रोग दुःखनाशक श्री हनूमत् पञ्चाशत्
कवि-श्री श्री. सुन्दरराजः। पिता आशुकविसार्वभौम विल्लूर श्रीनिवासराघवाचार्य स्वामी
माता-श्रीमती वञ्जुवल्ली।
जन्म तिथि-१३-९-१९३६, जन्मस्थान-तञ्जावूर जनपदान्तर्गत देवनाथविलास ग्राम,
शिक्षा-एम.ए. (रसायन शास्त्र), आइ.ए.एस (ओड़िशाम् प्राप्तावकाशः)
यह काव्य स्रग्धरा छन्द में है जिसका लक्षण नीचे दिया गया है। कवि मयूर ने भगवान सूर्य की स्तुति में एक अतिशय प्रौढ़ एवं ललित श्लोकशतक की रचना ग्राम मायर (उन्ही के नाम पर काशि क्षेत्र के एक गाँव का नाम मायर पड़ा) में रहकर की, जिसे “सूर्यशतक” कहते हैं और उस पापरोग से मुक्ति पाई। इस रोगमुक्तिवाली घटना की ओर कुछ इस प्रकार संकेत आचार्य मम्मट ने काव्यप्रयोजन बताते हुए अपने काव्यप्रकाश में किया है–“आदित्यादेर्मयूरादीनामिवानर्थ निवारणम्” (प्रथम उल्लास)। श्री सुन्दरराज जी ने स्रग्धरा छन्द को भी कुष्ठ रोग निवारक बताया है तथा सभी रोग दुःखनाशन के लिये इस हनुमत् स्तोत्र की रचना की है।
स्रग्धरा म्रौ भ्नौ यौ य् त्रिःसप्तकाः (पिङ्गल छन्द शास्त्र, ७/२५)
यस्य पादे मगण-रगण-मगण-नगणास्त्रयश्च यगणाः (ऽऽऽ, ऽ।ऽ, ऽ॥, ॥।, ।ऽऽ, ।ऽऽ, ।ऽऽ)। सप्तसु, सप्तसु, सप्तसु च यतिः। ऽ = ह्रस्व, । = लघु।
मगण रगण भगण नगण यगण यगण यगण
(ऽऽऽ) (ऽ।ऽ) (ऽ॥) (॥।) (।ऽऽ) (।ऽऽ) (।ऽऽ)
रेखा-भ्रूः शूभ्रद-न्त(७)द्युति-हसित-शर(७)श्चन्द्रिकाचा-रुमूर्ति(७)-
र्माद्यन्मा-तङ्गली-ला(७)गति-रतिवि-पुला(७)भो-गतुङ्ग-स्तनी या(७)।
रम्भास्त-म्भोपमो-रू(७)रलि-मलिन-धन(७)स्नि-ग्धधम्मि-ल्लहस्ता(७)
बिम्बोष्ठी रक्तक-ण्ठी(७)दिश-तु रति-सुखं(७)स्र-ग्धरा सु-न्दरीयम्(७)॥
श्रीमान् धीमान् हनूमानसमसमधिकः कीर्तिमान् भक्तिमान् श्री-
रामे श्रीराम रामेत्यनवरतरतो नामसंकीर्तने यः।
सीमातीतोऽभिरामो विलसति महिमा यस्य रोमाञ्चकारी,
क्षेमस्तोमं स कामं गमयतु नमतः श्री समीरात्मजो नः॥१॥
वे पवनपुत्र श्री हनुमान जी अपने सम्मुख प्रणत हम सभी का प्रभूत कल्याण करें जो श्री (कान्ति, शोभा और वैभव) के निधान हैं, जो बुद्धिमान हैं, जो कीर्तिमान हैं, जिनके बराबर एवं जिनसे बढ़कर कोई नहीं है, जो श्रीराम के परम भक्त हैं, जो ’श्रीराम’ नाम के संकीर्तन में सदा लीन रहते हैं एवं जिनकी महिमा असीम, अभिराम तथा रोमाञ्चकारी है॥१॥
ओमित्युक्त्वा नमोऽतस्तदनु भगवतेऽप्याञ्जनेयाय चाथ,
शब्दं चान्ते चतुर्थ्यां ’स महदिति बलं यस्य’ जातं समस्य।
इत्थं सृष्टं तमष्टादशपरिगणितैरक्षरैरक्षहन्तुः,
मन्त्रं सर्वेष्टसिद्ध्यै हुतवहदयिताचूडमाम्रेडयामः॥२॥
इस पद्य में ’ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा’-इस मन्त्र के जाप का महत्त्व बताया गया है। ’ॐ से प्रारम्भ कर तदनन्तर ’नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा’- (महान है बल जिसका वह है महाबल, महाबल का चतुर्थी रूप महाबलाय) और अन्त में ’स्वाहा’ अग्नि की पत्नी का नाम) जोड़कर अक्षहन्ता (हनुमान जी) का अष्टादशाक्षरी मन्त्र हम सभी कामनाओं की सिद्धि के लिये जपते हैं।
वीरो यः केसरीति त्रिभुवनविदितस्तस्य राज्ञोऽञ्जनायाम्,
पत्न्यां श्रीरामहेतोस्समजनि तनयो मारुतस्यौरसो यः।
स्वादीयस्सद्यदीयैः प्रभुचरितमहो भाति कृत्यैर्विचित्रैः,
सद्यो नुद्यावद्यं कलिबलकलितं केसरिक्षेत्रजो नः॥३॥
त्रिभुवन प्रसिद्ध वीर शिरोमणि राजा केसरी की पत्नी अञ्जना में पवनदेव से, श्रीराम की कार्यसिद्धि के लिये उत्पन्न केसरी के क्षेत्रज पुत्र वे हनुमान् जी, जिनके विचित्र कार्यों से प्रभु श्रीराम जी का चरित और अधिक स्वादिष्ट (रोचक) हो जाता है, कलियुग के प्रभाव से उत्पन्न हमारे सभी पापों को शीघ्र ही नष्ट कर दें॥३॥
अत्रस्तो जातमात्रः फलमिति कलयन् मित्रमाहर्तुकामः,
पुत्रो वायोः पुराऽयं वियति कृतरयः पुप्लुवे यः प्लवङ्गः।
स त्रायात् वृत्रजेत्रा तदनुकृतहनुर्वज्रपातेन डिम्भः,
पित्रा संस्तभ्य लोकान् वरममरगणाल्लम्भितो जृम्भितेन॥४॥
वे पवनपुत्र कपिवर हनुमान जी अपनी बढ़ोत्तरी से हमारी रक्षा करें, जिन्होंने उत्पन्न होते ही निर्भय हो कर सूर्य को फल समझ कर तोड़ लाने के लिये तेजी से आकाश में छलांग लगा दी और जिनकी ठोड़ी पर वृत्र के विजेता इन्द्र ने वज्र से प्रहार किया जिसके फलस्वरूप क्रुद्ध हुये उनके पिता पवनदेव ने स्तम्भित होकर संसार में साँस लेने का ही संकट पैदा कर दिया था॥४॥
एकस्सन्नद्वितीयः श्रुतिषु तिसृषु यः पण्डितश्चातुरास्य-
प्रीत्या पञ्चत्वहीनस्स पवनतनयः षड्गुणस्सप्तसप्तेः।
शिष्योऽष्टाङ्गी नवव्याकरणचणमती रामभक्तः परं नः,
दिश्यादायुस्सुदीर्घं दशलपनरिपुर्भाग्यमारोग्यभोग्यम्॥५॥
इस पद्य में संख्यात्मक शब्दों के चमत्कार द्वारा हनुमान् जी की वन्दना है। राम के परम भक्त वे पवनतनय जो एक हैं, अद्वितीय (अतुलित) हैं, तीनों वेदों में पारङ्गत हैं (त्रयी का अर्थ ४ वेद है-१ मूल अथर्व तथा ३ शाखा ऋक्-यजु-साम; मुण्डक उपनिषद्, १/१/१-५), चार मुखों वाले ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर जिनको पञ्चत्वहीन (मृत्युहीन) होने का वर दिया है, जो ६ दैवी गुणों से युक्त हैं (भग = ६ प्रकार के ऐश्वर्य, ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसश्श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा-विष्णु पुराण, ६/५/७४), जो ७ घोड़ों वाले सूर्य के शिष्य हैं, जो ८ अंग के योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) के अभ्यासी हैं, जो ९ व्याकरणों के ज्ञाता हैं (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ३६-सर्वासु विद्यासु तपोविधाने प्रस्पर्धतेऽयं हि गुरुं सुराणाम्। सोऽयं नव-व्याकरणार्थवेत्ता, ब्रह्मा भविष्यत्यपि ते प्रसादात्॥४६॥) तथा जो १० सिर वाले रावण के शत्रु हैं, हमें दीर्घायु और आरोग्य के द्वारा भोगे जानेवाले सद्भाग्य प्रदान करें॥५॥
सुग्रीवेणालोक्याग्रजभयचकितेनात्मना पञ्चमेन,
तूणीबाणासनेद्धौ विपिनमुपगतौ रामरामानुजौ तौ।
शङ्कातङ्काकुलेन प्रणिधिरिव तयोरन्तिकं प्रेषितो यः,
शङ्कातङ्कापनोदं कलयतु कुशलो भिक्षुवेषो हनूमान्॥६॥
ऋष्यमूक पर्वत श्रेणी पर अपने चार साथियों के साथ रहते हुए सुग्रीव ने अपने बड़े भाई (बालि) के भय से त्रस्त तथा शंका और आतंक से व्याकुल हो कर जिनको वन में विचरण करने वाले धनुर्बाणधारी राम-लक्ष्मण के पास अपना गुप्तचर बना कर भेजा था, वे कार्यकुशल भिक्षुवेषधारी हनुमान् जी हमारी समस्त शंकाओं तथा भय को दूर करें॥६॥
गत्वा सौमित्रिरामावथ विपिनपथं तौ कथं वा किमर्थं,
आयातावित्यनेकेरयममरगिरा मध्यमेन स्वरेण।
सम्यक् शब्दप्रयोगोच्चरणविधियुतेनाद्रुतं चाविलम्बम्,
प्रश्नैः पृष्टैः प्रतुष्टं रघुपतिमतनोद्वाग्मितां यस्स दत्ताम्॥७॥
श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाकर संस्कृत भाषा, मध्यम स्वर, समुचित शब्द प्रयोग एवं उच्चारण विधि के साथ, न शीघ्रता में और न विलम्ब से पूछे गये ’वे वन में कैसे और किस लिए आये हैं?’-इत्यादि प्रश्नों से जिन्होंने रघुपति श्रीराम को प्रसन्न (सन्तुष्ट) कर दिया-वे हनूमान जी हमें वाग्मिता (भाषण कला कुशलता) प्रदान करें॥७॥
वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सर्ग ३-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम्॥२८॥
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्। बहु व्याहरतानेन न किञ्चिदपशब्दितम्॥२९॥
न मुखे नेत्रयोर्वाऽपि ललाटे च भ्रुवोस्तथा। अन्येष्वपि च गात्रेषु दोषः संविदितः क्वचित्॥३०॥
अविस्तरमसन्दिग्धमविलम्बितमद्रुतम्। उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमे स्वरे॥३१॥
संस्कारक्रमसम्पन्नामद्रुतामविलम्बिताम्। उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहारिणीम्॥३२॥
कञ्जाक्षौ रञ्जयन्तौ वनभुवमभितो मञ्जुतां व्यञ्जयन्तौ,
सञ्जानन् देवतुल्यौ रघुकुलतिलकौ प्राञ्जलिः प्राञ्जलोक्तिः।
युञ्जानस्तेन मैत्री व्यधित रविसुतेनाञ्जसा सञ्जयाय,
युञ्जन् सञ्जायतां नस्सहृदयसुहृदो रञ्जनायाञ्जनेयः॥८॥
कमल के समान नेत्रों वाले, सौन्दर्य का प्रकाश करते हुए एवं वन भूमि को रंजित करते हुए रघुकुल के तिलक श्रीराम-लक्ष्मण को देव तुल्य जान कर जिन्होंने हाथ जोड़कर और प्रवाह युक्त भाषा का प्रयोग कर शीघ्र ही सूर्यपुत्र सुग्रीव के साथ उसकी सहायता के लिये उनकी मित्रता करा दी, वे अंजनापुत्र हनुमान् जी हमारे मनोरंजन के लिये हमें सहृदय सन्मित्र प्रदान करें॥८॥
वाली कालस्य यातो वशमिति महतो नैव शोकस्य कालः,
पुत्रो राज्येऽभिषेच्यस्तव झटिति ततो मा चिरं राज्ञि रोदीः।
ताराम्मेवं वचोभिर्मृदुमधुरपदैस्सान्त्वयामास योऽसौ,
कर्तव्यं दुःखमध्ये कपिरिह कृपया तारयेत् कारयन्नः॥९॥
’बाली काल के वश हो गया है, यह अधिक शोक करने का समय नहीं है, तुम्हारे पुत्र (अंगद) का युवराज पद पर शीघ्र ही अभिषेक होना है, अतः रानी! तुम अधिक मत रोओ’-इस प्रकार कोमल और मधुर शब्दों से तारा को जिन्होंने सान्त्वना दी, वे कपिवर हनुमान् जी दुःख में भी कर्तव्य का पालन कराते हुए हमारा उद्धार करने की कृपा करें॥९॥
वर्षान्ते वानराणां दिशि दिशि पृतनां मैथिलीमार्गणार्थं,
मर्षी स्याः प्रेषयेयेत्यथ समयमिमं रामचन्द्रेण कृत्वा।
हर्षी विस्मृत्य भोगे लगति रविज इत्यस्य बुद्धिं स्खलन्तीं,
कर्षन् साचिव्यकारी कलयतु हनुमान् नस्स मोहव्यपोहम्॥१०॥
’वर्षा के बीतने पर मैथिली (सीता) को खोजने के लिए मैं प्रत्येक दिशा में वानरों की सेना को भेजूँगा; तब तक आप प्रतीक्षा करें’-इस प्रकार श्री रामचन्द्र जी को दिए गए वचन को भूलकर सांसारिक भोगों में व्यासक्त होकर यह खुशी मना रहा है-यह सोचकर सुग्रीव की पथभ्रष्ट हुई बुद्धि को ठिकाने लगाते हुए जिन्होंने अपने साचिव्य का निर्वाह किया, वे श्री हनुमान् जी हमारे मोह का सदा नाश करें॥१०॥
विश्वेषां शेवधिस्सन् दशवदनवधं कर्तुमत्रावतीर्णः,
विश्वासं वायुपुत्रे नयविनयवति प्राप्य रामोऽङ्गुलीयम्।
विश्वासाय प्रियायाः रविसुतवचसा सोऽर्पयामास यस्मिन्,
निश्वासे निर्गमिष्यत्यपि भवतु स नः कश्चनाश्वासहेतुः॥११॥
समस्त जगत् के रक्षक होते हुए जिन्होंने दस सिरों वाले (रावण) के वध के लिय अवतार लिया, उन श्रीराम ने नय-विनय युक्त जिनके प्रति विश्वस्त होकर अपनी प्रिया (सीता) को सान्त्वना देने के लिए, सुग्रीव के कहने से, अपनी अंगूठी सौंप दी, वे पवनपुत्र हनुमान् जी हमारे अन्तिम सांस लेने के समय भी हमारे आश्वास (सान्त्वना) के कारण बनें॥११॥
सीतान्वेषाय विष्टान् बिलमथ तिमिरेणावृतं विन्ध्यशैले,
भीतान्निष्क्रान्त्यशक्तान् सदयमनुचरांस्तारयिष्यन् गुहायाः।
सूनुर्वायोर्वचोभिर्मयदुहितृसखीं सूनृतैर्योऽन्वनैषीत्,
जातेभ्यस्संकटेभ्यो भवतु स भगवान् याचितो मोचनाय॥१२॥
सीता की खोज के लिये विन्ध्य पर्वत की अन्धेरी गुफा में प्रविष्ट, डरे हुए तथा बाहर निकलने में असमर्थ अपने साथी वानरों को गुफा से बाहर निकालने के लिए जिन्होंने मय दानव की पुत्री की सहेली (स्वयंप्रभा) को मधुर तथा सत्य वचनों से अनुनीत किया, वे पवनपुत्र (हनुमान जी) संकट के समय हमारी प्रार्थना पर हमें छुटकारा दिलाने वाले हों॥१२॥
सुग्रीवाज्ञा विरोधं कलयतियुवराज्यङ्गदे वालिपुत्रे,
तेनानीके कवीनां सपदि विचलिते यस्स्वयं वायुपुत्रः।
साम्ना भेदेन रामानुजविशिखभिया भेदयित्वाथ धर्म्ये,
कर्तव्येऽचूचुदत्तन् दिशतु स हनुमान् नैपुणं राजतन्त्रे॥१३॥
जब बालि के पुत्र युवराज अंगद ने सुग्रीव की आज्ञा का विरोध किया एवं इसके परिणाम स्वरूप वानर सेना विचलित होने लगी तब साम, भेद तथा लक्ष्मण के बाणों का भय दिखला कर जिन वायुपुत्र ने स्वयं अंगद को शान्त कर उसे धर्म्य (उचित) कर्तव्य में तत्पर किया, वे हनुमान् जी हमें राजनीति में निपुणता प्रदान करें॥१३॥
तुङ्गं माहेन्द्रशृङ्गं घनवनशिशिरं धातुभिर्नैकरङ्गं,
त्वङ्गत्पादाभिघातैः श्वसितमिव दधन्निष्पतद्भिर्भुजङ्गैः।
भङ्गाद् ग्राव्णां क्षरद्भिर्वमदिव रुधिरं धातुरागैर्विधाय,
पिङ्गाक्षो जृम्भमाणो जलनिधितरणे तारणं नस्तनोतु॥१४॥
समुद्र लंघन के समय सघन वनों से शीतल तथा विविध धातुओं से रंग बिरंगे महेन्द्र पर्वत के ऊंचे शिखर पर जब हनुमान् जी अपने शरीर को बड़ा कर के खड़े हुए तो उनके पदाघात से घबरा कर और फुंकार छोड़ते हुए उस पर्वत से बाहर निकलने लगे जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि मानों यह पर्वत शिखर साँस छोड़ रहा हो। इसी प्रकार उनके पादाघात से पर्वत की चट्टानें टूटने लगीं और उनसे गेरू आदि धातुओं से रँगा जल प्रवाहित होने लगा तो ऐसा प्रतीत होता था कि पर्वत खून की उल्टी कर रहा हो। उस समय उत्साह से परिपूर्ण हनुमान् जी की आंखें पिंगल वर्ण की हो गयी थीं। समुद्र को तर जाने वाले वे हनुमान् जी हमें संसार से तार दें॥१४॥
ध्यात्वा श्रीरामपादौ क्षणमचलवदास्थाय माहेन्द्रमौलौ,
बद्ध्वा रामाङ्गुलीय दृढमथ वसने प्रस्थितो वायुसूनुः।
पारावारस्य पारं परमुरुतरसा यातुकामस्सकामं,
पारावारस्य पारं गमयतु नमतो घोरसंसारनाम्नः॥१५॥
महेन्द्र पर्वत के शिखर पर श्रीराम के चरणों का ध्यान कर के क्षण भर के लिए निश्चल होकर, श्रीराम की अंगूठी को वस्त्र में दृढ़ता से बाँध कर समुद्र के पार जाने की इच्छा से जिन्होंने जोर की छलाँग लगाई वे वायुपुत्र (हनुमान् जी) अपने भक्तों को घोर संसार रूपी समुद्र के पार लगा दें॥१५॥
आद्रेस्तद्रूपधारी गगनमुपगतोऽह्नाय तीर्त्वा समुद्रं,
क्षुद्राकारः प्रविष्टो दशमुखनगरीं रौद्ररक्षःप्रतिष्ठम्।
निद्राहीनां निरन्नां पतिविरहकृशां रामभद्रस्य पत्नीं,
मुद्रादानप्रतीतामतनुत हनुमान् यस्स भद्राणि दिश्यात्॥१६॥
हनुमान् जी जब महेन्द्र पर्वत पर खड़े थे तो वे पर्वत के समान विशालकाय थे। वहाँ से उन्होंने आकाश में छलाँग लगाई और अतिशीघ्र समुद्र को पार कर लघु रूप धारण कर के राक्षसों की निवासस्थली रावण की नगरी लंका में प्रवेश किया। तदनन्तर उन्होंने निद्रा विहीन, अन्न न ग्रहण करने वाली एवं पति के विरह से दुर्बल श्रीराम की पत्नी (सीता) को अँगूठी देकर आश्वस्त किया। वे हनुमान जी हमारा कल्याण करें॥१६॥
गत्योत्पत्यातिवर्त्य स्वपितरमपि चरद् व्योम्नि वायोरपत्यं,
प्रीत्या दृष्टं प्लवङ्गैर्जलनिधितरणे चारणैश्च प्रणत्या।
भीत्या दैत्यैर्विनीत्या सुरवरनिवहैर्योगिभिश्च प्रसत्त्या,
स्तुत्या तन्नः प्रसन्नं कुभिषगविषयं शातयेद्वातरोगम्॥१७॥
जब वायुपुत्र हनुमान जी ने सनुद्र लाँघने के लिए आकाश में छलाँग लगायी तो उनकी गति वायु से भी तीव्र थी} उस समय वानरों ने बड़ी प्रीति से, गुप्तचरों ने आदर की दृष्टि से, दैत्यों ने भय से, देवसमूह ने विनय से तथा योगियों ने प्रसन्नता से देखा। वे हनुमान जी हमारी स्तुति से प्रसन्न हो कर हमारे उन सभी वातजन्य रोगों का नाश करें जिनकी चिकित्सा करने में पृथ्वी के वैद्य (अथवा क्षुद्र वैद्य) समर्थ नहीं हैं॥१७॥
तातस्याथाधर्मणं गिरिवरमुरसाऽऽहत्य मैनाकमब्धौ,
छायाग्राहेण विघ्नं पथि स विदधतीं सिंहिकां सूदयित्वा।
नागानां प्रीणयित्वा सविनति सुरसां मातरं वातजातः,
पारं वातोऽन्तरायान् पथि स निपतितानन्तरा हन्तु नन्तुः॥१८॥
जो अपने पिता (वायु) के साथी मैनाक पर्वत को समुद्र में अपने वक्षःस्थल से छूकर, छाया पकड़ने से मार्ग में विघ्न उपस्थित करने वाली सिंहिका राक्षसी को नष्ट कर तथा सर्पों की माता सुरसा को विनम्रता से प्रसन्न कर समुद्र के पार पहुँच गये थे, वे पवनपुत्र अपने भक्तों के मार्ग में आने वाले सभी विघ्नों का नाश करें॥१८॥
पुत्रो वायोरमित्रो मम तनयमयं पीडयामास राहुं,
तत्राकाशे जिघृक्षुः फलमिति तरणिं जातमात्रः प्लवङ्गः।
सत्रासो येन पुत्रो मम कृत इति तां सिंहिकां स्वं जिघांसुं,
चित्रेणैव क्रमेणाक्षपयत स तथाऽस्मद्विपक्षं क्षिणोतु॥१९॥
यह वायुपुत्र मेरा शत्रु है; इसने मेरे पुत्र राहु को आकाश में पीड़ित किया था। उत्पन्न होते ही इस वानर ने जब फल समझ कर सूर्य को ग्रहण करना चाहा था तो मेरे पुत्र राहु को सन्त्रस्त कर दिया था-यह सोच कर सिंहिका हनुमान जी को मारना चाहती थी, किन्तु उन्होंने आश्चर्यमय पद्धति से उसका वध कर दिया। ऐसे पराक्रमी हनुमान जी हमारे शत्रुओं का नाश करें॥१९॥
लङ्कासंरक्षिणी सा रजनिचरपतेः राजधान्येव मूर्ता,
मूर्च्छाकारिप्रहारं कमपि वितरता निर्जिता येन सद्यः।
लङ्कामासन्ननाशां फलितमभिहितं विद्विषां दुर्गवर्गम्॥२०॥
लंका की रक्षा करने वाली ’लंका’ नामक राक्षसी ऐसी प्रतीत होती थी मानो राक्षसाधिपति रावण की साक्षात् राजधानी ही हो। उसको पवनपुत्र ने अपने शक्तिशाली घूँसे के प्रहार से मूर्च्छित कर तुरन्त ही जीत किया। ’लंका’ राक्षसी ने उन्हें बताया कि ब्रह्मा की भविष्यवाणी के परिणामस्वरूप शीघ्र ही लंका नगरी का नाश होने वाला है। ऐसे शत्रुविजेता हनुमान जी हमारे शत्रुओं के सभी किलों को पूरी तरह ढहा दें॥२०॥
रामां रामस्य चिन्वन्निशिचरनगरेसद्मनस्सद्म गत्वा,
वामास्ता रावणेन प्रसभमपहृताः स्थापितश्चावरोधे।
श्यामायामे तृतीये विगलितवसनाः कामिनीरप्यवेक्ष्य,
कामं कामस्य नायाद्वशमनिलसुतो नस्स पायादपायात्॥२१॥
श्री राम की पत्नी (सीता) को खोजते हुए हनुमान् जी ने राक्षसों की नगरी (लंका) के एक गर से दूसरे घर में जाकर रावण के देवारा बलपूर्वक हरी गयीं तथा अपने महल में रखी गयीं निर्वसन सुन्दरी कामिनियों को रात्रि के तीसरे पहर में देखा तो अवश्य पर वे काम के वशीभूत नहीं हुए। ऐसे अनिलसुत (पवनपुत्र हनुमान् जी) हमारी सभी संकटों से रक्षा करें॥२१॥
युद्धे क्रुद्धेन जित्वा बलजितमथ तं रावणेनापहृत्य,
बद्धानीतावरुद्धास्सुरपुरवनिता वीक्ष्य शुद्धान्तरंगे।
अद्धा शुद्धान्तरंगः क इह स भवितान्यत्र गांगेयभीष्मात्,
बुद्धिश्रेष्ठाञ्जनेयादुत कथित इति त्रायतां वायुपुत्रः॥२२॥
क्रुद्ध रावण ने बल नामक राक्षस को मारने वाले इन्द्र को युद्ध में जीतकर स्वर्ग की सुन्दरियों को बलपूर्वक हरण कर अपने अन्तःपुर में रख लिया। (लंका में सीता जी को खोजते हुए) हनुमान् जी उन सुरसुन्दरियों को देखकर शुद्धचित्त ही रहे। (उनके मन में कोई विकार नहीं आया)। इसलिये संसार में यह प्रसिद्धि हो गयी कि गंगापुत्र भीष्म और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ अंजनापुत्र हनुमान् जी के अतिरिक्त कौन ऐसी स्थिति में इतना शुद्ध हृदय वाला हो सकता है? ऐसे वायुपुत्र हनुमान् जी हमारी रक्षा करें॥२२॥
हीना रामेण सीतामुपवसनकृशां शिंशपावृक्षमूले,
दीनां वीक्ष्यैकवेणीं मलिनपटधरां तर्जितां राक्षसीभिः।
लीनः पर्णेषु रामं प्रभुमथ मनसा तं प्रशंसन् जगाम,
यो नः श्रीतत्त्ववेत्ता प्रदिशतु परमं तस्य तत्त्वस्य बोधम्॥२३॥
(लंका में) सीता, राम के विरह में उपवास रखने के कारण दुर्बल हो गयीं थीं। वे शिंशपा (शीशम) के वृक्ष के नॊचे बैठी थीं, उन्होंने एक वेणी तथा मलिन वस्त्र धारण कर रखे थे; राक्षसियां उन्हें डरा रहीं थीं। उनकी दीन दशा देख कर वृक्ष के पत्तों में छिपे हुए हनुमान् जी प्रभु श्रीराम का मन में ध्यान कर उनकी प्रशंसा करते हुए सीता जी के पास पहुँचे और उन्होंने ’श्रीतत्त्व’ का ज्ञान प्राप्त कर लिया। वे श्रीतत्त्व के ज्ञाता हनुमान् जी हमें भी उस तत्त्व का ज्ञान करा दें॥२३॥
मासौ द्वावेव कृत्वा समयमपगते रावणे तर्जयित्वा,
त्रासं याऽऽसाद्य वेण्युद्ग्रथनकरणतो मैथिली मर्तुकामा।
प्राणे प्रत्यायिताऽभूत् प्रभुचरितमथोद्गीय वायोस्सुतेन,
प्रीतिस्फीतः कपिस्स प्रणिपतनपरात् प्रीणयन् प्राणयेन्नः॥२४॥
दो महीने की अवधि की धमकी देकर रावण के चले जाने पर डरी हुयी सीता अपने केशबन्धन के द्वारा मरने की इच्छा करने लगी। उस अवसर पर वायु के पुत्र (हनुमान् जी) ने प्रभु (श्रीराम) के चरित का गान कर जीवन के प्रति आश्वस्त कराया। वे कपिवर हनुमान् जी अपनी शरण में आये हुए हम लोगों को भी अपनी उदार कृपा से जीवन देते रहें॥२४॥
राक्षस्या स्वप्नदृष्टं रघुपतिविजयं वर्णयन्त्या प्रसन्ना,
ताभिर्नोक्ताऽपि सीता भव शरणमिहेत्यास तासां तथा सा।
अव्याजेनानुकम्पामपचरणपरेऽप्यादधानामतोऽम्बां,
व्याजापेक्षं स जानन् प्रभुमतिशयितां पातु नः पावमानिः॥२५॥
राक्षसी त्रिजटा ने स्वप्न में रघुपति (राम) की विजय का वर्णन किया तो सीता जी प्रसन्न हुयीं तथा भयभीत राक्षसियों को उन्होंने तुरन्त अपनी अयाचित शरण दे दी। यह देक पवनपुत्र ने यह निष्कर्ष निकाला कि प्रभु श्रीराम तो अपने कृपापात्र को अपनी शरण में लेने का कोई कारण ढूँढ़ते हैं जबकि माता सीता अपराधियों पर भी अकारण करुणा करने वाली हैं और इस प्रकार माता सीता प्रभु श्रीराम से भी बढ़कर हैं। ऐसे तत्त्वज्ञ पवनपुत्र श्री हनुमान् हमारी रक्षा करें॥२५॥
रामस्सौमित्रिणा ये परमथ विरहात् क्व क्व यातश्च किं किम्,
चक्रे सुग्रीवसख्यं कथमगमदिति ब्रूहि सर्वं कपे त्वम्।
एवं भूयश्च भूयो जनकतनयया चोद्यमानेन येन,
संश्राव्याऽऽश्वासिताऽभूदनयमपनयत्वाञ्जनेयस्स्वयं नः॥२६॥
’मेरे विरह के अनन्तर श्री राम लक्ष्मण के साथ कहाँ-कहाँ गये? उन्होंने क्या क्या किया? सुग्रीव के साथ उनकी मित्रता कैसे हुयी? कपिवर, ये सारी बातें मुझे बताओ।’ इस प्रकार जनकसुता (सीताजी) के द्वारा बार-बार पूछे जाने पर जिन्होंने सारी कथा सुनाकर उन्हें आश्वस्त किया वे अञ्जनानन्दन हमारे समस्त अविनय को दूर करें॥२६॥
मत्तुल्या मद्विशिष्टा अपि बहुकपयः सन्ति सैन्ये कपीनां,
मत्तो न्यूनो न कश्चित्तव पतिरिह तै रावणं जेष्यतीति।
प्रोच्य प्रत्याययिष्यन्निव च रिपुबलं तत्समक्षं हनिष्यन्,
रक्षोऽशीतिं तमक्षं सचिवसुतगणं योऽवधीत् सोऽवतान्नः॥२७॥
’वानर सेना में मुझ जैसे और मुझसे भी बढ़कर बहुत से वानर हैं; मुझसे कम तो कोई है ही नहीं, उन सबके साथ आपके पति (श्री रामचन्द्र जी) लंका में आकर रावण पर विजय प्राप्त करेंगे।’-इस प्रकार सीता जी को समझाकर उन्हें अपने शत्रुनाशक बल का विश्वास दिलाने के लिए ही मानों, उनके सामने जिन्होंने अस्सी राक्षसों, रावण के पुत्र अक्षयकुमार तथा मन्त्रिपुत्रों का वध कर दिया, वे हनुमान् जी हमारी रक्षा करें॥२७॥
अक्षं रुक्षं समक्षं क्षतिकरविशिखान् लक्षयित्वा क्षिपन्तम्,
वक्षस्यक्ष्णोः क्षणाय क्षयमयमनयन् सक्षमस्स क्षमोऽपि।
रक्षो दक्षं विपक्षक्षपण इदमुपेक्ष्यं न हीत्यक्षिणोद्यः,
क्षिप्रं क्षिप्त्वान्तरिक्षात् क्षितिमधि हनुमान् विक्षताद्रक्षतान्तः॥२८॥
जब भयंकर अक्ष सामने से अपने विनाशकारी बाणों को हनुमान् जी के वक्षःस्थल और आँखों पर निशाना बाँधकर छोड़ने लगा तो उन्होंने अपनी क्षमाशीलता के कारण क्षण भर के लिए उसका विनाश नहीं किया, यद्यपि वे चाहते तो उसे तत्काल नष्ट कर सकते थे। किन्तु जब उन्हें लगा कि यदि इसकी उपेक्षा कर दी गयी तो यह अपने शत्रुओं का नाश कर देगा तो उन्होंने शीघ्र ही उस (अक्ष) को आकाश में उछाल कर धरती पर पटक मारा। ऐसे हनुमान् जी संकटों और हानियों से हमारी रक्षा करें॥२८॥
इच्छन् ब्रह्मास्स्त्रबन्धं त्रुटयितुमधुना रावणेः पारयामि,
गच्छन्नेवागतोऽहं किमपि तव हितं रावणं व्याजिहीर्षुः।
स्वच्छन्दं स्वच्छमेवं तमयमभिदधत् पुच्छपीठाधिरूढः,
पुच्छेनेच्छाविहारः प्रहरतु हनुमान् क्षात्रवान् शात्रवात्रः॥२९॥
’रावण! मैं चाहता तो तेरे पुत्र मेघनाद के द्वारा प्रयुक्त ब्रह्मास्त्र को अभी तोड़ सकता था किन्तु मैंने ऐसा करना उचित नहीं समझा; मैं तो जाता जाता तुझे कुछ हित की बात बताने की इच्छा से यहाँ (तेरे दरबार में) चला आया हूँ।’-इस प्रकार अपनी पूँछ की कुण्डली को पीढ़े पर बैठे हुए जिन्होंने निर्भय हो कर रावण को खरी-खरी सुनाई, वे पराक्रमी और इच्छा विहारी हनुमान् जी हमारे सभी शत्रुओं को अपनी पूँछ के प्रहार से नष्ट कर दें॥२९॥
वाले तैलेन सिक्ते पिचुतटवलिते दीपिते यातुधाने,
ज्वालामालाकुलोऽग्निर्न जनकसुतया शापितो यं तताप।
लङ्कायां राक्षसेन्द्रानुजगृहरहितं येन दग्धं समस्तं,
दिग्धां स्निग्धो विदग्धः पवनज इह नो ज्ञानदुग्धेन मुग्धान्॥३०॥
राक्षसों ने हनुमान् जी की पूँछ को पहले तो रूई के वस्त्रों से लपेटा, तदनन्तर उसे तेल में भिगोया और फिर उसमें आग लगा दी। फलतः पूँछ में आग की लपटें उठने लगीं किन्रु हनुमान् जी को अग्नि ने तनिक भी ताप नहीं दिया क्योंकि जनकसुता (सीता जी) ने अग्नि को इसकी कसम दे रखी थी। चतुर शिरोमणि पवनपुत्र ने लंका में, विभीषण के घर के अतिरिक्त, सब कुछ जला दिया। हम मूढ़मति प्राणियों को पवनसुत ज्ञानरूपी दुग्ध से पुष्ट करने की कृपा करें॥३०॥
लङ्कां लाङ्गूलदग्धां निशिचररुदितैराकुलामाकलय्य,
प्रत्यावृत्याम्बुराशेस्ततमधि हनुमान् वानराणामनीकम्।
निष्पन्दं जातकौतूहलमवहितधि श्रावयामास सर्वा,
आमूलात् स्वां कथां यः प्रदिशतु स कथाकारपारीणतां नः॥३१॥
जिन्होंने लंका को अपनी पूँछ से जलाकर राक्षसों की रोआ-पीटी से भर दिया, फिर समुद्र के इस पार आकर निस्पन्द, उत्सुक और सावधान बनी हुई वानर सेना को आदि से अपनी सारी कथा सुनाई, वे हनुमान् जी हमें कथा (कहानी) सुनाने की कला में पारंगतता प्रदान करें॥३१॥
दृष्टा सीतेति सा त्वामिदमवददिति श्रोत्रपीयूषमुक्त्वा,
रामात् सर्वस्वभूतं रघुकुलतिलकाद्यः परिष्वङ्गमाप।
विक्रान्तं यं समर्थं कपिमतिमुदिता मैथिली प्राज्ञमूचे,
शृण्वन् रामायणं यो विचरति भुवनेऽद्यापि स त्रायतां नः॥३२॥
’मैं सीता जी के दर्शन कर आया हूँ। उन्होंने आपके लिए यह सन्देश भेजा है।’ इस प्रकार जिन्होंने रघुकुल के तिलक श्रीराम को कर्णामृत के सदृश वचन सुनाकर बदले में उनका सर्वस्वरूप परिष्वांग (आलिंगन) प्राप्त किया, जिन्हें सीता जी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर पराक्रमी, समर्थ और बुद्धिमान् कहा था, और जो आज भी लोक में रामायण की कथा सुनते हुए विचरण करते रहते हैं, वे हनुमान् जी हमारी रक्षा करें॥३२॥
यः शत्रोः रावणस्य स्वयमयमनुजोऽदेशकालागतोऽत्र,
निग्राह्यो ग्राह्यतां न व्रजति कथमपीतीतरेषूचिवत्सु।
धर्मात्मा देशकालागत इति वचनैर्हेतुमद्भिर्य ऊचे,
चित्तं रामस्य जानन्नवतु स हनुमान् धर्मवित् कर्मभिर्नः॥३३॥
जब रावण को त्याग कर विभीषण राम की शरण आया तो अन्य वानर वीरों ने कहा ’यह हमारे शत्रु का छोटा भाई है और स्वयं यहां आ गया है; यह उचित स्थान और समय में नहीं आया है; अतः इसे पकड़ लेना चाहिये और किसी भी स्थिति में इसे अपने पक्ष में नहीं मिलाना चाहिये।’ किन्तु हनुमान् जी ने युक्तिपूर्वक कहा-’यह विभीषण धर्मात्मा और उचित देश-काल पर आया है।’ वस्तुतः हनुमान् जी श्रीराम के चित्त की बात को जानते थे, धर्म के ज्ञाता वे अपने कर्मों से हमारी रक्षा करें॥३३॥
कैलासं कम्पयित्वा वरमथ तपसा शम्भुमाराध्य लब्ध्वा,
बम्भोलिं जम्भशत्रोः शलभमिव न यो लक्षते वक्षसि स्म।
मुष्टिं तस्य प्रपात्योरसि दशशिरसस्तेन सद्योऽपनुद्यात्,
साधु त्वं श्लाघनीयो रिपुरिति कथितो मारुतिर्भीरुतां नः॥३४॥
कैलास को कँपा कर, अपने तप से शम्भु की आराधना कर उनसे वर प्राप्त कर इन्द्र के वज्र के प्रहार को अपने वक्षःस्थल पर जो टिड्डी के पंख प्रहार के समान भी नहीं गिनता था, उस दशानन (रावण) के सीने पर हनुमान् जी ने जब घूँसा मारा तो वह बोला-’हनुमान्! तुम बहुत ही प्रशंसनीय शत्रु हो।’ ऐसे मारुति हमारी भीरुता को शीघ्र दूर करें॥३४॥
सानीकं जानकीशं रणभुवि पतितं मेघनादास्त्रविद्धं,
ग्लानिं भूयो भजन्तं पतितमवरजं वीक्ष्य सञ्जीवयिष्यन्।
योनिं दिव्यौषधीनां हिमगिरिशिखरं यस्स आनीतवान्नो,
हानिं दात्रीं निहन्यात् तनुरुजमगदंकारभूतो हनूमान्॥३५॥
जब हनुमान् जी ने देखा कि रणभूमि में मेघनाद के अस्त्रों से बिन्ध कर जानकीपति राम सेना सहित गिर गये हैं और छोटे भाई लक्ष्मण को मूर्च्छित देखकर वे और अधिक चिन्तित हैं तो उनको होश में लाने की इच्छा से वे दिव्य औषधियों के जन्मस्थान हिमालय के शिखर को ही वहाँ से ले आये। ऐसे हनुमान् जी वैद्य बनकर हमारे कष्टदायक रोगों को नषट करें॥३५॥
वैकुण्ठे शेषनामा भुजगपरिवृढः श्रीपतेर्धूर्वहो यो,
जातो रामावतारे दशरथतनयः प्राप्य रामानुजत्वम्।
धृत्वा शक्त्याऽऽहतं तं युधि दशशिरसा दुर्वहं धूर्वहत्वं,
व्यानग्यो वायुसूनुर्लघुमिह वहताल्लीलयाऽस्मद्धुरं सः॥३६॥
वैकुण्ठ में शेष नाम वाले जो सर्पों के राजा श्रीमन्नारायण को वहन करते हैं, वे ही रामावतार के समय राम के छोटे भाई लक्ष्मण के रूप में दशरथ के पुत्र बन कर उत्पन्न हुए। उन्हें जब युद्ध में दशानन ने अपनी शक्ति से आहत कर दिया तो उन्हें वायुपुत्र हनुमान् जी ने उठाया। इस प्रकार उन्होंने सिद्ध कर दिया कि उनमें सर्वाधिक भार वहन करने की शक्ति है। ऐसे हनुमान् जी अपनी लीला से हमारे लघु भार को भी वहन करें॥३६॥
जम्भारातेर्विजेतुः बलमथ विदलन् रक्षसां दम्भभेत्ता,
डिम्भो वायोर्युधायां विधृतरघुवरो यो निकुम्भस्य हन्ता।
अम्भोधिं लङ्घयित्वौषधिमुपनमयन् जृम्भयां स्वान् बभूव,
शम्भोरेवावतारोऽयमिति निगदितस्स्तम्बयेत् सम्भ्रमं नः॥३७॥
जम्भासुर के शत्रु इन्द्र को जीतने वाले (इन्द्रजित् = मेघनाद) की सेना को किन्होंने विचलित कर दिया, जिन्होंने राक्षसों के दम्भ (हेकड़ी) को तोड़ दिया, जिन्होंने युद्धभूमि में रघुवर (राम) को उठाया (वहन किया), जिन्होंने निकुम्भ को मारा, जिन्होंने समुद्र लाँघकर (हिमालय से) औषधि लाकर अपने साथियों को पुनरुज्जीवित किया एवं जो शम्भु (रुद्र) के अवतार कहे जाते हैं, वे वायु के पुत्र हनुमान् जी हमारे सभी सन्देहों को दूर करें॥३७॥
मायासीतां समक्षं मघवजिदसिना दारितां मारिताञ्च,
पुत्रो निध्याय वायोरथ रघुपतये दुःखमाख्यातुकामः।
यो गच्छन् राक्षसेन्द्रावरजवचनतो वञ्चितं स्वं व्यजानात्,
मायाव्यालीं स धुन्वन् स्वयमपनयताज्जायमानं भयं नः॥३८॥
इन्द्रजित् (मेघनाद) की तलवार से अपने सम्मुख काटी और मारी गयी माया सीता को देख कर रघुपति (श्रीराम) को इस दुःखद वृत्त से परिचित कराने के लिये जाते हुए जिन वायुपुत्र ने विभीषण से वास्तविकता जान कर स्वयं को (मेघनाद द्वारा) वञ्चित (धोखा खाया हुआ) जाना, वे माया रूपी सर्पिणी को दूर करते हुए हमारे मन में उत्पन्न होने वाले भय को शान्त करें॥३८॥
मैथिल्याः विप्रलम्भे रविसुतवचसा प्रेषयामास रामो,
दूतं वातस्य जातं स जनकतनयां ज्ञातुमम्भोधिपारम्।
व्यापाद्यायोधने तं दशवदनमथ प्रेषयन्नाशु वार्तां,
देव्यै दूतं दधे यं वितरतु नमतामार्तिहन्त्रीं स वार्ताम्॥३९॥
मैथिली (सीता) के वियोग में सूर्यपुत्र (सुग्रीव) की बात मान कर श्रीराम ने जनकतनया (सीता) का पता लगाने के लिये जिन्हें दूत बना कर भेजा तथा युद्ध में दशानन (रावण) को मार कर इस समाचार से देवी सीता को परिचित कराने के लिए एक बार फिर जिन्हें श्रीराम ने दूत बनाया, वे वायु के पुत्र हनुमान् जी अपने भक्तों को शुभ समाचार देते रहें॥३९॥
संसेव्याशोकवसनां रघुपतिदयितां क्रूरवाग्राक्षसीनां,
संहारं यश्चिकीर्षुस्सदयमभिहितस्सेविकास्स्वाम्यधीनाः।
संरक्षन्त्यस्तदाज्ञामदधत यदि तत् कोऽपराधोऽत्र तासां,
संहार्या नेति देव्या कलयतु स दयां नन्तृषु क्षान्तमन्तुः॥४०॥
अशोकवाटिका में रघुपति की प्रिया (सीता जी) के प्रति श्रद्धा प्रकट कर जिन्होंने क्रूर वचन बोलने वाली राक्षसियों का संहार करना चाहा और सीता जी ने जिन्हें दयापूर्वक यह कहा-’ये तो सेविकायेँ हैं और स्वामी के अधीन हैं; अतः उसकी आज्ञा का पालन करती हुई ये जो भी करती हैं, उसमें इनका क्या अपराध है? अतः इनका संहार मत करो’, वे हनुमान् जी अपने भक्तों के अपराधों को क्षमा कर उन पर कृपा करें॥४०॥
आदिष्टो राघवेण प्रभुमपि जटिलं स्थण्डिले संविशन्तं,
नन्दिग्रामे निविष्टं भरतमभिगतो ज्येष्ठभक्तौ सुनिष्ठम्।
दृष्ट्वा शत्रुघ्नजुष्टं रघुपतिपदवीदत्तदृष्टिं स भक्त-
श्रेष्ठं मेने मनीषी जनयतु विनयं मारुतिर्मानसे नः॥४१॥
श्रीराम के आदेश से मारुति (हनुमान् जी) ने नन्दिग्राम में जाकर देखा कि बड़े भाई (श्रीराम) की भक्ति में लगे हुए भरत, राजा होने पर भी जटा बढ़ाये हुए हैं, पत्थर पर ही सो जाते हैं तथा शत्रुघ्न जी के साथ श्रीराम के आने के मार्ग में अपनी दृष्टि लगाये हुए हैं। यह देख कर महामनीषी हनुमान् जी ने निश्चय कर लिया कि भरत भक्तों में श्रेष्ठ हैं। मरुतनन्दन हनुमान् जी हमारे मन में विनय का सञ्चार करें॥४१॥
नाथस्याथाभिषेके नयनसरसिजस्यादितानन्दवाष्पं,
जानाना जानकी यं पतिमतिमतनोद्धारदानेन धन्यम्।
नित्यं सौमित्रिसीतासहितरघुवरं वन्दमानो हनूमान्,
वश्यो दिश्यादवश्यं दिशमथ विदिशं व्यश्नुवानं यशो नः॥४२॥
प्रभु राम के राज्याभिषेक के समय हनुमान् जी के नयन कमलों से आनन्द के आँसू बहने लगे। यह देख पति के मनोभाव को जानने वाली जानकी जी ने अपना हार देकर हनुमान् को धन्य कर दिया। लक्ष्मण और सीता के सहित श्री राघवेन्द्र की नित्य वन्दना करने वाले वशी हनुमान् जी हमें दिशा-विदिशाओं में व्याप्त होने वाला यश अवश्य दें।
मोक्षं नाथप्रसादात् करगतमति यो व्याक्षिपंस्तस्य गाथां,
गायन् शृण्वंस्तदीयं चरितमयमवन्नापदस्तस्य भक्तान्।
तत्त्वं सत्त्वे स्थितेभ्यः परममुपदिशन् सञ्चरन् संप्रसद्य,
सद्यश्शोकं स नुद्यात् सदयमनिलभूरद्य लोकस्य सर्वम्॥४३॥
प्रभु (राम) के प्रसाद से जिन्हें मोक्ष हस्तगत हो सकता था किन्तु मोक्ष को छोड़कर जो अपने प्रभु की गाथा गाते हुए, उनके चरित सुनते हुए, उनके भक्तों की विपत्तियों से रक्षा करते हुए तथा सात्त्विक जनों को परम तत्त्व का उपदेश देते हुए लोक में सञ्चरण करते हैं, वे अनिलभू (वायुपुत्र) दया कर के लोक के समस्त शोक को तुरन्त दूर करें॥४३॥
येन स्पर्धां दधानस्स्वयमनिलभुवा नारदो भक्तिगाने,
गानैर्यस्य स्वकीयां द्रवदुपलपुटे मज्जितां वीक्ष्य वीणाम्।
गाने नूनं हनूमान प्रथम इति वदन् लज्जितस्तज्जितोऽभूत्,
मानातीतं नतेभ्यो न इह स तनुतां गानविज्ञानदानम्॥४४॥
जिनके साथ भक्ति गान की स्पर्धा करते हुए नारद ने अपनी वीणा को उनके भक्तिगीतों से जलरूप में द्रवित पत्थर में डूबते हुए देखा तो उसने लज्जित होकर अपनी हार मानते हुए कहा कि ’(भक्ति का) गान करने में हनूमान् निश्चित ही सर्वोच्च हैं’, वे वायुनन्दन हनुमान् जी अपने भक्तजनों को गान विद्या का अपरिमेय दान दें॥४४॥
रामं स्कन्धाधिरूढं समरभुविचचारोद्वहन् वर्ष्मणा यो,
रामं संकीर्तयन् यो विहरति सततं तं वहन्नेव वाचा।
रामं ध्यायन् हनूमान् विचरति परितस्तं वहन् मानसेन,
यातः पायादपायाद्रघुपतिमयतां कायवाङ्मानसैर्नः॥४५॥
अपने कन्धों पर बैठे हुए राम को शरीर से वहन करते हुए जिन्होंने युद्धभूमि में विचरण किया, राम नाम का संकीर्तन करते हुए जो वाणी से राम को वहन करते हुए विहार करते हैं, जो राम का ध्यान करते हुए उन्हें मन में सदा वहन करते हुए विचरण करते हैं, और इस प्रकार जो शरीर, वाणी और मन से राममय हो गये हैं, वे हनुमान् जी संकटों से हमारी रक्षा करें॥४५॥
कृष्णं विष्णुं स जानन्नपि परपुरुषं राघवान्यावतारं,
रामाकारे दिदृक्षुः पुनरपि पुरतो मारुतिस्तेन युद्धान्।
विभ्राणे राघवस्याकृतिमथ पतितः पादयोस्तस्य दास्यं,
स्पष्टं व्याचष्ट यस्स्वं प्रदिशतु भगवान् भक्तियोगं परं नः॥४६॥
हनुमान् जी यह जानते थे कि कृष्ण परम पुरुष विष्णु तथा राम का दूसरा अवतार ही हैं; फिर भी वे उन्हें राम के रूप में ही देखना चाहते थे, अतः उनके साथ युद्ध करते रहे और जब कृष्ण ने राम का रूप धारण कर लिया तो उनके चरणों में गिर पड़े। इस प्रकार जिन्होंने राम के प्रति अपनी दास्य भक्ति का स्पष्ट व्याख्यान किया वे भगवान् हनुमान् जी हमें अपना परम भक्तियोग प्रदान करें॥४६॥
पुष्पं सौगन्धिकाख्यं हिमगिरिविपिने कृष्णया प्रार्थितं यत्,
भ्रात्रे भीमाय तस्मै तदवचयकृतेः काम्यया भ्राम्यते प्राक्।
संदर्श्यानुग्रहं यो व्यतरदपहरन् स्कन्धयोरस्य गन्धं,
गन्धं संसारबन्धप्रदमपहरताद् गन्धवाहात्मजो नः॥४७॥
द्रौपदी के द्वारा प्रार्थित सौगन्धिक नामक पुष्प को चुन कर लाने की इच्छा से पहले हिमालय के वन में घूमते हुए भाई भीम को जिन्होंने अपने दर्शन देकर अनुगृहीत किया तथा जिन्होंने उसके बलिष्ठ कन्धों के बल के गन्ध (दर्प) को दूर किया, वे गन्धवाह (वायु) के आत्मज (पुत्र) हनुमान् झी संसार के बन्धन को देने वाले हमारे गन्ध (दर्प, घमण्ड) को दूर करें॥४७॥
पार्थादन्यत्र दिव्यां दृशमधिगमितात् सञ्जयाद्वा प्रबुद्धात्,
पार्थस्य स्यन्दनाग्रे कपिकुलतिलकान्मारुतेर्वा ध्वजस्थात्।
सार्थां श्रोतुं हि गीतां परमपुरुषतो निःसृतां कः समर्थः,
सोऽर्थं गीतोपदिष्टं कपिरुपदिशतादस्मदुज्जीवनार्थम्॥४८॥
पार्थ (पृथापुत्र अर्जुन) के अतिरिक्त अथवा दिव्यदृषि के धारक प्रबुद्ध संजय (धृतराष्ट्र के सारथि) के अतिरिक्त अथवा अर्जुन के रथ के ऊपर लगे हुए ध्वज में चित्र रूप से स्थित कपिकुलतिलक मारुति (हनुमान् जी) के अतिरिक्त और कौन है जो परम पुरुष श्रीकृष्ण जी के मुख से प्रकट हुई गीता को अर्थ सहित सुन सका हो? (गीता के महान् श्रोता) वे हनुमान् जी हमारे उत्कृष्ट जीवन के लिये गीता के माध्यम से उपदिष्ट अर्थ का हमें उपदेश दें॥४८॥
मध्ये सिन्धोर्भवाब्धेरिव पुरुषतनावत्र लङ्काख्यपुर्यां,
सीतेवाप्य द्विपञ्चेन्द्रिययुतमनसाऽत्मा दशास्येन बन्धम्।
आचार्यादेव नन्दत्यनिलभुव इवाकर्ण्य नाथस्य वार्ताम्,
इत्यध्यात्मीयरामायणमधि महितो मारुतिस्ताद् गुरुर्नः॥४९॥
जैसे संसार में पुरुष के शरीर में आत्मा ५ ज्ञानेन्द्रियों और ५ कर्मेन्द्रियों के प्रमुख मन से बन्ध जाती है और गुरु से प्रभु (ईश्वर) के विषय में ज्ञान प्राप्त कर प्रसन्न हो जाती है, उसी प्रकार समुद्र के मध्य में स्थित लंकापुरी में दशानन रावण के बन्धन में पड़ी हुई सीता हनुमान् के द्वारा अपने स्वामी (श्रीराम) का समाचार जानकर प्रसन्न हुईं। इस प्रकार अध्यात्मरामायण में गुरु के स्थान पर प्रतिष्ठित मारुति हमारे गुरु बनें॥४९॥
लोकेऽद्यालोकहीने सपदि कलियुगे संस्कृते लुप्यमाने,
लोको रामायणं तत् पठतु कथमिति प्राप्य चिन्तां परां ताम्।
हिन्दीरामायणं यः कविवरतुलसीदासतो भक्तिभावैः,
पूर्णं तूर्णं प्रणाय्य व्यवृणुत सनृणां मारुतिश्चारुशीलः॥५०॥
चारुशील मारुति ने जब देखा कि अब कलियुग आ चुका है, लोक में विद्या का प्रकाश मन्द पड़ने लगा है, संस्कृत भाषा विलुप्त होने लगी है, ऐसे में वाल्मीकि द्वारा संस्कृत भाषा में रचित ’रामायण’ को लोग कैसे पढ़ पायेंगे, तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई और उन्होंने कविवर तुलसीदास के द्वारा भक्तिभाव से पूर्ण हिन्दी रामायण अर्थात् ’रामचरितमानस’ की रचना करा कर उसे (रामायण को) प्रकट कराया॥५०॥
क्रव्यादानां विभाव्यं पुरवरमखिलं हव्यवाहेन दग्ध्वा,
देव्यास्संसेव्य नव्याम्बुजसदृशपदं सेव्यमाश्राव्य भूयः।
अभ्यर्णे वर्णयिष्यंस्तदथ रघुपतेः तीर्णवन्नर्णवं भोः,
तूर्णं कर्णावतीर्णं कुरु सुत मरुतस्तोत्रमुद्गीर्णमेतत्॥५१॥
हे वायु के पुत्र! आपने राक्षसों की भव्य नगरी लंका को अग्नि के द्वारा जलाकर, सीता देवी के नवीन कमल के सदृश सेवनीय चरणों का आराधन कर और बड़े वेग से दौड़ कर सारा समाचार सुनाने के लिये समुद्र को पार कर लिया। मैंने जो यह आपका स्तोत्र रचा है, इसे आप शीघ्रता से अपने कानों में प्रवेश करने दें॥५१॥
उग्रं वा शान्तमूर्तिं दशमुखनगरे विष्टमङ्गुष्ठमात्रं,
अग्रे सौमित्रिसीतासहित रघुपतेः तूर्णं कर्णावतीर्णं।
व्यग्रा निध्याय सद्यो निजहृदि बहुधा सिद्धिमासेदिवांसः,
सुग्राह्यां पावमानेरिति हि नुतिमिमादरेणाददीरन्॥५२॥
हनुमान् जी के जो साधक और उपासक अपने हृदय में उनकी उग्र अथवा शान्त मूर्ति अथवा लंकाश् में प्रविष्ट अङ्गुष्ठमात्र रूप अथवा लक्ष्मण और सीता सहित श्रीराम के आगे बैठे हुए रूप का ध्यान करके अनेक सिद्धियों को प्राप्त करते हैं, वे सभी ’क्योंकि यह पवनपुत्र हनुमान् की स्तुति है, अतः ग्रहण करने योग्य है’-यह सोच कर इस की स्तुति को आदर के साथ ग्रहण करेंगे-मैं ऐसी आशा रखता हूँ॥५२॥
एतां पञ्चाशतं यः पठति हनुमतः प्रश्रितो या शृणोति,
भक्त्या तात्पर्यमस्य प्रवचनविधिना श्रावयत्यन्यभक्तान्।
तद्दृष्ट्या कुष्ठयक्ष्मोदरहृदयशिरःकर्कटादीन् स रोगान्,
उल्लंघ्योल्लाघभूतस्सुखमनुभविता शश्वदुल्लासशीलः॥५३॥
हनुमान् जी की ५० श्लोकों वाली इस स्तुति (श्री हनूमत्पञ्चाशत्) को जो कोई पढ़ेगा अथवा सुनेगा अथवा इसके तात्पर्य को भक्तिपूर्वक प्रवचन करके अन्य भक्तों को सुनायेगा, वह हनुमान् जी की कृपा दृष्टि से कुष्ठ (कोढ़), यक्ष्मा (तपेदिक), उदर, हृदय और मस्तिष्क के कैंसर आदि रोगों से छुटकारा पाकर सदा प्रसन्न, नीरोग और सुखी रहेगा॥५३॥
प्रत्नं रत्नाकरस्य प्रथितमपि यशो दुस्तरत्वे निरस्य,
यत्नैर्येन प्रणीतैरभवदवसितो रामसीतावियोगः।
रत्नं रामायणाख्यस्रज इति कविभिर्मारुतेः कीर्तितस्य,
यत्नस्तस्यार्चने नः क्षणमपि विहितो नित्यकल्याणहेतुः॥५४॥
रत्नाकर (समुद्र) के दुस्तरणीयता के पुरातन प्रसिद्ध यश को निरस्त कर जिन्होंने अपने प्रयासों से राम और सीता के वियोग का अन्त कर दिया, जिन्हें कवियों ने रामायण रूपी माला का रत्न कहा है, उन मारुति (हनुमान् जी) की अर्चना के लिए क्षण बर का भी हमारा प्रयास नित्य कल्याण करने वाला ही होगा॥५४॥
श्रीरामो विश्वसर्गस्थितिविलयकरो यः परब्रह्मभूतः,
भूलोकेऽन्नावतीर्णो दशलपनविलोपाय मायामनुष्यः।
चक्रे सन्दर्शया नः शुभचरितमिषेणैकमादर्शमार्गं,
स्तोत्रं दासस्य तस्योदितमनिलभुवस्तन्मुदे तत्सवेदम्॥५५॥
श्रीराम विश्व की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करनेवाले परम ब्रह्म ही थे किन्तु इस पृथ्वी लोक में वे दशमुख (रावण) के विलोप के लिये माया मनुष्य के रूप में अवतीर्न हुए थे; उन्होंने अपने शुभ चरितों के बहाने से हमें जीवन का आदर्श मार्ग दिखाया। उनके दास-वायुनन्दन श्री हनूमान् जी का यह स्तोत्र उन्हें सदा प्रसन्नता देने वाला हो॥५५॥
सुन्दरराजग्रथितं सुन्दरकाण्डाधिनायकस्तोत्रम्।
सुन्दरमेतत् पठिता नन्दति मुक्तः पुमान् रोगात्॥५६॥
रामायण के सुन्दरकाण्ड के नायक (श्री हनूमान् जी) की कवि सुन्दरराज के द्वारा प्रणीत इस सुन्दर स्तुति (स्तोत्र) को पढ़ने वाला सभी रोगों से मुक्त होकर प्रसन्न रहता है॥५६॥
"मिस्टिक पावर में प्रकाशित सभी लेख विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाते हैं। लेख में उल्लेखित तथ्यों व सूचनाओं का सम्पादन मिस्टिक पावर के अनुभवी एवं विशेषज्ञ सम्पादक मण्डल द्वारा किया जाता है। मिस्टिक पावर में प्रकाशित लेख पाठक को जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। मिस्टिक पावर लेख में प्रदत्त जानकारी व सूचना को लेकर किसी तरह का दावा नहीं करता है और न ही जिम्मेदारी लेता है।"
:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -: