श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
Mystic Power- १. सप्तसिन्धु-वेद में ३ सप्त सिन्धु का उल्लेख है जो भारत के मध्य, पूर्व और पश्चिम भाग के हैं। यहां सभी नदियों को सिन्धु ही कहा गया है। वेद आकाश के पूरे विश्व, पृथ्वी तथा मनुष्य रूप विश्व प्रतिमा का वर्णन करता है। अतः इन नदियों को केवल भारत की पश्चिमोत्तर सीमा में ही नहीं मानना चाहिये। अंग्रेज तथा उनके भक्त केवल भारत के पश्चिम का वर्णन करते हैं जिससे भारतीयों को भी अंग्रेजों की तरह पश्चिमी आक्रमणकारी कहा जा सके।
(ऋक्, १०/६४)-त्रिः सप्त सस्रा नद्यो महीरपो वनस्पतीन् पर्वताँ अग्निमूतये।
कृशानुमस्तॄन् तिष्यं सधस्थ आ रुद्रं रुद्रेषु रुद्रियं हवामहे॥८॥
सरस्वती सरयुः सिन्धुरूर्मिभिर्महो महीरवसा यन्तु वक्षणीः।
देवीरापो मातरः सूदयित्न्वो घृतवत्पयो मधुमन्नो अर्चत॥९॥
(ऋक्, १०/७५)-प्र सु व आपो महिमानमुत्तमं कारुवोचाति सदने विवस्वतः।
प्र सप्तसप्त त्रेधा हि चक्रमुः सृत्वरीणामति सिन्धुरोजसा॥१॥
इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकिये शृणुह्या सुषोमया॥५॥
तृष्टामया प्रथमं यातवे सजूः सृसर्त्वा रसया श्वेत्या त्या।
त्वं सिन्धो कुभया गोमती क्रुमुं मेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे॥६॥
ऋजीत्येनी रुशती महित्वा ज्रयांसि भरते रजांसि।
अदब्धा सिन्धुरपसामपस्तमाश्वा न चित्रा वपुषीव दर्शता॥७॥
स्वश्वा सिन्धुः सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती।
ऊर्णावती युवतिः सीलमावत्युताधि वस्ते सुभगा मधुवृधम्॥८॥
महाभारत, भीष्म पर्व, अध्याय ९-
वस्त्रां सुवस्त्रां (वास्तुं सुवास्तुं) गौरीं च कम्पनां स हिरण्वतीम्॥२५॥
वरां वीरकरां चापि पञ्चमी च महानदीम्॥२६॥
पुराणों में हर द्वीप में ७ मुख्य नदियों का ही नाम है तथा सभी को माता कहा है जैसे वेद में कहा है (ऋक्, १०/६४/९)।
पद्मपुराण, आदिखण्ड, अध्याय ६-
नदीं पिबन्ति विपुलां गङ्गां सिन्धुं सरस्वतीम्॥१०॥
गोदावरीं नर्मदां च बहुदां च महानदीम्।
शतद्रुं चन्द्रभागां च यमुनां च महानदीम्॥११॥
दृषद्वतीं विपाशां च विपाशां स्वच्छबालुकाम्॥
नदीं वेत्रवतीं चैव कृष्णां वेणीं च निम्नगाम्॥१२॥
विश्वस्य मातरः सर्वाः सर्वाश्चैव महाफलाः।
तथा नद्यः स्वप्रकाशाः शतशोऽथ सहस्रशः॥३२॥
आकाश तथा पृथ्वी की नदियों को सिन्धु कहा गया है, ये जिस समुद्र में मिलते हैं उसे भी सिन्धु कहते हैं। वेद परम्परा से सिन्धु नद पुल्लिङ्ग है।
न यस्य द्यावापृथिवी अनु व्यचो न सिन्धवो रजसो अन्तमानशुः (ऋक्, १/५२/१४)-
२. मध्य भारत की सप्तनदी-स्नान करते समय एक मन्त्र पढ़ा जाता है-
गङ्गे यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥
यह वेद मन्त्र पर आधारित है-
इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकिये शृणुह्या सुषोमया॥ (ऋक्, १०/७५/५)
असिक्नी का अर्थ है-कृष्णा रात्रि-असिक्नीः कृष्णा ओषधी (अथर्व, ८/७/१)
असिक्न्यां यजमानो न होता (ऋक्, ४/१७/१५)
इस नाम की नदियां हैं-कृष्णा या कृष्णावेणी, ताम्रपर्णी (कावेरी)
सुषोमा = सुखदायक। इसी अर्थ में नर्मदा नाम है। इसका अन्य नाम है, रेवा। रेवा पश्चिम दिशा में जाती है अतः पश्चिमी वायु को रेवा-मरुत् कहते हैं। वेद में इसे एवयामरुत् कहा है। एवा का अर्थ गति है, विशेषकर नदी की गति-
रमध्वं मे वचसे सोम्याय, ऋतावरी रूपमुहूर्तमेवैः (ऋक्, ३/३३/५)।
मरुत्वते गिरिजा एवयामरुत् (ऋक्, ५/८७/१)
गोदा (वरी), गोऋजीका अर्थ में आर्जीकिया है।
इमां हि वां गो-ऋजीका मधूनि (ऋक्, ३/५८/४)
पिबा तु सोमं गो-ऋजीकमिन्द्र (ऋक्, ६/२३/७)
गो (गौ, सम्पत्ति, वाक्, ज्ञान) आदि देने वाली अर्थ में गोदा है। इसी अर्थ में गोतमी है-(ऋक्, १/७८/१-५)
विष्णु पुराण, खण्ड २, अध्याय ३-
शतद्रू चन्द्रभागाद्या हिमवत्पाद निर्गता।
वेदस्मृति मुखाद्याश्च परियात्रोद्भवा मुने॥
नर्मदा सुरसाद्याश्च नद्यो विन्ध्याद्रि निर्गताः।
तापी पयोष्णी निर्विन्ध्या प्रमुखा ऋक्षसम्भवाः॥
गोदावरी भीमरथी कृष्णवेण्यादिकास्तथा।
सह्यपादोद्भवा नद्यः स्मृताः पापभयापहाः॥
कृतमाला ताम्रपर्णी प्रमुखा मलयोद्भवाः।
त्रिसामा चर्षिकुल्या महेन्द्रप्रभवाः स्मृताः॥
ऋषिकुल्या कुमाराद्याः शुक्तिमत् पादसम्भवाः।
आसां नद्य उपानद्यः सन्त्यन्याश्च सहस्रशः॥
३. पूर्वी भारत की सप्तनदी-ब्रह्मपुत्र या लोहित, इरावती (इरावदी, ऐरावती), सालवीन (धेनुमती, स्तनविन या थानवीन), मेकांग (मा गङ्गा), लाल नदी (इसकी सहायक कृष्णा नदी, तथा श्वेत = लो नदी)। लाल नदी भी त्रिवेणी संगम की तरह है।
इरावती-वायु पुराण अध्याय ३६-३७ के अनुसार यह भारत के पूर्व भाग की नदी है। इसके क्षेत्र के हाथी को ऐरावत कहा गया है जिसे श्वेत हाथी कहा जाता है। बर्मी भाषा में इरावती या ऐरावती का यही अर्थ है-हाथी नदी। वेद में इरावती के साथ धेनुमती नाम भी आता है। यह वर्तमान थालवीन (सालवीन) नदी है जो इरावती के समानान्तर हिमालय के पूर्वी भाग से समुद्र तक जाती है। इसका बर्मी भाषा में वृक्ष अर्थ है। इसके क्षेत्र में बहुत से वन्स्पति और जन्तुओं का आश्रय है, अतः इसे धेनुमती कहते थे। शक द्वीप (आस्ट्रेलिया) में भी धेनुका नदी कही गयी है जो दक्षिण पूर्व एशिया की सीमा पर है।
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। (ऋक्, ५/६९/२)
वाचं सु मित्रावरुणाविरावती पर्जन्यश्चित्रां वदति त्विषीमतीम् (ऋक्, ५/६३/६)
इषीमती = इष्ट की पूर्ति करनेवाली, कामधेनु।
इरावती धेनुमती हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या। (ऋक्, ७/९९/३)
इरावती धेनुमती हि भूतं सूयवसिनी मनवे दशस्या (वाज. यजु, ५/१६)
इन्द्र पूर्व दिशा के लोकपाल थे, अतः उनका हाथी भी इसी क्षेत्र का था। उसके लिये वटूरि (सूंढ़ से बटोरने वाला) या महा वटुरि शब्द का प्रयोग है। हाथी के लिये ये शब्द केवल थाई भाषा में ही प्रयुक्त होते हैं।
ब्रह्माण्ड पुराण, खण्ड २, तृतीय पाद, अध्याय ७-
इरावत्याः सुतो यस्मात्तस्मादैरावतः स्मृतः।
देवराजोपवाह्यत्वात् प्रथमः स मतङ्गराट्॥३२६॥
वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड अध्याय ४०-
ततो रक्तजलं शोणमगाधं शीघ्रवाहिनम्॥३२॥
अभिगम्य महानादं तीर्थेनैव महोदधिम्।
ततो रक्तजलं भीमं लोहितं नाम सागरम्॥३८॥
४. पश्चिम की सप्तनदी-कुभा (काबुल), आमू दरिया (यक्षु), इरान की करुन नदी (क्रुमु), सरथ (हरित या हेरात, स का ह), मरुद्वृध (अरब की वादी, मरुभूमि में पुरानी नदी धारा), रसा और श्वेत्या (दजला, फुरात, यूफ्रेटिस, टाइग्रिस) है।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकिये शृणुह्या सुषोमया॥५॥
तृष्टामया प्रथमं यातवे सजूः सुसर्त्वा रसया श्वेत्या त्या।
त्वं सिन्धो कुभया गोमती क्रमुं मेहन्त्वा सरथं याभिरीयसे॥६॥
यक्षु को उर (वरुण निर्मित इराक का प्राचीन नगर-उरुं हिराजा वरुणश्चकार-ऋक्, १/२४/८) के निकट या यज्ञभूमि (राय = धन, कृषि उत्पादन भाग) कहा गया है-
पुरोळा इत्तुर्वशो यक्षुः आसीद् रायेमत्स्यासो निशिता अपीव॥६॥
अजासश्च शिग्रवो यक्षवच्च बलिं शीर्षाणि जभ्रुरश्व्यानि॥१९॥ (ऋक्, ७/१८/६, १९)
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