(पं० श्रीकरुणापतिजी त्रिपाठी, उपकुलपति वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी)-
Mystic Power- हनुमानजी की पूजा कब से आरम्भ हुई? यह कहना कठिन है। परंतु इतना निर्भ्रान्त रूप से कहा जा सकता है कि वाल्मीकि रामायण में प्रत्यक्ष और व्यापकरूप से हनुमानजी का विस्तृत चरिताङ्कन उपलब्ध है। वहाँ जो उनका स्वरूप काव्यायित हुआ है, वह कहाँ तक ऐतिहासिक- सांस्कृतिक है और कहाँ तक काव्यात्मक एवं काव्यालंकारात्मक है- यह एक भिन्न प्रश्न है। पर श्रीराम- कथापरक काव्यों में उनका चरित अत्यन्त उदात्त, उज्ज्वल, आदर्श और अनुकरणीय है। उनके अनेक रूप हैं। वे श्रीराम, जानकीजी और लक्ष्मण के ही सेवक नहीं हैं, अपितु भरत शत्रुघ्न के भी सेवक हैं। वे भक्त हैं और धीर, वीर, बुद्धिमानों में अग्रणी तथा सभाचतुर हैं। लंका- दहन के समान अत्यन्त कठिन कार्य को भी वे अनायास करने वाले हैं तथा शतयोजन-विस्तीर्ण सागर को पार करते हुए असाध्य कर्म को करने में समर्थ हैं।
श्रीहनुमान से सम्बद्ध वाङ्मय
आदिकाव्य वाल्मीकिरामायण में हनुमानजी का काव्यात्मक चरित व्यापकरूप से अङ्कित हुआ है। उसका आरम्भ किष्किन्धाकाण्ड से होता है। सुन्दरकाण्ड में उसका अत्यन्त विस्तार है। लंकाकाण्ड में भी उसका प्रसार है। अन्त तक वह फैला हुआ है। उसके अनन्तर संस्कृत के श्रीरामकाव्यों, नाना रामायणों, पुराणों (जहाँ श्रीरामचरित वर्णित है) एवं नाटकों में उसका वर्णन मिलता है। प्राकृत- अपभ्रंश-काव्यों एवं भारतीय आधुनिक भाषाओं के साहित्य में भी हनुमानजी का स्वरूप चित्रित हुआ है। इसके अतिरिक्त उपासना-साहित्य, स्तोत्र - साहित्य एवं तान्त्रिक वाङ्मयमें भी हनुमानजी की पूजा, उपासना तथा तान्त्रिक साधना प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
हनुमानजी केवल श्रीरामोपासकों के ही देवता नहीं हैं, वे निगमागम पौराणिक और तान्त्रिक देव भी हैं। (जिसमें दक्षिणमार्गीय तन्त्रोपासना और वाममार्गीय तान्त्रिक देवता भी हैं।) साथ-ही-साथ लोकदेवता या जनदेवता भी हैं। जनदेवता से मेरा तात्पर्य है उन देवताओं से, जो वैदिक पौराणिक-तान्त्रिक पूजा-उपासना के साथ-साथ या उससे बाहर भी लोक में 'बीर' ग्रामदेवता या लोकपरम्परा के देवतारूप में पूजित होते हैं। झाड़-फूँक, अभिचार आदि में उनका पूजन-वन्दन होता है। इनके मन्त्र-तन्त्र को जगाया जाता है और उनके द्वारा असामान्य सिद्धि एवं फल की प्राप्ति बतायी जाती है। मुझे तो ऐसा लगता है, जैसे वाराणसी में मोजूबीर, लहुराबीर, कंकड़हवाबीर आदि 'बीर' हैं या उत्तर भारत के बहुत बड़े भाग में मान्यता प्राप्त 'जागते' देवता और सिद्धिकर्त्ता बीर या अन्य अपदेव हैं, उसी प्रकार हनुमानजी का एक रूप 'बीरोंका बीर' अर्थात् 'महाबीर' है। यह एक जनविश्वास है कि उनके नामोच्चारण मात्र को सुनते ही भूत-पिशाच, प्रेत, यक्ष आदि जनपीड़क अपदेवता दूर भाग जाते हैं। बचपन में जब किसी एकान्त-निर्जन रात्रि में भूत-प्रेतादि का डर लगता था, तब हम लोग 'जै हनुमान', 'जै महावीर'- का जप करके भयमुक्त हो जाते थे।
जनदेवता की उपासना में कोई सामाजिक बन्धन नहीं है। सब लोग सब काल में सभी जगह लोकदेवता का जप-पूजन कर सकते हैं। यह रूप भी लोक की तान्त्रिक या लोकागमिक लोकोपासना का है। हनुमानजी इस रूप में भी पूजित - वन्दित और अत्यन्त 'जागता' अर्थात् मान्यता के अनुसार अवश्य सद्यः फलद देवता हैं। यदि कोई शोधार्थी हनुमानजी पर शोध करे तो इस पक्ष पर भी पर्याप्त गवेषणा का अवकाश है।
जनदेवता के रूप में हनुमान पूजा का एक और रूप भी है, जो अत्यन्त रोचक है। उत्तर भारतके बहुत बड़े भाग में, प्रायः गाँव-गाँव एवं नगर के मुहल्ले-मुहल्ले में हनुमानजी के मन्दिर हैं। इन मन्दिरों में भक्तलोग प्रेमपूर्वक पूजा-अर्चना करते हैं। स्त्रियाँ अवश्य बहुत-से स्थानों पर हनुमानजी की मूर्तियों का स्पर्श इसलिये नहीं करतीं कि वे बालब्रह्मचारी हैं। घोर जंगलों में भी हनुमानजी के मन्दिर मिलते हैं। इन मन्दिरों का एक बहुत बड़ा सामाजिक महत्त्व भी है। गाँवों और नगरों के अनेक हनुमान- मन्दिरों के साथ-साथ व्यायामशालाएँ और अखाड़े हैं जहाँ आस-पास युवक और उत्साही जन एकत्र होकर व्यायाम तथा कुश्ती लड़ने का अभ्यास करते हैं।
तुलसीदासजी का योगदान
सम्भवतः वीर-कर्म के उपयुक्त वीरत्व-सम्पादन में रामचरितमानसकार तुलसीदासजी का भी बहुत बड़ा योगदान है। हनुमान मन्दिर और अखाड़ा- दोनों का समन्वय कब और कैसे प्रचलित हुआ— यह कहना कठिन है, पर चित्रकूट, अयोध्या और वाराणसी की किंवदन्तियों के अनुसार गोस्वामीजी द्वारा स्थापित अनेक हनुमान मन्दिरों के साथ व्यायामशालाएँ भी हैं। धीरे-धीरे इनमें कहीं-कहीं ह्रास भी हो रहा है। काशी के हनुमानघाट पर एक हनुमान- मन्दिर है। कहा जाता है कि गोस्वामी जी ने काशी में आठ प्रमुख हनुमान मन्दिरों की स्थापना की थी। उन्हीं में | संकटमोचन, हनुमान-फाटक और हनुमानघाट के हनुमानजी भी हैं। हनुमानघाट के हनुमानजी बहुधा 'बड़े हनुमानजी' कहे जाते हैं। अस्सी के तुलसीघाट से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर यह मन्दिर है और इसके साथ कभी बहुत बड़ी व्यायामशाला (अखाड़ा) भी थी। आज भी छोटे पैमाने पर वह वर्तमान है। गोसाईंजी के द्वारा स्थापित अन्य अनेक मन्दिरों के साथ भी व्यायामस्थल हैं। आचार्य श्रीरामचन्द्र शुक्ल की यह कल्पना उचित ही थी कि सम्भवतः गोस्वामीजी ने लोकरक्षक, आदर्श पुरुष भगवान् के मर्यादापुरुषोत्तमरूप को अवतारी मानकर समाज पुनरुत्थान का कार्य किया। गोस्वामीजी द्वारा कृत यह कार्य जहाँ तक एक ओर वैष्णवोपासनामें रामानुज - रामानन्द और औपनिषदिक दर्शनदृष्टि का लोकसुधारक समन्वितरूप है, वहीं दूसरी ओर युगबोध और युगीन-संकटबोध से प्रेरित जनजीवन में सामाजिक सांस्कृतिक क्रान्ति का भी प्रयास है। गोस्वामीजी का श्रीराम-दर्शन समाज-चेतना से अनुप्राणित है। श्रीराम- कथा, श्रीराम चरित और श्रीराम-भक्ति के माध्यम से गोस्वामीजी ने स्वान्तः सुख की साधना भी की और लोकहित एवं समाजसेवा का भी कार्य किया।
श्रीराम की आदर्श पूजा और आदर्श प्रतिष्ठा तक गोस्वामीजी को पहुँचाने वाले साधनों में हनुमानजी का स्थान अत्यन्त महत्त्व का है। किंवदन्ती के अनुसार श्रीरामरूप का प्रत्यक्ष दर्शन कराने वाले साधन के रूप में हनुमानजी की सहायता सर्वोपरि थी। अत: तुलसीदासजी ने लोकहित के लिये जनदेवता हनुमानजी की पूजा, मन्दिर-स्थापना और साथ-साथ व्यायामशालाओं का कार्यक्रम जोड़कर संसार में एक नयी चेतना उत्पन्न की।
जनदेवता
हनुमानजी से बढ़कर जनदेवता कौन हो सकता है। इनका जीवन श्रीराम के लिये प्रत्यक्षतः और ऋषि- मुनियों तथा रावण - खरदूषण - त्रस्त समाज की सेवा के निमित्त परोक्षत: समर्पित था। उनके समग्र जीवन में कहीं भी कोई स्वार्थ नहीं है। वे काम और लोभ, अभिमान तथा दर्प पर विजय प्राप्त कर चुके थे। शत्रुसंहार के समय रौद्र रस के अवसर पर उनमें क्रोध अवश्य झलक जाता है, पर वह वस्तुतः वीररससम्बद्ध उत्साह का संचारीभाव है।
स्वामिसेवा और समाज सेवा के लिये जैसा आदर्श समर्पित जीवन हनुमानजी का है, वैसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। वीरता और कर्तव्यनिष्ठा में उनका स्थान अतुलनीय है। जिस प्रकार के असाध्य और अवर्णनीयकम का उन्होंने सम्पादन किया, वे अवर्णनीय हैं। फिर भी वे निरभिमान ही रहे-यह उनका सबसे बड़ा गुण है।
वे समझते, जानते और मानते थे कि भगवान् की कृपा का ही सब परिणाम था, जो वे असाध्य-सम्पादन समर्थ हुए। वे उन सब में अपनी प्रभुता नहीं समझते थे। यहाँ तथ्य इतना ही है कि हनुमानजी में अभिमान, स्वार्थ, काम और लोभ इन सबका लव-लेश भी नहीं है। वे जितेन्द्रिय, ब्रह्मचारी, निःस्वार्थ, निष्काम, निर्लोभ और निरभिमान हैं। वे परम भक्त, श्रीराम के अनन्य सेवक, प्रत्युत्पन्नमति और परोपकार कर्ता हैं। वे सभी कष्टों एवं दुःखों से छुटकारा दिलाने वाले हैं। वे संकटमोचन, संकटहरण, शत्रुपर विजय एवं रोगों से छुटकारा दिलाने वाले और लोगों में बल, विद्या, बुद्धि, यश तथा शक्ति को बढ़ाने वाले हैं।
वे अपनी इन्हीं महिमाओं तथा कृपालुता एवं आशुतोषता के कारण जनदेवता बन गये। उनकी तान्त्रिक उपासना जहाँ अत्यन्त कठिन है, वहीं संकटमोचन हनुमानाष्टक और हनुमानचालीसा का पाठ सर्वसिद्धिदायक कहा जाता है। हनुमानजी की यह लोकप्रचलित उपासना सरल एवं सर्वजनसुलभ है। इसी से समग्र भारत में | उनकी पूजा-उपासना का इतना प्रचार-प्रसार है। निश्चय ही वे हिंदू जनता के जनदेवता हैं। चिरकाल तक हिंदू- समाज के कल्याणविधान में हनुमानजी की अनुकम्पा हमारा अभ्युदय करती रहेगी।
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