सिन्धियों के इष्ट देवता

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  • महापुरुष
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  • 31 October 2024
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डॉ. दिलीप कुमार नाथाणी विद्यावाचस्पति   Mystic Power - सिन्धियों के इष्ट देवता के सन्दर्भ में वर्तमान में एक विवाद चल रहा है। वस्तुतः सिन्ध प्रान्त पर कई विचारकों एवं सन्तों का प्रभाव था। वस्तुतः वे सभी वैदिक विचारधारा के प्रवर्तक ही थे। अतः मेरे लेखों की इस शृंखला में मैं यह प्रमाणित करने का प्रयास करूँगा कि सिन्ध प्रान्त एक सनातन धर्म कें अनुयायियों का ऐसा प्रदेश था जहाँ पंचदेवोपासना की परम्परा थी। उसी परम्परा के संरक्षक, के रूप में वरुणातार झूलेलाल ने जन्म ग्रहण किया था। यहाँ मेरे लेखों में मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं का आहत करना कदापि नहीं है वरन् प्राचीन सिन्धी—हिन्दू—समाज के आध्यात्मिक स्वरूप का मूर्त भाव प्रकट करना है। मेरे इन लेखों का उद्देश्य है कि अपने सनातन धर्म की रक्षार्थ हमारे पूर्वज आज से कई वर्षों पूर्व 1947 में अपनी पुण्यभूमि पैतृक भूमि सिन्धुप्रदेश को छोड़कर भारतीय बने रहने के लिये, सनातनी समाज से स्वयं का कटने न देने के लिये, जिस भू-प्रदेश को भारत कहा गया, जहाँ उनकी संस्कृति, परम्परा, धर्म को कोई अपमानित करने वाला नहीं हो, जहाँ वे अपनी परम्पराओं का निर्बाध (बिना रोकटोक) के पालन कर सकें, जिस स्थान पर वे अपनी सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण कर सकें, जहाँ उन्हें अपने संस्कारों (जातकर्म, अन्नप्राशन, जनेऊ, शिक्षा, विवाहादि) के लिये किसी से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं रहे। जहाँ वह स्वयं को गर्व से सिन्धी हिन्दू भारतीय कहे। इसी उद्देश्य से हमारे पूर्वज अखण्ड भारत के भू-प्रदेश जो कि महाभारत आदि जय साहित्य (महर्षि वेदव्यास के द्वारा लिखे गये सम्पूर्ण साहित्य को जय साहित्य कहा जाता है) में सिन्धु-सौवीर के नाम से जाना जाता है। उस प्रदेश को छोड़कर वर्तमान भारत में आकर बसे।   वर्तमान में हमारे सिन्धी समाज की ओर धर्मान्तरण के नाम पर राष्ट्रान्तरण करने वाली गुण्डी गैंगे गिद्ध दृष्टि लगाये बैठी हैं। जिस समय षडयन्त्रपूर्वक भारत का विभाजन किया गया था। उस समय से ही उद्देश्य एक ही था कि भारत के हिन्दूओं का धर्मभ्रष्ट किया जाय। वैदशिकों ने किसी भी रूप में जब-जब भारत में प्रवेश किया तब-तब सिन्ध के हिन्दूओं ने प्राणार्पण से उनका प्रतिकार किया। अतः कई आये एवं नष्ट हो गये। अन्त में जो गोरे आये वे उस समय आये जब भारत पर हिन्दूओं का राज नहीं था। दूसरा उनका प्रवेश स्थल मार्ग से नहीं वरन् जल मार्ग से हुआ। उन्होंने भारतीयो पर जो अत्याचार किये वे औरंगजेब को भी मात कर गये। यही नहीं उनकी गिद्ध दृष्टि धर्मान्तरण पर भी थी। इसलिये उन्होंने धर्मान्तरण के घिनौने खेल की दृष्टिसे सनातन हिन्दूओं पर अमानवीय अत्याचार ही नहीं किये अपितु कई विषबीजों का वपन किया उसी विषबीज के बोने की प्रक्रिया के  अन्तर्गत ही उन्होंने यह विभाजन किया, इसके कारण जो जो अपने घरों से विस्थापित कर दिये गये। वह पूरी जनसंख्या, उनके द्वारा चलाये जाने वाले धर्मान्तरण का आखेट (शिकार) थी।   धर्मान्तरण का प्रकल्प (एजेण्डा) कैसे चलाया जाता है?   वस्तुतः मेरा किसी भी सम्प्रदाय, आधुनिक दृष्टि के मजहबोें, से कोई वैर है ही नहीं। परन्तु मुझे अपने सिन्धी हिन्दुओं की रक्षा करने का कार्य करना है। धर्मान्तरण का जो प्रकल्प (एजेण्डा) चलाया जाता है वह न्यूनतम से न्यूनतम 150-200 वर्षों के दृष्टिकोण से किया जाता है। विभाजन की त्रासदी के दो उद्देश्य थे एक हिन्दूओं का सामूहिक नरसंहार दूसरा धर्मान्तरण। इन दोनों ही उद्देश्यों लक्ष्य एक ही था कि हिन्दूओं को समाप्त करना। विभाजन करके इसाई (अँग्रेज) चले गये किन्तु उन्होंने अपने बर्बर, अमानवीय पैशाचिक शासनकाल में कई ऐसे संगठनों की स्थापना की जो प्रत्यक्ष में तर्क के आधार पर ऐसी बातें करते थे जो कि प्रभावि प्रतीत होती थी किन्तु उनके दूरगामी परिणाम सनातन, वैदिक परम्परा के अनुयायी हिन्दूओं का सर्वनाश था। इन संगठनों मे ब्रह्म समाज, थियोसोफिकल सोसायटी, इन दोनों संगठनों के सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द ने अपने मद्रास भाषण में स्पष्ट कह दिया था कि ”ये दोनों एवं इसाई मिशनरियाँ मेरी हत्या करवाना चाहती हैं, ये चाहती हैं कि मैं उनकी भाषा में बोलूँ पर यह सम्भव नहीं है“ ब्रह्माकुमारी, तथा अन्यान्य कई वेदपाखण्डी परिषदें, संगठन जो सनातन धर्म शास्त्रों के विरुद्ध विषवमन (जहर उगलते) करते हैं।   जब जहाँगीर के समय यूरोप के समुद्री लुटेरों को भारत में व्यापार करने की अनुमति प्राप्त हुई। उसी दिन से उनका धर्मान्तरण का कार्य प्रारम्भ हो गया था। उसके उपरान्त ही भारत में कई प्रकार अकाल हुये बंगाल, उड़ीसा, चेन्नई, राजस्थान आदि कई प्रदेशों मे अन्न की भयंकर कमी हो गयी जिसके कारण उस समय लाखों हिन्दूओं का नरसंहार हुआ।  मातृशक्ति को अपमानित किया गया आदि। लक्ष्य वही कि हिन्दूओं की जनसंख्या का समाप्त किया जाय अथवा धर्मान्तरिक किया जाय। पूर्व में जिन-जिन संगठनों, परिषदों का उल्लेख किया है ऐसे ही कई अन्यान्य संगठन जिनकी स्थापना 16 वीं से लेकर 19 वीं शताब्दी तक हुई। इन्हीं विभिन्न संगठनों एवं परिषदों का दुष्प्रभाव हमारे सिन्धी समाज पर दृष्टिगोचर हो रहा है। अखण्डभारत के समय तो इनका प्रभाव न्यूनतम था। इसमें भी दादूदयाल सम्प्रदाय का प्रभाव था जो कि साकार-निराकार दोनों ही प्रकार की उपासना के प्रवर्तक थे। दादूदयाल जी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुये तथा जनसामान्य को भी ज्ञान देकर ऊँच-नीच को समाप्त करके ज्ञान का दान किया। उसी प्रकार लोकदेवता बाबारामदेव जिन्हें पूर्ण पुरुषोत्त्म, भगवान् श्रीकृष्ण जी का अवतार माना गया उसके अनुयायी भी सिन्ध प्रदेश में बहुतायात में दिखाई देते थे। पुष्टिमार्गी परम्परा का भी सिन्ध में बहुत ही अधिक प्रभाव दिखाई देता है। सिन्ध के हिन्दूओं में विशेषकर पुष्करणा ब्राह्मणों में ‘ब्रह्मसम्बन्ध’ का बहुत अधिक प्रभाव था तथा वह आज भी अक्षुण्ण रूप से है। वे कहीं नहीं भटके अपितु आज भी वे अपनी उसी परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं। मेरी बाल्यावस्था में कोई सिन्धी यदि लहुसन, प्याज, गाजर, मशरुम आदि नहीं खाते थे तो उन्हें वैष्णु (वैष्णव) माना जाता था तथा उनसे पूछा जाता था कि उन्होंने ब्रह्मसम्बन्ध लिया है क्या अथवा वे स्वयं ही कह देते थे कि उन्होंने ब्रह्मसम्बन्ध लिया हुआ है। उनमें यह परम्परा आज भी अक्षुणण रूप से विराजमान है। इसी प्रकार के क्षत्रिय वंश परम्परा में कई कुल हैं जो विट्ठल भगवान् एवं रुक्मणी की पूजा करते हैं वे नामदेव परम्परा में दीक्षित हैं। सकल रूप से देखा जाय तो ये पूर्णत: सनातनी वेद—स्मृति—पुराण को ही शब्द प्रमाण के रूप में ग्रहण करते थे। दु:ख का विषय यह है कि आज का सिन्धी यह बात जानता भी नहीं है। अतः अखण्ड भारत का सिन्ध सनातन परम्परा की आचार्य परम्परा से सुरक्षित था।   अखण्डभारत के समयावधि में ही कुछ नवीन संगठनों की स्थापना हुई। उनका उद्देश्य सनातन हिन्दू समाज को दिग्भ्रमित करना ही था। इनका लक्ष्य हिन्दू देवी-देवताओं का नाम लेते हुये हिन्दू धर्मशास्त्रों की विषय-वस्तु को ही लेकर चर्चा करना। परन्तु देवी-देवताओं को साधारण मानव बताना, धर्मशास्त्रों के मनमाने अर्थ करना। एवं अपने संगठन के संस्थापक को ही ईश्वर सिद्ध करके सनातन हिन्दूओं को उनके जप, तप, पूजा, पाठ, श्राद्ध, तर्पण, कर्मकाण्ड, संस्कारादि से दूर होने के लिये कहना। वर्तमान में ऐसे कई  ओमरामशान्ति कहने वाले पाखण्डी संगठन, परिषदें, सेवाप्रकल्प, कालवेला, आत्मास्वामी, निर्धन का अहंकार, भोगानन्दमार्गी, पीर, मोला, हैं जिनके चक्कर मे फँस कर सनातनी सिन्धी हिन्दू समाज अपनी आध्यात्मिक शक्ति का हृास कर रहा है। यह पतन का मार्ग ही नहीं वरन् धर्मान्तरण की प्रथम सीढ़ियाँ हैं। वर्तमान में जो भी इन संगठनों में जाकर अपनी सनातन वैदिक पूजा पद्धति का त्याग कर रहा है। घर में सत्नारायण की कथा, वीरल (पीताम्बर कृष्ण) भगवान् की कथा, नहीं करता, श्राद्ध तर्पण नहीं करता, तुलसी की सेवापूजा, भगवान् सूर्य का अघ्र्य नहीं देता, शिवभगवान् पर जल का लोटी नहीं चढ़ाता निश्चित जानो उसकी दूसरी नहीं तो तीसरी और तीसरी नहीं तो चैथी पीढ़ि अवश्य अवश्य ही धर्मान्तरित होगी। वह चाहे किसी भी धर्म का अनुसरण करे किन्तु विश्व की एक मात्र मानवीय संस्कृति सनातन वैदिक हिन्दू संस्कृति का अवश्य ही त्याग कर देगी। यही मुख्य षड्यन्त्र है जो मैं समझाना चाहता हूँ।   सिन्धियों का भटकाव दो दिशाओं में है एक प्रकार के सिन्धी हिन्दू कई अन्यान्य अवैदिक विचारकों के अनुयायी बनकर सनातनधर्म से दूर होते जा रहे हैं। दूसरी ओर अपने इष्टदेव के सन्दर्भ में भ्रान्तचित्त होकर वहाँ पर भी वैदिक देवताओं का त्यागकरके धर्म से विमुख होने की सीमा (कगार) पर खड़े हैं। हम सिन्धी हिन्दूओं का अपने अपने इष्ट देवता को पहचान कर उसकी पूजा करनी चाहिये। अभी मीडिया पर जो जागरूक सिन्धी हिन्दू हैं वे सव के वशीभूत होकर धर्मरक्षक वरुणावतारी भगवान् झूलेलाल को सम्पूर्ण सिन्धी हिन्दूओं का इष्ट देवता बता रहे हैं। यह बहुत ही बड़ी भ्रान्ति है। यद्यपि मेरे इस वाक्य से कई सिन्धी हिन्दूओं का बहुत ही बुरा लगेगा किन्तु यह सत्य है। अरे भाई वरुणावतारी झूलेलाल हम सिन्धी हिन्दूओं के धर्मरक्षक देवता हैं अतः गणपति की भाँति सर्वत्र पूजनीय हैं। परन्तु सभी नुखों (कुल या गोत्र) के अपने अपने इष्ट देवता हैं। जैसे मेरी नुख (गोत) वाँह है अतः हमारे इष्ट देवता ‘सवाई सापुरुष’ हैं। इनके इतिहास को जब हमें बताया जाता है तो उस इतिहास के अनुसार ये भगवान् श्री कृष्ण के अवतार थे तथा उन्होंने हमारे पूर्वजों की विपत्ति के समय रक्षा भी की थी। उसी प्रकार हमारी कुल देवी भी है। हमारी कुल देवी ंिहगलाज माता है। अतः सभी सिन्धी हिन्दूओं के कुल देवता, कुल देवी, इष्ट देवता, इष्ट देवी, कुल वृक्ष, आदि हैं। यही नहीं कई परिवारों के हितकारिणी कुछ अलौकिक शक्तियाँ भी हैं जिनकी वे समय समय पर पूजा आदि करते हैं। जैसे हमारे कुल में हम ‘कण्डे साँई’ नाम से अलौकिक (गैबी) शक्ति की पूजा करते हैं। विवाह आदि कई शुभकार्यों के समय कई सिन्धी हिन्दूओं में ‘जसराज’  करने की परम्परा है। वह भी इसी प्रकार की एक अलौकिक शक्ति है।   मेरे इस आलेख का  उद्देश्य यह है कि जिन भगवान् झूलेलाल ने अवतार ग्रहण करके सनातनी सिन्धी हिन्दूओं के धर्म, पूजापद्धति, देवाराधना, वैदिक परम्परा की रक्षा की थी, हम उसे नहीं भूलें वरन् भगवान् झूलेलाल की उपस्थिति में अपने सनातन देवी-देवताओं, भगवान् विष्णु, श्रीकृष्ण, राम, शिव, सूर्य, तुलसी, दुर्गा, हिंगलाज, आदि की पूजा करें। हमारे सिन्धियों के देवी देवताओं के सन्दर्भ में हमें कोई भ्रान्ति नहीं रखनी है। वस्तुतः कई ऐसे कुल, गोत्र तथा वंश हैं जो कि नामदेव परम्परा में दीक्षित होने के कारण वे विट्ठल भगवान् एवं रुक्मणी देवी की उपासना करते हैं। परन्तु वे झूलेलाल का विरोध नहीं करते।   अतः यह समझने योग्य तथ्य है कि भगवान् झूलेलाल हमारे धर्म रक्षक देवता हैं हमारे कुल देव एवं कुल देवी तो वे हैं जिसे हमने अपनी कुल परम्परा में पूजा है। अतः  हमें यह चिन्तन करना आवश्यक है कि हमें अपने दैवीय शक्तियों को पुनः जाग्रत करना है। तथा भगवान् झूलेलाल ने जो अवतार ग्रहण करके हमें यह मार्ग दिखाया कि हमें सनातन धर्म के अनुसार, वेद, स्मृति, पुराण का पठन-पाठन एवं उनमें वर्णित, यज्ञ, तर्पण, श्राद्ध, मूर्तिपूजा, आदि करनी चाहिये।   सिन्धियों के इष्ट देवता के सन्दर्भ में जो यह लेख लिखा है उसका उद्देश्य यह है कि हम सिन्धी सनातन परम्परा में दीक्षित हैं अत: हमारा धर्म सनातन धर्म है। उसी सनातन धर्म की रक्षार्थ हमारे पूर्वजों ने सिन्ध के एक क्षेत्र में जहाँ मुस्लिम राजा मिरखशाह बलात् हम सनातनी हिन्दू सिन्धियों का धर्म परिवर्तन करवाना चाहता था वहाँ सिन्धु नदी के तट पर वैदिक देवता वरुण देवता का आह्वान करके अपने धर्म की रक्षार्थ उनके समक्ष निवेदन किया। उस समय वरुण देवता ने उन्हें दर्शन देकर आश्वस्त किया  कि वे धर्म की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करेंगे तथा उन्होंने हमारे सिन्धी हिन्दूओं की जो सनातन—वैदिक—हिन्दू—धर्म कीे प्रति आस्था थी उसकी रक्षार्थ अवतार ग्रहण करके राजा को शिक्षा दी कि राजा के लिये सभी बराबर हैं। इस प्रकार वरुणावतार झूलेलाल ने सनातन धर्म की रक्षा की है। अत: उन्होंने यह ही सन्देश दिया  कि हमारा सनातन—वैदिक—हिन्दू धर्म ही हमें पालना है। पर हम सिन्धियों ने आज से 25 वर्ष पूर्व तक तो इस परिपाटी का पालन किया। किन्तु अब शनै:—शनै: हमारे घरों में से सतनारायण की कथा, वीरल भगवान् की कथा, शिव पर जल चढ़ाने का कर्म, सोमवार का व्रत, सूर्य का अर्घ्य, तुलसी का पूजन, कार्तिक मास के व्रतोद्यापन, यथा, तुल्स्या, भीखम, ( तुलसी व्रत तथा भीष्म पंचक) आदि छोड़ दिये गये हैं। आवश्यकता है कि उन्हें पुन: धारण करें। जयतु जयतु भारत, जयतु जयतु सनातनम्



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