वेदो शिवम शिवो वेदम

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र (प्रशासनिक सेवा) वेदाचार्य ज्योतिषाचार्य आयुर्वेदरत्न विज्ञान कहता है कि ब्रह्मांड का निर्माण एक महाविस्फोट के परिणामस्वरूप हुआ। इसी को महाविस्फोट सिद्धान्त या बिग बैंग सिद्धान्त कहते हैं, जिसके अनुसार से लगभग बारह से चौदह अरब वर्ष पूर्व संपूर्ण ब्रह्मांड एक परमाण्विक इकाई के रूप में था।उस समय मानवीय समय और स्थान जैसी कोई अवधारणा अस्तित्व में नहीं थी।महाविस्फोट सिद्धांत के अनुसार लगभग 13.7 अरब वर्ष पूर्व इस धमाके में अत्यधिक ऊर्जा का उत्सजर्न हुआ। यह ऊर्जा इतनी अधिक थी जिसके प्रभाव से आज तक ब्रह्मांड फैलता ही जा रहा है। सारी भौतिक मान्यताएं इस एक ही घटना से परिभाषित होती हैं जिसे महाविस्फोट सिद्धांत कहा जाता है। यही महाविस्फोट का सिद्धांत हमे वेदों में मिलता है ,ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त है नासदीय सूक्त, इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है।यह सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में काफी सटीक तथ्य बताता है।   वही उपनिषद के अनुसार ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा- यह तीन तत्व हैं। ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ ‘बढ़ना’ या ‘फूट पड़ना’ होता है। ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। इसलिए ही कहा जाता गया है कि विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है। शिव का शाब्दिक अर्थ है ‘जो नहीं है।’ यानी वही हैं जिससे सृष्टि का आरम्भ हुआ ।।   शिव का एक अर्थ है शून्य और शून्य से ही निर्माण हुआ है सृष्टि का , कई बार ये प्रश्न आता है कि यदि वेद ही शिव है और शिव ही वेद है तो उनका उल्लेख क्यों नही है , आइये देखते है –   त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। (यजु० 3/60)   या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी। तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि ।। (यजु० 16/02)   अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्। अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव।। (यजु० 16/05)   नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च। मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।। (यजु० 16/41)   या ते रुद्र शिवा तनू: शिवा विश्वाहा भेषजी। शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे।। (यजु० 16/49)   तत्ववेत्ताओं ने शिव के स्वरूप को चिन्मय और उसकी सहजसिद्ध चैतन्य शक्ति के संयुक्त रूप में अनुभूत किया।चिन्मय के बिना चैतन्यता क्रियाशील नहीं हो पाती है और चैतन्यता के अभाव में चिन्मयता अबोधगम्य हो जाता है। चैतन्यता ही वह इक्षण शक्ति है जिसके ‘इ’ कार से संयुक्त होने पर ‘शव’ रूपेण निर्विकल्प-शांत चिन्मय ‘शिव’ के कल्याणकारी स्वरूप में व्यक्त हो उठता है। चिन्मय व चैतन्यता की इक्षण-शक्ति के युग्म से निरूपित हुआ शिव का यह स्वरूप ही सृष्टि का मूल कारक होने के कारण ‘अर्धनारीश्वर’ बना , चंद्र चक्र में आने वाली सबसे अंधेरी रात को शिवरात्रि कहते हैं।फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष में पड़ने वाली शिवरात्रि तिथि, वस्तुतः शिव और शक्ति के महामिलन का अनमोल क्षण है। इसकी प्रामाणिकता शीत से मुक्ति व वसंत के मधुमास की संधि रूप में प्रत्यक्ष अनुभव की जा सकती है।   विशेष – एवं परस्परापेक्षा शक्तिशक्तिमतो: स्थिता। न शिवेन विना शक्तिर्न शक्तया विना शिव:॥ (शिवपुराण) ‘शक्ति और शक्तिमान (शिव) को सदा एक-दूसरे की अपेक्षा रहती है। न तो शिव के बिना शक्ति रह सकती है और न ही शक्ति के बिना शिव रह सकते हैं।’   इससे यह स्पष्ट है कि शिव न हों, तो शक्ति की कल्पना बेमानी है। वहीं, अगर शक्ति न हो, तो शिव का अस्तित्व असंभव है। इसी कारण ‘इ’ कार (शक्ति) हीन शिव तो ‘शव’ बन जाता है। वस्तुत: शक्तिमान के स्वरूप की अभिव्यक्ति उनकी शक्ति से होती है। इसलिए शक्ति का स्वरूप भी वही है, जो शक्तिमान का है। सही मायने में शिव और शक्ति एक-दूसरे के अभिन्न हैं। जैसे-जलते हुए दीपक की शिखा सारे घर को उजाला देती है, उसी तरह शिव-पार्वती का तेज सर्वत्र व्याप्त होकर संपूर्ण जगत को प्रकाश दे रहा है। ये दोनों-शिवा और शिव मिलकर सारी सृष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं। वेदों में शिव को ‘रुद्र’ कहा गया है। उपनिषद् का कथन है-शिव नर तो उमा नारी, शिव ब्रह्मा तो उमा सरस्वती, शिव विष्णु तो उमा लक्ष्मी, शिव लिंग-रूप तो उमा पीठ (अर्घा) हैं। अर्थात् संसार में जितने पुल्लिंग प्राणी हैं, वे सब महेश्वर (शिव) के प्रतिरूप हैं तथा जितने स्त्रीलिंग प्राणी हैं, वे सभी उमा (पार्वती) के स्वरूप हैं।



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