ति जन्म से ही दुर्जन और दुश्चरित्र । मनुष्य की रजोगुणी वृत्तियां कुछ अंश में तथा तमोगुणी वृत्तियां पूर्णरूप से पाप में प्रवृत्ति के कारण हैं | मनुष्य में जब तमोगुणी प्रवृत्तियों की प्रबलता होती है, तभी मनुष्य पाप की ओर प्रवृत्त होते हैं। यहाँ उसके जीवन के पतन का प्रथम चरण है। पाप से कैसे बचें ?- पाप से बचने का सर्वप्रथम साधन विवेक है। परमात्मा ने पशु-पक्षियों आदि की अपेक्षा मनुष्य को एक अनुपम शस्त्र दिया है, वह है विवेक । विवेक शक्ति का कार्य है- कर्तव्य और अकर्तव्य का स्पष्ट निर्णय करना । मनुष्य यदि विवेक से कार्य करेगा तो वह सभी पापों से वच सकता है। पापों से बचने के अन्य साधन ये हैं -   १. आस्तिकता । ईश्वर को सर्वव्यापक समझने से वह कोई पाप नहीं कर सकता है, क्योंकि जो भी पाप मनुष्य करेगा, उसको परमात्मा देख रहा है ।   २. सत्त्वगुण का विकास । जीवन में सात्त्विक गुणों की वृद्धि करना और तामसिक गुणों को दूर करना ।   ३. धार्मिक कृत्यों के प्रति अनुराग ऐसा करने से पाप के प्रति उसे घृणा होगी।   ४. इच्छाशक्ति का विकास। इच्छाशक्ति को विकसित करने से मनुष्य पाप- भावना को बलात् रोक सकता है। उसकी इन्द्रियां उसके वश में रहेंगी।   ५. सत्संगति । सत्संगति करने से दुर्जनों का साथ नहीं होगा और न दुर्गुणों की ओर प्रवृत्ति होगी ।   ६. धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन से मनुष्य पाप के प्रति घृणाभाव रखता है ।   ७. अनासक्ति भाव । कर्मों को अनासक्त भाव से तथा कर्तव्य समझते हुए   ८. प्रायश्चित । यदि कोई पाप जाने या अनजाने किया है तो उसके लिए प्रायश्चित करना । ऐसा करने से मनुष्य का मन निर्मल हो जाता है ।   पाप का परिणाम क्या ? संक्षेप में पाप के ये दुष्परिणाम होते हैं।   १. विवेकहीनता । पाप का परिणाम यह है कि पाप-भावना मनुष्य की विवेक- शक्ति को नष्ट कर देती है। विवेकशक्ति का नाश मनुष्य का सर्वनाश है। अतएव गीता में भी श्रीकृष्ण ने कहा है कि 'बुद्धिनाशात् प्रणश्यति, ' अर्थात् बुद्धि के नाश से मनुष्य का ही नाश हो जाता है ।   २. नास्तिकता । सच्चे अर्थों में आस्तिक मनुष्य पाप नहीं कर सकता है। पाप करने से पूर्व मनुष्य के हृदय में नास्तिकता का विकास होता है। वह कर्तव्य-बुद्धि से हीन होकर ही पाप करता है। शनैः शनैः यह नास्तिकता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रवेश कर जाती है और परिणामस्वरूप उसका जीवन भाररूप और मानवता से हीन हो जाता है।   ३. तमोगुण का प्रसार । सत्त्वगुण के क्षय के कारण मनुष्य का हृदय तमोगुण के आवरण से आवृत हो जाता है। तमोगुण उसे पथभ्रष्ट करता है और शनैः-शनैः वह कर्तव्यच्युत होकर भौतिक गुणों को ही जीवन का लक्ष्य समझने लगता है। इस प्रकार वह अपने जीवन के लक्ष्य से ही च्युत हो जाता है।   ४. अधर्म के प्रति अनुराग जीवन में तमोगुण के प्रसार से मनुष्य की प्रवृत्ति अधर्म और कुकर्म की ओर हो जाती है। वह संसार को अपनी स्वार्थसिद्धि का साधन समझने लगता है ।   ५. इच्छाशक्ति का ह्रास । तमोगुण के साथ मनुष्य की इच्छाशक्ति नष्ट होने लगती है। इच्छाशक्ति के नाश के साथ ही आत्मसंयम भी समाप्त हो जाता है।   ६. कुसंगति । आस्तिकता की समाप्ति के साथ ही मनुष्य कुसंगति की ओर अग्रसर होता है । कुसंगति से वह अपना तेज, यश, शील आदि सभी सद्गुणों की खो बैठता है।   ७. असद्ग्रन्थों का अध्ययन । तमोगुण मनुष्य में असद्विचारों को जन्म देते हैं। असद्विचारों वाला व्यक्ति असद् ग्रन्थों का पठन-पाठन करने लगता है। उसके असंस्कृत विचार उसे अशिष्ट और अनुचित साहित्य पढ़ने के लिए प्रवृत्त करते हैं। ऐसे ग्रन्थों के पढ़ने से उसके विचार दूषित होते हैं और वह कुमार्गगामी होकर अपने जीवन को दुःखमय बना लेता है।   ८. अशुभ संस्कार । पाप-भावना मनुष्य के शुभ संस्कारों को नष्ट कर देती है। फलस्वरूप वह दुर्विचारों का शिकार हो जाता है और शनैः-शनैः असंस्कृत व्यक्ति हो जाता है। ये अशुभ संस्कार उसके इस जीवन और भावी जीवन को दूषित कर देते हैं।   ९. आसक्तिभाव । दुर्विचारयुक्त व्यक्ति धन-जन सभी से अपनी आसक्ति बढ़ाता है। वह आसक्ति के कारण स्वार्थ को ही जीवन का परम लक्ष्य मानता है। वह स्वार्थ भावना के कारण ही अपने जीवन को नष्ट कर लेता है। ऋग्वेद के शब्दों में वह 'केवलाघो भवति केवलादी' अकेला खाने वाला अकेला ही पापी होता है। इस सुभाषित का उदाहरण हो जाता है।   १०. समूल नाश । कर्तव्य से च्युत होने से व्यक्ति अधिक या अस्थायी लाभ को लाभ समझ बैठता है । परन्तु अधर्म और असत्य पर आधारित समृद्धि रेत के गुल तुल्य होती है। ऐसे व्यक्तियों के लिए मनु का कथन है कि- अधर्म से मनुष्य की क्षणिक समृद्धि होती हैं, वह कुछ समय के लिए सुख भोग भी करता है तथा शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है, परन्तु उसका अन्त अत्यन्त दुःखद होता है। वह व्यक्ति समूल नष्ट हो जाता है।   "अधर्मेणैधते तावत्, ततो भद्राणि पश्यति । ततः सपत्नान् जयति, समूलस्तु विनश्यति ।।" ( मनु० ४. १७४ ) यहाँ पर यह ठीक ढंग से समझ लेना चाहिए कि जिस कार्य के करने से आत्मा को सुख और शान्ति प्राप्त होती है, वह पुण्य है। जिस कार्य के करने से मनुष्य को दुःख अशान्ति, शोक और विपत्ति प्राप्त होती है, वह पाप है। मनुष्य को सदा ऐसे पापों से बचना चाहिए। पाप इस जीवन को ही नहीं, अपितु भावी जीवन को भी नष्ट कर देते हैं। साथ ही यह समझ लेना आवश्यक है कि व्यक्तिगत हित की अपेक्षा समाज हित बढ़कर है, समाजहित से भी देशहित बढ़कर है और देशहित से भी विश्वहित बढ़कर है। अतः मनुष्य को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए, जिससे राष्ट्र या विश्वहित को हानि पहुँचे ।   वेदों का मन्तव्य -   १. कुमार्ग को छोड़कर सन्मार्ग पर आयें । 'परि माग्ने दुश्चरिताद् बाधस्वा मा सुचरिते भज ।" ( यजु० ४.२८)   २. पापों के बन्धनों से हों । मुक्त हों।   " निर्वरुणस्य पाशान्मुच्ये ।" (यजु० ५.३९)   ३. प्रायचित के द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो ।   "देवकृतस्यैनसोऽवयजनमसि० ।" (यजु० ८.१३)   देवता, मनुष्य, पितृगण तथा अपने प्रति भी किए गए पापों को प्रायश्चित की शुद्ध भावना नष्ट कर देती हैं।   ४. पाप के कारण होने वाले अनैश्वर्य, निस्तेजस्विता आदि बन्धनों से मुक्त हों।   "अभूत्याः पाशान्मा मोचि । निर्भूत्याः पाशान्मा मोचि ।" ( अथर्व० १६.८.३ ,४)   ५. परमात्मा का दण्ड-विधान अतिकठोर है।   "वशा हि सत्या वरुणस्य राज्ञः ।" ( अथर्व० १.१०.१)   ६. दुर्विचारों और पाप भावों को दूर भगावें ।   "परोऽपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि ।" ( अथर्व ६.४५.१)   ७. पाप-भावना के निवारणार्थ ईश्वर से शक्ति की प्रार्थना करें ।   " मा नस्तस्मादेनसो देव रीरिषः ।" ( अथर्व० ६.५१.३)   ८. सभी प्रकार के पापों को प्रायश्चित्त से दूर करें, जैसे स्नान से शारीरिक मैल को।   " द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्न स्नात्वा मलादिव ।" ( अथर्व० ६.११५.३ ) वेद में पापों से निवृत्ति के सैकड़ों मन्त्र हैं। यहाँ पर केवल दिग्दर्शनार्थ कुछ मन्त्र प्रस्तुत किए गए हैं।  



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