मनोहर विधालंकर- यजुर्वेद में सरस्वती देवता के मन्त्र बहुत कम हैं। ब्रह्मर्षि श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा सम्पादित दैवत संहिता के अनुसार यजुर्वेद में केवल दो मन्त्र पूर्ण रूप से सरस्वती देवता के हैं । कुछ मन्त्रों में सहचारी देवता के रूप में सरस्वती की चर्चा है। सरस्वत्यै यशो भगिन्यै स्वाहा । -यजुः २-२० का अंश ऋषिः-परिमेष्ठी प्रजापतिः । शब्दार्थ– (यशोभगिन्य) यश और ऐश्वर्य को प्रदान करने वाली अथवा कीति की भगिनी (बहिन) सदृश (अरस्वत्यै) सरस्वती देवी-(संस्कृति, मातृत्वकामा विदुषी स्त्री, वेदवाणी, वाणी, गौ या नदी में से प्रकरणानुसार) के लिए (स्वाहा) स्वाहा हो अर्थात् तदनुमोदित उपदेश को स्वीकार करके उस पर आचरण करने के लिए, संकल्पपूर्वक बोलकर आहुति देते हैं। निष्कर्ष-सरस्वती कीर्ति की बहिन है। इन दोनों में बहिनों के सदृश प्रेम तथा साहचर्य है। सरस्वती को अपनाने वाले को कीर्ति सहज ही मिल जाती है। इस मन्त्र का ऋषि प्रजापति है। प्रजापति के दो रूप हैं—मनुष्य तथा देव । मनुष्य सरस्वती के किसी भी रूप की साधना करके प्रजापति (उत्पादक) बन सकता है। यदि वह सरस्वती की कृपा से दिव्यता उत्पन्न कर ले तो वह परम अवस्था को प्राप्त (देव) प्रजापति परमेष्ठी प्रजापति बन जाता है। सरस्वती की साधना के फलस्वरूप बिना चाहे यश और ऐश्वर्य मिलता है। सरस्वत्या वाचा देवतया प्रसूतः प्रसपामि। यजुः १०-३० का अंश ऋषिः- शुनःशेप। शब्दार्थ– (देवतया) दिव्य गुण तथा कर्म से युक्त (वाचा) वाणी द्वारा और (सरस्वत्या) वेदवाणी अथवा संस्कृति की देवता द्वारा (प्रसूत:) प्रेरित होकर (प्रसामि) जीवनपर्यन्त, कर्तव्य कर्मों को सम्पन्न करने के लिए प्रवृत्त रहता हूँ। निष्कर्ष-स्वयं सुख, अन्न या धन प्राप्त करना चाहते हो, अथवा दूसरों को देना चाहते हो तो वेदवाणी द्वारा प्राप्त उपदेशों को आचरण में लायो। विशेष—इस मन्त्र का ऋषि शुनःशेप संकेत करता है कि यदि तुम इस दुनिया में सुख चाहते हो तो दूसरों के लिए सुख स्वरूप बनकर उन्हें सुख पहुँचाने के प्रयत्न में लगे रहो। अविर्न मेषो नसि वीर्याय प्राणस्य पन्था अमृतो ग्रहाभ्याम् । सरस्वत्युपवाकैानं नस्यानि बहिर्बदरैर्जजान ॥ -यज१९-६० ऋषिः- शंखः । छन्द:-भुरिक् पङ्क्तिः । शब्दार्थ– (सरस्वती) सुषम्ना में गति करने वाली कुण्डलिनी शक्ति (नस्यानि) नासिका में रहने वाले प्राणों को (बदरैः उपवाकैः) स्थिर तथा नियत तिर्यक् (तिरछी) गतियों द्वारा (बर्हिः) हृदयान्तरिक्ष में पहुँचाने के बाद उसे (व्यान) सारे शरीर में व्याप्त होकर चलने वाला व्यान (जजान) बना देती है। इसलिए हे प्राणनियामिके सरस्वति देवि ! (वीर्याय) वीर्यशाली बनाने के लिए (मा) मुझे (अविः न) वायु के समान (नसि) नासिका में (इषः) प्राप्त होती रह; क्योंकि (प्राणस्य पन्थाः) प्राणायाम का पथ (ग्रहाभ्याम् ) अन्तः–बहिः अथवाकुम्भक रेचक रूप दो प्रकार के ग्रहणों द्वारा (अमृतः) अमृत रूप है अर्थात् स्वास्थ्य, दीर्घ जीवन और सुख तथा शान्ति देने वाला है। विशेष—इस मन्त्र का ऋषि शंख (शं+ख) इन्द्रियों की शान्ति चाहने वाला है। उस शान्ति को प्राप्त करने के लिए प्राकाग में विचरने वाली वायु का सहारा लेता है-प्राणायाम साधना करता है । और संकेत करता है कि यदि इन्द्रियों को शान्त रखना चाहते हो तो प्राणायाम करते रहो। निष्कर्ष-१. प्राण की साधना के बिना इन्द्रियाँ शान्त नहीं रह सकतीं। प्राणायाम साधना में प्राणों को अन्दर लेने और बाहर ले जाने द्वारा (कुंभक, रेचक रूप) दो प्रकार से ग्रहण करने होते हैं। इन दो ग्रहणों के द्वारा ही वे स्वास्थ्य, सुख और शान्ति प्रदान करते हैं। २. प्राण की गति तिर्यक् मानी गई है। ऊर्ध्वः सुप्तेषु जागार, ननु तिर्यङ् निपद्यते । अथर्व ११-४-६५ । ३. जब तक प्राण को व्यान का रूप न प्राप्त हो जाए तब तक सर्वांगीण उन्नति नहीं हो सकती। -४. अवि की तरह प्राप्त हो, इसमें अवि से उपमा दी है। अवि के भेड़, सूर्य, स्त्री आदि अन्य अर्थ भी हैं। इसलिए इसके ये अर्थ होंगे। मुझे सहगामिनी स्त्री की तरह आवश्यकता के समय सदा सुलभ रह। सूर्य के समान प्रतिदिन मुझे नवजीवन दे । और फिर भेड़ की तरह -एक के पीछे एक बिना सोचे चल देती है वैसे ही मेरे इस क्षण के प्राण के बाद का प्रत्येक प्राण इसी पथ पर चलता चला जाए। सरस्वत्यै स्वाहा, सरस्वत्य पावकार्य स्वाहा, सरस्वत्यै बहत्यै स्वाहा । -यजुः २२-२०का अंश। ऋषिः-प्रजापतिः । शब्दार्थ– (सरस्वत्यै) वाणी रूप धारिणी, मात रूप धारिणी, संस्कृति रूप धारिणी, गी रूप धारिणी तथा नदीरूप धारिणी सरस्वती देवी के लिए (स्वाहा) उत्तम वाणी का प्रयोग करते हैं और आवश्वकता पड़ने पर इनके लिए अपने स्वार्थ का त्याग करते हैं। (पावकार्य) सरस्वती के सब रूप पवित्रता करने वाले हैं, इसलिए पवित्रता रूपिणी सरस्वती का हम (स्वाहा) अच्छी प्रकार आह्वान करते हैं। वह हमारी प्रार्थना को स्वीकार करके आए और हमें पवित्रता प्रदान करे। (बृहत्यै सरस्वत्यै) बृहत्ता—बड़प्पन प्रदान करने बाली सरस्वती को हम (स्वाहा) संकल्प पूर्वक बुलाते हैं; वह हमारे संकल्प को पूर्ण करने के लिए अपनी बृहत्ता प्रदान करे। निष्कर्ष-सरस्वती के सब रूप पवित्रता और बृहत्ता प्रदान करने वाले हैं । सरस्वती का जो सच्चे हृदय से आह्वान करेगा, और उसे प्रसन्न करने के लिए स्वार्थ त्याग करने को उद्यत रहेगा; सरस्वती देवी उसके अभिवाञ्छित अर्थ को अवश्य प्रदान करेगी। पावमानी वरदा वेदमाता भी सरस्वती है। उसने हमें आयुः, प्राण, प्रजा, पशु कीर्ति, द्रविण तथा ब्रह्म वर्चस प्राप्त कराने की प्रतिज्ञा की है। इसलिए यदि हम अपनी पात्रता बनाए रखेंगे तो ये वस्तुएँ आवश्यकतानुसार प्राप्त होती रहेगी। अथर्व०१६-७१ विशेष—इस मन्त्र का ऋपि प्रजापति है। प्रजापति–सन्तान की उत्पति करके उनका पालन-पोषण करता है, और इसीलिए उनका स्वामी बना रहता है। इसी प्रकार जो उत्पादन करेगा और उत्पन्न भूत वर्ग का पालन-पोषण करेगा वह प्रजापति बनेगा। उसे सरस्वती देवी सदा पवित्रता और बृहत्ता प्रदान करती रहेगी। फल्गूर्लोहितोर्णी पलक्षी ताः सारस्वत्यः। -यजुः २४-४ का अंश ऋषिः-प्रजापतिः। शब्दार्थ– (फल्ग:) फलों को प्राप्त करने वाले (लोहितोर्णी) लाल बालों वाले (पलक्षी) चंचल आँखों वाले–(ताः) मादा पशु-पक्षी (सारस्वत्यः) सरस्वती से सम्बन्ध रखते हैं। विशेष-इस मन्त्र से संकेत मिलता है कि-(फल्गः) फल को प्राप्त कराने वाली अर्थात् सफलता प्राप्ति की सब क्रियाएँ वाणियाँ तथा वृत्तियाँ और (लोहितोर्णी) लाल वर्ण वाली अर्थात् रजोगुणमिश्रित क्रियाएँ वाणियाँ तथा वृत्तियाँ तथा (पलक्षी) प्रगति तथा रक्षा प्रदान करने वाली क्रियाएँ वाणियां तथा वृत्तियाँ (सारस्वत्यः) सरस्वती से सम्बन्ध रखती हैं। पंचनद्यः सरस्वतीमपियन्ति सस्रोतसः । – सरस्वती तु पंचधा सो देशेऽभवत्सरित्॥ -यजुः ३४-११ ऋषिः—प्रजापतिः । छन्दः—निचूदनुष्टुप् ।। शब्दार्थ-(पंचनद्यः) पाँच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाले पाँच प्रकार के ज्ञान सतत प्रवाह रूप में चलते रहने से नदी के समान हैं, और (सस्रोतसः) एक हो माध्यम मन के द्वारा (सरस्वतीं) स्पाइनलकॉर्ड =मेरुदण्ड स्थित सुषम्ना नाड़ी में (अपियन्ति) प्रच्छन्न रूप से प्राप्त होते हैं। तदनन्तर (सा सरस्वती सरित्) सतत प्रवाहमयी ज्ञानवाहिनी नदी रूपिणी वह सुषुम्ना सरस्वती (देशे) मस्तिष्क प्रदेश में पहुँचकर (पंचधाः) पुनः पाँच प्रकार से (अभवत्) रूप धारण करके अनुभव होती है।
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